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अस्ताद देबू: चीन की दीवार से लेकर आल्प्स की पहाड़ियों तक हर जगह बिखेरे नृत्य के जलवे

By भाषा | Updated: December 10, 2020 22:38 IST

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मुंबई, 10 दिसंबर अस्ताद देबू... वो शख्स जिसने पारंपरिक शैलियों की बंदिशों को तोड़कर नृत्य की नयी परिभाषा गढ़ी, आज इस दुनिया से रुखस्त हो गया है। ऐसे कम ही कलाकार होते हैं जो अपनी काबिलियत के दम पर खुद की एक कला शैली तैयार कर लें, लेकिन जो काम मुश्किल माना जाता है, उसे अस्ताद देबू ने बड़ी ही खूबसूरती से कर दिखाया।

देश को आजादी से एक महीना पहले दुनिया में आने वाले देबू की कुछ अलग करने की चाह, गैर-परंपरावादी मिजाज और हरदम आगे बढ़ने की कोशिशों ने उन्हें भारत के पहले और शायद सबसे प्रसिद्ध समकालीन नृत्य कलाकारों की कतार में हमेशा आगे खड़ा किया। उन्होंने नृत्य को लेकर समाज में व्याप्त लैंगिक बंधनों की परवाह किये बगैर अपनी एक अलग पहचान बनाई।

नृत्य की दुनिया में दशकों तक भारत का नाम रौशन करने वाले देबू (73) ने बृहस्पतिवार को दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका इस तरह दुनिया से चले जाना उनके परिवार, बेशुमार प्रशंसकों और मित्रों को गमजदा कर गया।

देबू को कथक से कथकली और बैले से भारतनाट्यम तक भारत में आधुनिक नृत्य का नया व्याकरण गढ़ने के लिये याद किया जाएगा। न केवल भारत बल्कि दुनियाभर में नृत्य में दिलचस्पी रखने वालों ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया। उन्होंने लंदन के चेल्सी टाउन हॉल में रॉक बैंड पिंक फ्लॉयड के साथ अपने हुनर के जलवे बिखेरे तो ध्रुपद गायकों गुंडेचा ब्रदर्स के साथ भी समां बांध दिया। कभी जर्मनी की वुप्परटाल डांस कंपनी के पिना बॉश के साथ प्रस्तुति दी तो कभी मणिपुर के पुंग चोलम नृतकों के साथ यादगार नृत्य किया।

लगभग 50 साल के अपने करियर में देबू ने कभी एकल तो कभी समूह के साथ और कभी सहयोगी के तौर पर नृत्य किया।

देबू के पुराने मित्र तथा रंगमंच के कलाकार-निर्देशक तथा एम के रैना ने सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा, ''वह अपने दम पर कामयाबी हासिल करने वाले व्यक्ति, प्रस्तोता, प्रोत्साहक और दिग्गज कलाकार थे, जिन्होंने ग्रेट वॉल ऑफ चाइना से लेकर आल्प्स की पहाड़ियों तक नृत्य किया। दुनियाभर में कहीं भी कला से प्रेम करने वाले लोग उनके निधन से गमजदा होंगे।''

कैंसर से जान गंवाने से पहले तक भी देबू अपने हुनर के जलवे बिखेरते रहे।

देबू के पुराने मित्र तथा पीटीआई की पूर्व पत्रकार पद्मा अल्वा ने कहा, ''वह पिछले महीने तक मंच पर न सही पर डिजिटल माध्यमों से प्रस्तुतियां दे रहे थे। वह सबसे सक्रिय प्रस्तोताओं में शुमार थे। ''

अल्वा ने उन्हें उस दौर के आधुनिक नृत्य का जगमगाता सितारा करार दिया, जब भारत में इस विधा में पुरुष कलाकारों की मौजूदगी न के बराबर थी। उन्होंने कहा कि शुरुआत में उनके नृत्य करने को लेकर बहुत से लोगों ने भौंहें तानी, लेकिन देबू कभी इसकी परवाह नहीं की।

अल्वा ने कहा, ''एकमात्र जंग जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा वह थी कैंसर से लड़ाई। वह लिम्फोमा से पीड़ित थे।''

देबू ने एक बार खुद कहा था कि एक समय ऐसा भी था जब बहुत से भारतीय उनकी शैली को ''बहुत अधिक पश्चिमी'' कहते थे जबकि पश्चिमी देशों के लोगों को लगता था कि उनकी शैली में ''भारतीयता का पुट'' बाकी नहीं रह गया है।

देबू का जन्म 13 जुलाई 1947 को गुजरात के नवसारी कस्बे में हुआ था। जीवन के पहले छह साल कोलकाता में बीते, जिसके बाद परिवार जमशेदपुर चला गया। वहां उनके पिता टाटा स्टील में काम करते थे। उनकी मां गृहिणी थी। इसके अलावा परिवार में दो पहन कमल और गुलशन हैं।

देबू में बचपन से ही नृत्य के लेकर जूनून सवार था। उन्होंने कम उम्र में ही गुरू प्रहलाद दास से कथक सीखा और जमशेदपुर के लोयोला स्कूल से पढ़ाई की। 1964 में स्कूल की पढ़ाई करने के बाद वह मुंबई चले गए और मुंबई विश्वविद्यालय के पोदार कॉलेज में बी. कॉम पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया।

अमेरिकन मुरे लुईस डांस कंपनी की प्रस्तुति देखने के बाद उनका रूझान समकालीन नृत्य की मुड़ गया। इसके बाद उन्होंने पीछे मुडकर नहीं देखा। 1974 में वह मारथा ग्राहम आधुनिक नृत्य केन्द्र में डांस सीखने के लिये कलाकार उत्तरा आशा कूरलावाला की मदद से न्यूयॉर्क चले गए। वहां से वह लंदन आधुनिक नृत्य विद्यालय, जर्मनी की वुप्परटाल डांस कंपनी और अमेरिका की पिलोबोलोस डांस कंपनी चले गए।

उन्होंने गैर-पारंपरिक स्थानों पर जैसे, संग्रहालय, गलियों, आल्प्स की पहाड़ियों और दुनिया के अजूबों में से एक चीन की दीवार पर भी नृत्य किया। 2002 में उन्होंने अस्ताद देबू डांस फाउंडेशन की स्थापना की, जिसमें कमजोर तबके के लोगों को रचनात्मक प्रशिक्षण दिया जाता है। देबू को भारत और विदेश में दो दशक तक बधिर बच्चों के साथ काम करने के लिये भी सम्मान दिया जाता है।

पांच दशक के नृत्य के सफर में दुनियाभर में भारत का नाम रौशन करने वाले अस्ताद देबू आज अपने आखिरी सफर पर निकल गए।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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