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बजट 2019: पूर्व PM राजीव गांधी ने कॉर्पोरेट जगत की मनमानी पर कसी थी नकेल, फिर भरने लगा था सरकार का खजाना

By रामदीप मिश्रा | Updated: January 25, 2019 17:24 IST

भारत में 1 अप्रैल से 31 मार्च तक के वित्त वर्ष की व्यवस्था 1867 में अपनाई गई थी। इसका मकसद भारतीय वित्त वर्ष का ब्रिटिश सरकार के वित्त वर्ष से तालमेल बिठाना था। उससे पहले तक देश में वित्त वर्ष 1 मई से 30 अप्रैल तक होता था।

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देश की नरेंद्र मोदी सरकार 1 फरवरी को अपने इस कार्यकाल का आखिरी बजट पेश करने जा रही है। बताया जा रहा है सरकार अंतरिम बजट पेश करगी क्योंकि इस साल लोकसभा चुनाव होने हैं। वहीं, देश के बजट की बात करें तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक बार ऐसा कदम उठाया था जिसके चलते सरकार के खजाने में काफी इजाफा हुआ था और कॉर्पोरेट जगत पर नकेल कस दी थी।

दरअसल, पूर्व पीएम राजीव गांधी ने 1987 के फरवरी महीने में बजट पेश किया था। वे इस बजट में मिनमन कॉर्पोर्ट टैक्स का प्रावधान लेकर आए थे। इसके जरिए उन्होंने कॉर्पोरेट क्षेत्र पर नकेल कस दी थी ताकि वे मनमानी न कर सकें। उस समय बड़ी-बड़ी कंपनियां खूब मुनाफा कमाती थीं, लेकिन टैक्स के नाम पर बहुत कम पैसे सरकार को देती थीं।

इस बजट को पेश करते हुए राजीव गांधी ने कहा था अब सभी कंपनियों को अपने बुक प्रॉफिट का 15 फीसदी टैक्स देना होगा। उनके इस कदम से भारत सरकार के राजस्व में बड़ी वृद्धि हुई थी। 

बता दें, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 के तहत सरकार को हर साल संसद में एक वार्षिक वित्तीय विवरण पेश करना होता है। इसमें सालाना आय-व्यय का लेखा-जोखा होता है। इसे ही बजट कहते हैं। वैसे संविधान में बजट शब्द का उल्लेख नहीं है। लेकिन, आसान भाषा में कहें तो किसी भी सरकार द्वारा आगामी वर्ष में अपनी आय एवं व्यय का संतुलन स्थापित करते हुए विस्तृत ब्यौरा बजट कहलाता है। 

आम तौर पर एक वित्त वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च के बीच का होता है। बजट में सरकार की आर्थिक नीति की दिशा दिखाई देती है। इसमें मंत्रालयों को उनके खर्चों के पैसे आवंटन होता है। लेकिन, भारत में प्रत्येक पांच साल में आम चुनाव होते हैं और सरकार बदलने की संभावना रहती है। ऐसे में आम चुनाव से पहले पेश किए जाने वाला बजट सिर्फ कुछ महीनों के खर्च के लिए होता है। इसे अंतरिम बजट कहते हैं।

1867 में अपनाई गई थी मौजूदा व्यवस्था

भारत में 1 अप्रैल से 31 मार्च तक के वित्त वर्ष की व्यवस्था 1867 में अपनाई गई थी। इसका मकसद भारतीय वित्त वर्ष का ब्रिटिश सरकार के वित्त वर्ष से तालमेल बिठाना था। उससे पहले तक देश में वित्त वर्ष 1 मई से 30 अप्रैल तक होता था। नीति आयोग ने भी वित्त वर्ष में बदलाव पर जोर दिया था। उसकी दलील थी कि मौजूदा प्रणाली में कामकाज के सत्र का उपयोग नहीं हो पाता। संसद की वित्त पर स्थाई समिति ने भी वित्त वर्ष जनवरी-दिसंबर करने की सिफारिश की थी।

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