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राजेश बादल का ब्लॉग: इमरान खान के नारों से ऊब चुका है पाकिस्तान

By राजेश बादल | Updated: October 26, 2021 09:24 IST

पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने के बाद पहली बार बिखराव बिंदु के करीब पहुंच रहा है. इमरान खान के रहते आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती.

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मौजूदा दौर में अवाम खोखले नारों पर भरोसा नहीं करती. वह सपनों के सौदागरों को सत्ता की चाबी सौंपने से बचना चाहती है. समूचा भारतीय उपमहाद्वीप कमोबेश इसी मानसिकता से गुजर रहा है. इस नजरिये से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान साख के गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं. 

एक तरफ आंतरिक मोर्चे पर उनकी नाकामी ने नागरिकों को निराश किया है तो दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मुल्क की प्रतिष्ठा लगातार दरक रही है. उन्हें कुरसी पर बिठाने वाले फौजी हुक्मरान भी अब महसूस करने लगे हैं कि एक खिलंदड़ क्रिकेटर को प्रधानमंत्री बनाने का प्रयोग विफल रहा है. 

बीते दिनों आईएसआई प्रमुख को बदलने के बाद से सैनिक नेतृत्व के साथ इमरान खान की पटरी नहीं बैठ रही है. उनके लिए यह नाजुक वक्त है और ऐसे अवसर पर ही संयुक्त विपक्ष ने एक बार फिर उनके खिलाफ आंदोलन तेज कर दिया है. अब इमरान खान के सामने दो विकल्प ही बचते हैं- वे आईएसआई और सेना के हाथों की कठपुतली बने रहें या फिर पद छोड़कर नया जनादेश हासिल करने की तैयारी करें. 

दोनों विकल्प जोखिम भरे हैं. सेना का रबर स्टांप बने रहने से वे किसी तरह कार्यकाल तो पूरा कर लेंगे लेकिन उनका समूचा सियासी सफर एक अंधे कुएं में समा जाएगा. दूसरी ओर नए चुनाव कराने का रास्ता भी कांटों भरा है. उनके खाते में उपलब्धि के नाम पर एक विराट शून्य है, जिसके सहारे वे अपने दल को राजनीतिक वैतरणी पार नहीं करा सकते. यानी एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई की विकट स्थिति उनके सामने है.

दरअसल, पाकिस्तान जैसे फौज केंद्रित देश में कोई भी सरकार अपना लोकतांत्रिक धर्म नहीं निभा सकती. इस देश में सेना से रार ठानने का खामियाजा नवाज शरीफ और जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे कद्दावर राजनेता भुगत चुके हैं. वे तभी तक अपनी गद्दी को सुरक्षित रख पाए, जब तक सेना के इशारों पर नाचते रहे. जैसे ही वे सेना के सामने चुनौती बनने लगे, सेना ने उनके नीचे से जाजम खींच ली. लेकिन भुट्टो और नवाज शरीफ तथा इमरान खान के बीच एक बुनियादी फर्क है. 

जुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज शरीफ अपनी सीमाओं में रहते हुए भी आम आदमी के लिए भला करते थे और पाकिस्तान की कंगाली पर भी रोक लगा कर रखते थे. वे अवाम को सपने दिखाते थे तो उन्हें साकार करने के प्रयास भी जमीन पर साकार होते दिखाई देते थे. उनके कार्यकाल में पाकिस्तान ने अनेक उपलब्धियां भी हासिल की हैं. लेकिन इमरान खान की स्थिति इसके बिल्कुल उलट है. 

इमरान खान की छवि एक गैर जिम्मेदार, बार-बार यूटर्न लेने वाले और रंगीनमिजाज राजनेता की है. वे बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. अपने से अधिक काबिल लोगों को आगे नहीं आने देते. पाकिस्तान की तरक्की के वास्ते न उनके पास कोई आधुनिक पेशेवर कार्यक्रम है और न सोच. वे आत्ममुग्ध और किसी भी तरह सत्ता से चिपके रहने वाले शख्स हैं. 

इस कारण प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद वे चुनाव से पहले जनता से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं कर सके. मुल्क में महंगाई चरम पर है. गरीबी और बेरोजगारी विकराल रूप में सामने है. सरकार का खजाना खाली है और इमरान खान भिक्षापात्र लिए कभी विश्व बैंक तो कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तो कभी चीन से गिड़गिड़ाते नजर आते हैं.

आंकड़ों में न भी जाएं तो सार यह है कि भारत के इस पड़ोसी का रोम-रोम कर्ज से बिंधा हुआ है और इमरान के सत्ता संभालने के बाद से स्थिति लगातार बिगड़ती गई है. औसतन पाकिस्तान के प्रत्येक नागरिक पर लगभग दो लाख रुपए का कर्ज है. चीन ने अपना निवेश कम कर दिया है. उसे आशंका है कि पाकिस्तान अमेरिकी शरण में जा रहा है. काफी हद तक इसमें सच्चाई है. 

अमेरिका की निकटता पाने के लिए पाकिस्तान छटपटा रहा है. इस चक्कर में वह चीन का भरोसा खो रहा है. रूस भी बहुत सहायता करने के मूड में नहीं है. सऊदी अरब नाराज है और तालिबान के मामले में आतंकवाद को शह देने की इमरान खान की घोषित नीति ने उन्हें विश्व में अलग-थलग कर दिया है. 

फैज हमीद की आईएसआई प्रमुख के पद पर नियुक्ति के बाद सेना से इमरान खान के मतभेद का कारण भी यही नीति रही है. अब तक तो परंपरा यही है कि सेना के साथ टकराव मोल लेने वाला अपनी कुर्सी की रक्षा नहीं कर सका है. इमरान खान जनरल बाजवा के सामने तीन बार समर्पण की मुद्रा में आ चुके हैं. देखना होगा कि फौज उन्हें कब तक अभयदान देती है.

अंत में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इमरान खान और सेनाध्यक्ष अपनी-अपनी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते भी पाकिस्तान में आम अवाम के बीच बहुत भावनात्मक जुड़ाव महसूस नहीं करते. सेनाध्यक्ष बाजवा अहमदिया समुदाय के हैं. वे बहुसंख्यक आबादी में हाशिए पर रहने वाले समुदाय से आते हैं.

इसी तरह इमरान खान का खानदान नियाजी है और ढाका में पाकिस्तानी सेना ने जनरल नियाजी के नेतृत्व में ही भारत के सामने हथियार डाले थे. इस समर्पण के बाद नियाजियों को वहां हेय दृष्टि से देखा जाने लगा था. लाखों नियाजियों ने अपनी जाति लिखनी ही छोड़ दी थी. इस तरह दोनों शिखर पुरुष अपने-अपने हीनताबोध के साथ मुल्क में शासन कर रहे हैं. वे दोनों ही बहुमत का प्रतिनिधित्वनहीं करते.

पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने के बाद पहली बार बिखराव बिंदु के करीब पहुंच रहा है. इमरान खान के रहते आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती. कोई चमत्कार ही पाक का उद्धार कर सकता है.

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