राजेश बादल का ब्लॉगः अभिव्यक्ति के लिए सत्ता की चुप्पी का अर्थ क्या?
By राजेश बादल | Updated: October 23, 2019 11:05 IST2019-10-23T11:05:33+5:302019-10-23T11:05:33+5:30
सरकारी दफ्तरों से ऐसी सूचनाएं नहीं जुटानी चाहिए जिनसे हुकूमत की पेशानी पर बल पड़ते हों. कह सकते हैं ऑस्ट्रेलिया का लोकतंत्न एक ऐसी सुरंग में प्रवेश कर चुका है जिसके दूसरे छोर पर निरंकुशता के पहरेदार तैनात हैं.

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ऑस्ट्रेलिया के पत्नकार गुस्से में हैं. सोमवार की सुबह उनकी यह नाराजगी अखबार के पन्नों पर पसरी दिखाई दी. बीते दो दशकों में अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से असर डालने वाले दर्जनों कानून वहां की सरकार ने थोप दिए हैं. सिर्फ दो साल में ही देश के संविधान में बाईस नए विधान जोड़ दिए गए हैं.
मुल्क की विचार बिरादरी का कहना है कि इन नए विधानों के जरिए सरकार ने अपने चारों ओर कवच बना लिया है. जो भी इस कवच पर प्रहार करने का प्रयास करेगा उसे पुलिस, अदालत, दंड, नौकरी खोने और सामाजिक अपयश जैसे हिंसक हथियारों का सामना करना पड़ेगा. संपादक-पत्नकार अगर आक्रमण के इन आधुनिक अवतारों से बचना चाहते हैं तो उन्हें सरकार के खिलाफ लिखना बंद कर देना चाहिए. खोजी पत्नकारिता नहीं करनी चाहिए.
सरकारी दफ्तरों से ऐसी सूचनाएं नहीं जुटानी चाहिए जिनसे हुकूमत की पेशानी पर बल पड़ते हों. कह सकते हैं ऑस्ट्रेलिया का लोकतंत्न एक ऐसी सुरंग में प्रवेश कर चुका है जिसके दूसरे छोर पर निरंकुशता के पहरेदार तैनात हैं. संसार में स्वतंत्नता की बयार के मायने लोकतंत्न की किताबों के आधुनिक संस्करणों में बदलने लगे हैं.
ऑस्ट्रेलिया की सरकार सफाई दे रही है कि वह पत्नकारों का अभिव्यक्ति का अधिकार सुनिश्चित करना चाहती है, लेकिन कानून से ऊपर कोई नहीं है. इस मासूम तर्क को कोई भी जागरूक समाज क्यों न खारिज कर दे. उसके सामने एक लेख के प्रकाशन पर ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के एक पत्नकार और न्यूजकॉर्प की एक महिला संवाददाता के घर पुलिस छापे का उदाहरण है.
पुलिस लंबे समय से उस पत्नकार की जासूसी कर रही थी. जासूसी का हक भी उसे हालिया कानूनों से मिला है. एक नमूना इस बात पर संवाददाता को महीनों परेशान करने का है कि उसने संसद की कैंटीन में सांसदों को मिलने वाली खाने-पीने की चीजों की कीमतें पूछने की गुस्ताखी की थी.
एक अन्य पत्नकार को भी पुलिस की पूछताछ और मामले दर्ज होने की कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है. उसने समाचार प्रकाशित किया था कि सरकार का आयकर विभाग किस तरह लोगों के खाते से चुपचाप पैसे निकाल लेता है. यह एक तरह से चोरी ही है. अब जो प्रकरण उसके विरुद्ध पंजीबद्ध किए गए हैं, उनमें उसे कई जन्मों की कैद हो सकती है.
देश में बैंक घोटाले और वरिष्ठ नागरिकों के रख-रखाव कोष में अनियमितताओं की खबरों ने लोगों में सरकार के प्रति भरोसा कम किया है. इस तरह के अनेक मामले हैं, जिनमें मीडिया से जुड़े लोगों और पूर्णकालिक संपादकों तथा पत्नकारों को सताया गया है. अब इनके बाद अगर आपस में घनघोर प्रतियोगिता वाले समाचार पत्न एक मंच पर आकर सरकार के इन फैसलों को गलत ठहरा रहे हैं तो मान लेना चाहिए कि अचानक उन्हें किसी पागल कुत्ते ने नहीं काटा है.
वे पहले पन्ने को काला रंग देकर सिर्फ दमन का विरोध नहीं कर रहे हैं, बल्कि ऑस्ट्रेलिया की अवाम और प्रतिपक्ष को भी आगाह कर रहे हैं. इन दिनों इन दो महत्वपूर्ण मंचों से सत्ता के रवैये पर असहमति का स्वर बुलंद नहीं हुआ तो लोकतंत्न को टिकाने के लिए मजबूत स्तंभ किस मंडी में मिलेंगे - कोई नहीं कह सकता. विपक्ष की ओर से अभी तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के पक्ष में फिलहाल कोई ऐलान नहीं आया है.
वैसे तो ऑस्ट्रेलियाई सरकार के इस बयान से कौन असहमत हो सकता है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है. अगर मीडिया नहीं तो सरकार को भी कानून से कोई विशिष्ट छूट पाने का अधिकार नहीं है. लोकतांत्रिक प्रणाली किसी भी निर्वाचित सरकार को यह हक नहीं देती कि वह शासन तंत्न के लिए बनाए गए संविधान को तोड़-मरोड़ कर अपने हित में इस्तेमाल करे.
यदि जनता के नुमाइंदे अपने ही मतदाताओं को जानने का अधिकार नहीं देना चाहते और पारदर्शिता की धज्जियां उड़ाते हैं तो वे पद पर बने रहने का हक खो चुके हैं. इसी महीने वहां हुए एक सर्वेक्षण में 87 फीसदी नागरिकों ने ऑस्ट्रेलियन सरकार के इस रुख से असहमति जताई है. मीडिया समुदाय से एक भी साक्ष्य नहीं है जिसमें उसने अपने को कानून से ऊपर समझने की मानसिकता दिखाई हो या अपने लिए संविधान में किसी विशिष्ट स्थान की मांग की हो.
विडंबना है कि इन दिनों संसार के प्रतिष्ठित लोकतंत्न एक ऐसे मोर्चे पर डटे दिखाई देते हैं जिनका सामना तानाशाही के घुड़सवारों से हो रहा है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प ने अपना पहला कार्यकाल शुरू करते ही अनेक मीडिया घरानों के सामने म्यान से अपनी तलवार निकाल ली थी. अब तक उनकी भवें तनी हुई हैं.
अमेरिकी प्रेस ने लगातार उनके पूर्वाग्रही रवैये पर सवाल उठाए हैं. मध्य पूर्व के अनेक मुल्कों में अखबारनवीसी के जोखिम जग जाहिर हैं. चीन का शासन तंत्न तो निष्पक्ष पत्नकारिता के प्रति क्रूर रवैये के लिए कुख्यात है. ताज्जुब है कि इस विचित्न तंत्न को लेकर सारे विश्व ने चुप्पी साधी हुई है. भारत में यदाकदा अधिनायकवादी प्रवृत्तियां सिर उठाती रही हैं.
आपातकाल के बाद बिहार प्रेस बिल से लेकर मानहानि विधेयक और मौजूदा दौर तक निष्पक्ष पत्नकारिता करना विकराल चुनौती बन चुकी है. जनता और प्रतिपक्ष की भूमिका ऐसे अवसरों पर महत्वपूर्ण हो जाती है. भारतीय विचारक संपादक राजेंद्र माथुर ने अनेक अवसरों पर पत्नकारों की भूमिका को लेकर स्पष्ट राय व्यक्त की है.
उनका कहना था कि जब पत्नकारिता को अपने निष्पक्ष धर्म को निबाहना कठिन हो जाए और उसे लगे कि किसी न किसी पक्ष में जाना ही पड़ेगा तो उसे जनता के साथ खड़ा हो जाना चाहिए. यह कसौटी इकतरफा नहीं है क्योंकि भारत में जब भी पत्नकारिता को कुचलने के प्रयास हुए तो अवाम ने मीडिया का साथ दिया है. बशर्ते मीडिया के निजी स्वार्थ न हों.