विजय दर्डा का ब्लॉगः लोग ही उतार सकते हैं चीन की गर्मी और मगरूरी
By विजय दर्डा | Published: June 1, 2020 07:16 AM2020-06-01T07:16:15+5:302020-06-01T07:16:15+5:30
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी ने अपने दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष पूरा किया. मैं उन्हें बधाई देता हूं. हिंदुस्तान की आत्मनिर्भरता की उनकी मंशा को मैं समझ सकता हूं. वे भारत को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं और यह नारा उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में भी दिया था. इस पर विचार करना होगा कि वह पूरी तरह से सफल क्यों नहीं हुआ? उनके सामने क्या दिक्कतें आ रही होंगी? नीति आयोग ने तो ब्लू प्रिंट भी तैयार किया था मगर जो सफलता मिलनी चाहिए थी वैसा हुआ नहीं.
बल्कि मैं यह कहना चाहूंगा कि ब्लू प्रिंट से प्रभावित होकर जिन लोगों ने उद्योग लगाए वे भी सफल नहीं हो पाए. डिफेंस क्षेत्र में स्थापित उद्योगों को भी बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा. इन परेशानियों का कारण यह है कि भारत अपने उद्योगों से खरीददारी के बजाय विदेशों से खरीदी करता है. इसे लेकर नितिन गडकरी ने कई बार शिकायतें भी कीं. गडकरी कहते हैं कि अगरबत्ती बनाने के लिए उपयोग में आने वाली स्टिक और आइसक्रीम की चम्मच भी हम चीन से खरीद रहे हैं क्योंकि बांस को लेकर हमारी फॉरेस्ट नीति अनुकूल नहीं है. इसके ठीक विपरीत चीन की नीतियां ऐसी हैं कि वह हर क्षेत्र में छा गया है. हम अपनी सांसों को छोड़ दें तो हमारे उपयोग की ज्यादातर सामग्री चीन से आ रही है. चीन हमारे पूजाघर में प्रवेश कर गया है.
भगवान भी चीनी हो गए. हमारे घर में रखी भगवान की मूर्तियां भी वहीं से बनकर आ रही हैं और उनकी पूजा के लिए अगरबत्ती स्टिक भी वहीं से आ रही है. दिवाली के पटाखे और डेकोरेशन की सामग्री भी वहीं से आती है. हमारे यहां कोई मोटरसाइकिल बन रही है तो उसके कल-पुर्जे चीन से आ रहे हैं. दवाइयों के लिए जरूरी सामग्री चीन से आ रही है. पुल के लिए स्टील की रस्सियां चीन से आ रही हैं. यहां तक कि मेट्रो के कोच भी चीन से आ रहे हैं. विडंबना देखिए कि हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक सरदार वल्लभभाई पटेल की विश्व की सबसे बड़ी प्रतिमा भी चीन से बनकर आई. यहां तो हमने केवल पुर्जो को जोड़ा! इसीलिए हमने कहा भी था- ‘सरदार पटेल मेड इन चाइना’! यह सारा निर्माण हम क्यों नहीं कर सकते? क्या हमारे उद्योगों में यह क्षमता नहीं है? है..है..है! जरूरत यह है कि हम अपने उद्योजकों को प्रेरित करें. उनके सपनों को साकार करें, उनकी आर्थिक मदद करें.
एक बात ध्यान में रखिए कि चीन को यदि पछाड़ना है तो हमें अपनी लकीर बड़ी करनी होगी. उसकी लकीर हम मिटा नहीं सकते. हमें मेहनत करनी होगी. अपने काम और प्रोडक्ट में क्वालिटी लानी होगी तभी हम आत्मनिर्भरता ला सकते हैं. आत्मनिर्भरता की बदौलत ही हम हिंदुस्तान को आर्थिक ताकत के रूप में स्थापित कर सकते हैं. मैंने पार्लियामेंट में चर्चा के दौरान कई बार कहा है कि अब जंग हथियारों से ज्यादा आर्थिक मोर्चे पर लड़ी जाएगी. जब हम आर्थिक ताकत होंगे तो कोई भी हमें आंख नहीं दिखा पाएगा. ये चीन जो आंखें दिखा रहा है वह हम पर दबाव डालने के लिए तो है ही. जब भी उसकी आर्थिक स्थिति खराब होती है और जन विद्रोह की आशंका होती है तो वह जंग जैसी स्थिति पैदा कर देता है ताकि जन विद्रोह न हो. 1962 में भी उसकी आर्थिक स्थिति खराब हुई थी और जन क्रांति की आशंका थी इसलिए उसने जंग छेड़ दी थी.
लेकिन कमजोर स्थिति के बाद भी चीन हमसे बहुत आगे है. चीन की जीडीपी इस वक्त करीब 14 ट्रिलियन डॉलर है जबकि हमारी जीडीपी तीन ट्रिलियन डॉलर तक भी नहीं पहुंच पाई है. चीन में हर व्यक्ति की औसत मासिक आय 58 हजार रुपए है तो हिंदुस्तान में प्रति महीने औसत आय 11 हजार रु.ही है. पिछले दस सालों का आंकड़ा देखें तो चीन के पास औसत स्वर्ण भंडार 1000 टन से ज्यादा रहा जबकि भारत के पास महज 500 टन स्वर्ण भंडार है. अमेरिका सबसे आगे है जिसके पास औसतन 8000 टन स्वर्ण भंडार रहता ही है. आर्थिक ताकत के मामले में अमेरिका के बाद चीन दूसरे नंबर पर है और तकनीक के मामले में भी तेजी से आगे बढ़ रहा है. चीन ने मेनलैंड से हांगकांग के बीच समुद्र पर 20 बिलियन डॉलर की लागत से 8 लेन का 55 किलोमीटर लंबा पुल महज 7 साल में तैयार कर दिया. हम अपने यहां का हाल देखें. केवल 5.6 किलोमीटर लंबे बांद्रा-वर्ली सी लिंक को बनने में दस साल लग गए. हमारे इंजीनियरों में अकूत क्षमता है और वे भी ऐसा कमाल कर सकते हैं लेकिन हकीकत यह है कि हमारे यहां व्यवधान बहुत हैं क्योंकि हम लोकतांत्रिक देश हैं. निर्माण की गति बढ़ाने के लिए जरूरी है कि पर्यावरण, मानवाधिकार और न्याय क्षेत्र से जुड़े सभी पक्षों को समन्वय और सहयोग का वातावरण तैयार करना होगा. फैसले तेज करने होंगे.
हमें चीन को पछाड़ना है तो उस पर निर्भरता खत्म करनी होगी. चीनी सामग्री का उपयोग बंद करना होगा. यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि मुङो चीनी भाई-बहनों से कोई नफरत नहीं है. हम तो वसुधैव कुटुम्बकम यानी पूरी दुनिया को कुटुम्ब मानने वाले लोग हैं. हमारा विरोध चीन की नीतियों से है. तो हमें टिकटॉक और उस जैसे अन्य सभी चीनी एप्स का इस्तेमाल तत्काल बंद करना चाहिए और चीनी माल का उपयोग बंद करने के लिए एक साल का लक्ष्य निर्धारित कर लेना चाहिए.
तो सवाल है!
इसके लिए है तैयारी आपकी?
और जनता का जवाब है..
हां है! हमने समय-समय पर पुरुषार्थ दिखाया है. देश निर्माण में हाथ बंटाया है, राष्ट्र के लिए कुर्बानी दी है और अब भी देंगे!