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विजय दर्डा का ब्लॉग: यूपी में कितना रंग दिखाएंगे ये दलबदलू..?

By विजय दर्डा | Updated: January 17, 2022 10:15 IST

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह कई बड़े नेताओं ने भाजपा का साथ छोड़, उसे देखते हुए यह कहना बहुत कठिन है कि ये चुनावी हवा का रुख है या फिर टिकट पाने का गणित...

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उत्तर प्रदेश से करीब-करीब हर रोज खबर आ रही है कि अमुक नेता ने मौजूदा पार्टी छोड़ दी है और दूसरे दल में चले गए हैं. स्वाभाविक रूप से सत्ता में भाजपा है तो दलबदल का सामना उसे ही ज्यादा करना पड़ रहा है. भाजपा दम भर रही है कि उत्तरप्रदेश के सिंहासन पर इस बार फिर कमल की ही पूजा होगी तो सवाल उठता है कि उत्तरप्रदेश के विभिन्न क्षत्रप उसका साथ क्यों छोड़ रहे हैं? ..और ये दलबदलू इस चुनाव में कितना रंग दिखा पाएंगे?

दरअसल चुनाव की घोषणा के ठीक पहले तक सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. पिछले सप्ताह दिल्ली में भाजपा कोर कमेटी की बैठक थी और वहीं से यह खबर छन कर आई कि भाजपा अपने 100 से ज्यादा विधायकों के टिकट काटने वाली है. इसके ठीक बाद मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस्तीफा दे दिया. उनके इस्तीफा देते ही यूपी में इस्तीफों की झड़ी लग गई. 

तीन मंत्रियों समेत करीब दर्जन भर विधायक अभी तक इस्तीफा दे चुके हैं. जिन्होंने भी इस्तीफा दिया है उनका आरएसएस से भावनात्मक रिश्ता कभी नहीं रहा. स्वामी प्रसाद मौर्य लंबे समय तक कांशीराम के और बाद में मायावती के करीबी थे. टिकट की चाह में भाजपा से जुड़े और जातिगत राजनीति में मंत्री भी बने. अब फिर सपा में पहुंच गए हैं. दूसरे जिन लोगों ने दल बदला है वे सभी अपने इलाके में प्रभाव रखते हैं.

भाजपा से भगदड़ में सपा की झोली भरी है लेकिन दिलचस्प बात है कि अखिलेश यादव ने साफ कह दिया है कि अब भाजपा के किसी विधायक को वे सपा में नहीं लेंगे. आखिर अखिलेश ने ऐसा क्यों कहा? संभवत: वे मतदाताओं को यह संदेश देना चाहते हैं कि भाजपा में हालात ठीक नहीं हैं और सपा में आने के लिए कतार लगी है. दूसरी तरफ वे सपा में आए लोगों को भी संदेश देना चाह रहे हैं कि टिकटों के लिए ज्यादा मुंह न खोलें. 

अखिलेश को पता है कि किसान आंदोलन के कारण पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भाजपा को क्षति हो सकती है. चौधरी चरण सिंह के पोते और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी को भाजपा अपने खेमे में नहीं रख पाई है. उन्हें मनाने की कोशिशें चल रही हैं लेकिन यह आसान नहीं है. उसका सपा को फायदा मिल सकता है. यही कारण है कि सपा ने पूर्वाचल में ध्यान केंद्रित किया है और छोटे दलों को अपने साथ जोड़ा है. 

पूर्वाचल में पिछले चुनाव में भाजपा को 160 में से 115 सीटें मिली थीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पूर्वाचल का गढ़ बचाने के लिए लगातार दौरा करते रहे हैं.  कुल करीब 95 हजार करोड़ की सौगात पूर्वाचल को मिली है.

भाजपा में अभी जो भगदड़ मची है उसे छोटे दल बनाम बड़े दलों के रूप में भी देखना होगा. उत्तरप्रदेश की राजनीति इस बात की गवाह रही है कि जब भी बड़े दल मजबूत हुए हैं तो छोटे दलों को नुकसान हुआ है और जब भी बड़े दलों ने छोटे दलों को साथ लिया है तो छोटे दल ज्यादा मुनाफे में रहे हैं और उनके नेता बाद में उस पार्टी के लिए ही संकट पैदा करने लगते हैं. 

वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्षेत्रीय दलों से भय नहीं लगता. वे जानते हैं कि ये कुछ नहीं बिगाड़ सकते. राष्ट्रीय दल कांग्रेस का यदि यूपी में 5 प्र.श. भी जनाधार है तो उससे फर्क पड़ सकता है. यही कारण है कि वे केवल कांग्रेस पर ही ज्यादा प्रहार करते हैं.

अब इस बात पर गौर करते हैं कि दलबदल करने वालों का इसके पहले क्या हुआ है. विश्लेषण करें तो पता चलता है कि 2014 से 2020 के बीच जिन 12 सांसदों ने दलबदल किया और दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ा उनमें से किसी को भी जीत नहीं मिली. जिन 357 विधायकों ने दलबदल करने के बाद विधानसभा का चुनाव नए सिरे से लड़ा उनमें से 170 विजयी हुए. कुल मिलाकर देखें तो दलबदल वाले 433 विधायकों और सांसदों में से 52 प्रतिशत ने जीत हासिल की. 

यहां आपको याद दिला दूं कि पिछले तीन चुनावों में मतदाताओं ने यूपी में सरकारें बदली हैं. 2007 में बसपा की सरकार बनी तो 2012 में सपा आ गई और 2017 में भाजपा को सत्ता मिली. इस बार योगीजी कह रहे हैं कि उन्होंने पिछले पांच साल में 5 लाख करोड़ रुपए सीधे तौर पर प्रदेश को दिया है. ये लाभार्थी भाजपा को वोट देंगे. लेकिन मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि कामों पर वोटों की कभी बारिश नहीं होती. लोगों को कुछ सौगातें इसलिए मिल जाती हैं क्योंकि सरकार को ऐसा लगता है कि काम करेंगे तो वोट मिलेंगे.

यूपी जैसे राज्य में तो धार्मिक ध्रुवीकरण और जातिगत राजनीति ही ज्यादा मायने रखती है. भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण में माहिर मानी जाती है. राम जन्मभूमि के बाद कृष्ण जन्मभूमि का मामला रंग दिखा रहा है. योगीजी अपने भगवे कपड़े में रहते ही हैं. इस कारण हिंदू वोटों का बहुत बड़ा फायदा भाजपा को मिलेगा ही. इसी तरह मुस्लिम इस वक्त सपा खेमे में हैं लेकिन ओवैसी भी मुसलमानों को अपने साथ लाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. कह सकते हैं कि मुसलमान वोटर्स को रिझाने की कोशिश में नंबर दो की लड़ाई ओवैसी और कांग्रेस के बीच है. इधर मायावती ठंडी पड़ी हैं. वे अपनी राजनीतिक और आर्थिक अड़चनों में फंसी हुई हैं. उनका वजूद ही नजर नहीं आ रहा है. इसके बावजूद दलितों की वही नेता हैं. इधर दलितों और जाटों के नेता एक जगह जरूर आ रहे हैं लेकिन समुदाय के बीच मुजफ्फरनगर की घटना के बाद दरार और चौड़ी हुई है.

..तो उत्तरप्रदेश का ये चुनाव वाकई दिलचस्प होने वाला है. आगे-आगे देखिए होता है क्या..!

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