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Uttarkashi Cloudburst Flash Floods: प्राकृतिक आपदा से ज्यादा मानव जनित संकट...

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: August 7, 2025 05:19 IST

Uttarkashi Cloudburst Flash Floods: पड़ताल करने के लिए यह समझना होगा कि बादल का फटना क्या होता है और वह कौन सी परिस्थिति होती है कि बादल फटते हैं?

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ठळक मुद्देहिमाचल और उत्तराखंड में पिछले वर्षों में बादल फटने की घटनाएं डेढ़ गुना बढ़ी हैं.वातावरण में नमी, बूंदों के रूप में परिवर्तित होकर इकट्ठा होने लगती है और बादल का निर्माण होता है. जाहिर सी बात है कि प्राकृतिक घटक हमेशा ही प्रकृति का संरक्षण करते हैं.

Uttarkashi Cloudburst Flash Floods: उत्तरकाशी में बादल फटने की घटना को महज प्राकृतिक आपदा कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. यह सही है कि मानसून के दौरान हिमालय क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएं पहले भी होती रही हैं लेकिन इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि हिमाचल और उत्तराखंड में पिछले वर्षों में बादल फटने की घटनाएं डेढ़ गुना बढ़ी हैं. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसकी पड़ताल करने के लिए यह समझना होगा कि बादल का फटना क्या होता है और वह कौन सी परिस्थिति होती है कि बादल फटते हैं?

जब गर्म हवाएं नमी को साथ लेकर ऊपर उठती हैं तो ऊपर के वातावरण में नमी, बूंदों के रूप में परिवर्तित होकर इकट्ठा होने लगती है और बादल का निर्माण होता है. जब बादल सघन हो जाते हैं तो नीचे बरस जाते हैं, लेकिन बादल जब बहुत सघन हो जाएं और किसी खास इलाके में 100 मिलीमीटर बारिश हो जाए तो उसे बादल फटना कहते हैं.

कम समय में ज्यादा बारिश होने के कारण जलजला आ जाता है. चूंकि इस तरह की घटनाएं पहाड़ी इलाकों में ज्यादा होती हैं जहां जल बहाव के लिए दर्रेनुमा जगह होती है और नदियां उसे संभाल नहीं पातीं, इसलिए तबाही ज्यादा होती है. उत्तरकाशी में अभी यही हुआ है. अब इस बात पर गौर करिए कि हिमालय में लगातार तापमान बढ़ रहा है.

आंकड़े बताते हैं कि 1951 के बाद से 4000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तामपान 0.5 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ता जा रहा है जबकि 4000 मीटर से नीचे यह दर 0.2 प्रतिशत है. यह आंकड़ा वैश्विक औस से 2 से 5 गुना ज्यादा है. जरा सोचिए कि हिमालय क्षेत्र में ये तापमान बढ़ा कौन रहा है?  जाहिर सी बात है कि प्राकृतिक घटक हमेशा ही प्रकृति का संरक्षण करते हैं.

यहां तक कि प्रकृति द्वारा रचित सारे कीट-पतंगे और जीव-जंतु प्रकृति के हिसाब से जीवन जीते हैं और एक तरह से प्रकृति का संरक्षण करते हैं मगर मनुष्य इसका अपवाद है. मनुष्य प्रकृति का संरक्षण कम और अपने सुखों और अपनी चाहत के लिए उसका दोहन ज्यादा करता है. उत्तरकाशी या हिमालय के अन्य इलाकों में धार्मिक कारणों या रोमांच का अनुभव करने के लिए लोग पहले भी जाते रहे हैं.

लेकिन उनकी संख्या कम होती थी. विज्ञान ने साधन जुटाए तो मनुष्य ने सुविधा के लिए वहां बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य शुरू कर दिए. इस बात का भी ध्यान नहीं रखा कि हिमालय सबसे युवा पहाड़ है और ज्यादातर इलाकों की संरचना भुरभुरे पहाड़ों वाली है. जहां पगडंडी हुआ करती थी, लोग पैदल या घोड़ों पर सवार होकर सफर करते थे, वहां वाहनों के लिए सड़कें बना दी गईं.

फिर सड़कें चौड़ी होने लगीं. बड़ी-बड़ी मशीनों ने पहाड़ का सीना चीरना शुरू कर दिया. सड़कें बनाने के लिए पहाड़ में नियंत्रित विस्फोट किए जाने लगे. विस्फोट भले ही नियंत्रित कहा जाए लेकिन उसका कंंपन पहाड़ को दूर तक कंपकंपा देता है. पहाड़ भीतर से कमजोर हो जाता है. पहाड़ों में जहां भी लोगों को जगह मिल रही है, बड़े-बड़े मकान बनाए जा रहे हैं.

ये मकान नदियों के किनारे ज्यादा हैं. जाहिर सी बात है कि इन निर्माण कार्यों और यात्रियों की बढ़ती भीड़ ने हिमालय के पर्यावरण को गर्म करना शुरू कर दिया है. वातावरण जितना गर्म होता जाएगा, आपदाओं को हम उतना ही ज्यादा आमंत्रित करते रहेंगे. बादल फटने की घटनाएं और बढ़ेंगी, नदियों में और सैलाब आएगा, नदियों के किनारे बने मकान धराशायी होंगे और लोगों की जान जाएगी!

इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि हम पहाड़ के पर्यावरण को समझें. मानव के लिए विकास महत्वपूर्ण है, निश्चित रूप से जीवन सुविधाजनक होना चाहिए, साधन तैयार किए जाने चाहिए लेकिन यह भी तो ध्यान रखना होगा कि यह सब आखिर किस कीमत पर? जब जिंदगी सुरक्षित ही न हो तो वह विकास किस काम का? प्रकृति से छेड़छाड़ करेंगे तो मौसम को तेवर बदलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.

हिमालय तो और भी अत्यंत संवेदनशील इलाका है. गर्मी बढ़ने के कारण बहुत सारी चोटियां अब बर्फ से ढंकी रहने के लिए तरस रही हैं क्योंकि बर्फ पिघल रही है. पिघलती हुई बर्फ पहाड़ के सीने पर झीलों का निर्माण कर रही है. भूकंप के झटके किसी दिन इन झीलों के किनारे तोड़ देंगे और नीचे ढेर सारी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी. केदारनाथ में भी तो यही हुआ था! इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हिमालय क्षेत्र में निर्माण का हर कदम फूंक-फूंक कर रखा जाए अन्यथा तबाही के ऐसे जलजलों का सामना हम करते रहेंगे.

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