राजनीतिक दलों में घटते लोकतंत्न के खतरे
By राजेश बादल | Updated: August 1, 2018 07:44 IST2018-08-01T07:44:34+5:302018-08-01T07:44:34+5:30
लोकतंत्न में केवल संसद में ही नहीं, राजनीतिक दल के अंदर भी असहमति के स्वर का सम्मान किया जाना चाहिए।

राजनीतिक दलों में घटते लोकतंत्न के खतरे
भारतीय
लोकतंत्न कालखंड के नजरिए से बहुत पुराना है। प्रमाणित संसद परंपरा तो वैशाली से मिलती है लेकिन विश्लेषणों में अधिकतर आजादी का साल ही आधार माना जाता है। इस तरह तो इसकी उम्र सत्तर साल हो चुकी है। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में सत्तर बरस बहुत मायने नहीं रखते। खासतौर पर उस स्थिति में, जब भारत ने 85 फीसदी अनपढ़ जनसंख्या के साथ सफर शुरू किया हो। गुलामी के लंबे दौर ने हिंदुस्तान को शून्य से नीचे पहुंचा दिया था। शून्य के स्तर पर आने में चालीस-पचास साल लगे। इसलिए भारत दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बहुत तेज गति से नहीं भाग रहा है तो उसके पीछे भी ऐसे ही कुछ कारण हैं। मगर इस अवधि में भी भारतीय लोकतंत्न में जो बीमारियां पनपी हैं, वे आने वाले दिनों के लिए चेतावनी भरा संदेश हैं।बहुदलीय गणतंत्न में नए राजनीतिक दलों की फसल नहीं रोकी जा सकती और न किसी नए नवेले को सियासत के मैदान में उतरने से रोका जा सकता है। इसकी खामियां अनेक हैं मगर हमारे लोकतंत्न के गुलदस्ते की यह खुशबू भी है। हमें इस विरोधाभास को मंजूूर करते हुए साथ चलने की आदत डालनी पड़ेगी।
ये बीमारियां धीरे-धीरे पनपती रहीं लेकिन अब देश की देह पर उनका गंभीर असर दिखने लगा है। संगठनों के अपने संविधान नाम मात्न के रह गए हैं। चुनाव के दरम्यान अपने अपने ढंग से निर्वाचन नियमों को ताक में रखने वाले गलियारे भी पार्टी नियंताओं ने पहले ही तैयार रखे हैं।
ये निर्वाचन नियम मध्यकाल की सामंती सोच से आज भी प्रभावित हैं। पार्टी अध्यक्ष के निर्वाचन के बाद निचले स्तर तक संगठन में निर्वाचन का स्थान मनोनयन ने ले लिया है। ऐसे में जो आलाकमान के भरोसे का होता है, वही अपने नीचे के स्तर का चुनाव करता है। नीचे वाला स्तर अपने भरोसे के नीचे वाले स्तर को चुनता जाता है। इस तरह उस एक लाइन की लंबे समय तक उपेक्षा होती रहती है जो कृपापात्नों में शामिल नहीं रहती और जीवन भर उसका इस्तेमाल भीड़ जुटाने और कार्यकर्ता लाने में निकल जाता है। आज हर पार्टी इस संकट से जूझ रही है।
लोकतंत्न में केवल संसद में ही नहीं, राजनीतिक दल के अंदर भी असहमति के स्वर का सम्मान किया जाना चाहिए। लंबे समय तक उपेक्षा और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा मुल्क में पार्टियों के विभाजन का कारण बनती रही है। दूसरा कारण, कमोबेश प्रत्येक पार्टी में द्वितीय पंक्ति के नेताओं अथवा अपने से नीचे की पंक्ति के नेताओं को पदोन्नत करने का सिलसिला कमजोर पड़ा है। आयाराम - गयाराम के चलते दल बदलू शिखर नेताओं से संपर्को के जरिए नई पार्टी के नियंताओं में शामिल हो जाते हैं और वर्षो से बाट जोह रहे कार्यकर्ता की हसरत कहीं दफन हो जाती है।
मान लीजिए अगर दलबदलू नहीं भी आएं तो प्रथम पंक्ति में विराजे नेताओं को लगता है कि उन्होंने यदि नीचे की पंक्ति के नेता को आगे बढ़ाया तो कहीं वो उसके नीचे से ही जाजम न खींच दे इसलिए असुरक्षा बोध से ग्रस्त राजनेता पार्टी अनुशासन की दुहाई देते हुए निचली पंक्ति के क्षत्नप पर भरोसे का अभिनय करता है, भरोसा नहीं करता।
एक दृष्टि भारत के दलों पर। एक सौ तैंतीस बरस पुरानी पार्टी होने के नाते और आजादी के आंदोलन की अगुआ होने के नाते कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है। व्योमेश चंद्र बनर्जी (41) से प्रारंभ हुआ उसका सफर राहुल गांधी (48) तक आ पहुंचा है। इस उम्र में तीन बार संसद के लिए निर्वाचित, पांच वर्ष पार्टी महासचिव और दस साल यूथ कांग्रेस की अगुवाई करते हुए यह अनुभव किसी राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए ठीक ठाक लगता है। इस पुरानी पार्टी ने करीब करीब सौ अध्यक्ष देखे। इनमें जिन महानुभावों ने चालीस से पैंतालीस की आयु के बीच पार्टी अध्यक्ष का पद संभाला, उनका एक लंबा सिलसिला है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस (41 ), जवाहरलाल नेहरू(40), सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (47), गोपाल कृष्ण गोखले (39), मदन मोहन मालवीय (50), मौलाना आजाद (35), सरोजिनी नायडू (46), डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद (50), इंदिरा गांधी (42), नीलम संजीव रेड्डी (47), राजीव गांधी (41) और सोनिया गांधी (51) के अतिरिक्त करीब एक दर्जन राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसे थे, जो पचास से कम थे। इसके अलावा कोई डेढ़ दर्जन राजनेता ऐसे थे जो साठ से कम आयु में राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे।
एक नजर सत्तारूढ़ भाजपा के आंकड़ों पर। उन्नीस सौ अस्सी में इस दल का गठन हुआ और पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी 55 वर्ष के थे। उनके बाद अगले शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी भी 59 में ही राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उनके बाद मुरली मनोहर जोशी, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और अमित शाह भी साठ साल से कम आयु में अध्यक्ष पद पर आए। अगर भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ को देखें तो संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी पचास साल के थे, जब उन्होंने यह पार्टी बनाई थी। कांशीराम ने भी पचास की आयु में बसपा बनाई। मायावती 47 साल में पार्टी प्रमुख बनी थीं। समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह ने 53 साल में बनाई। अखिलेश यादव 45 साल में इसके अध्यक्ष बने।
शरद पवार ने 59 साल की आयु में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। ममता बनर्जी ने 43 की आयु में तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। लालूप्रसाद यादव ने 49 साल में आरजेडी बनाई। डीएमके के एम। करु णानिधि 45 साल में पार्टी प्रमुख बने। चंद्रबाबू नायडू 45 में तेलुगू देशम के मुखिया बने थे। नवीन पटनायक ने 41 साल में बीजेडी की अध्यक्षता पिता के बाद संभाली। 55 वर्ष में एमजीआर ने एआईएडीएमके बनाई और अध्यक्षता संभाली। उनके बाद जयललिता केवल 39 साल में अध्यक्ष बनीं।
इतने सारे आंकड़ों को देने का मकसद यह है कि अधिकांश मामलों में एक प्रतिभाशाली राजनेता ने जीवन की सर्वश्रेष्ठ पारी चालीस से पचपन के बीच की आयु में खेली है, अपनी पार्टी बनाई है या फिर अध्यक्ष पद पर आकर नई उड़ान भरी है। इसका अर्थ यह भी है कि जिन्होंने नई पार्टी बनाई, उन्होंने उस उम्र तक अवसर का इंतजार किया जब वे अपना सर्वश्रेष्ठ देश और समाज को दे सकते थे। जाहिर है कि एक पार्टी सबको एक साथ अध्यक्ष पद नहीं दे सकती लेकिन उनके सपनों की उड़ान को पंख देने का काम तो राजनीतिक दल को करना ही होगा।
आज का राजनेता अनपढ़ नहीं है और अपनी सोच के आधार पर देश और समाज को आगे ले जाना चाहता है। किंतु विडंबना है कि शिखर पद पर भले ही श्रेष्ठतम आयु काल में राजनेता पहुंचे हों मगर उसके बाद स्वेच्छा से अगली पीढ़ी के लिए कुर्सी छोड़ने का काम वे नहीं कर रहे हैं। किसी एक का नाम क्या लूं, अनेक अध्यक्ष हैं, जिनके बाद वाली पीढ़ी रिटायर हो चुकी है और वे हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। क्या वे लोकतंत्न का भला कर रहे हैं? यदि वे अपने लिए कम आयु में अवसर चाहते थे तो उनके बाद वाली पीढ़ी का करियर बिगाड़ने का उन्हें कोई हक नहीं है। लोकतंत्न के गुलदस्ते में फूल रहे, अपनी खुशबू के साथ रहे लेकिन फूलों की सड़ांध इस देश को क्यों बर्दाश्त करनी चाहिए?