सुशांत झा का ब्लॉग: चीन को पश्चिमी नजरिए से देखना बंद करना होगा

By सुशांत झा | Published: October 11, 2019 02:50 PM2019-10-11T14:50:58+5:302019-10-11T15:13:55+5:30

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग शुक्रवार (11 अक्टूबर) को चेन्नई एयरपोर्ट पर उतरे। चीनी राष्ट्रपति दो दिवसीय भारत दौरे के बाद नेपाल जाएंगे। शुक्रवार शाम पाँच बजे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से शी जिनपिंग की मुलाकात होगी।

sushant jha blog on india china relation and Kashmir and Hong Kong situation | सुशांत झा का ब्लॉग: चीन को पश्चिमी नजरिए से देखना बंद करना होगा

शी जिनपिंग (बाएं) पिछले 12 सालों से चीन के सर्वोच्च नेता हैं।

सी. राजामोहन ने इंडियन एक्सप्रेस में ठीक ही लिखा है कि भारत को फिलहाल बराबरी के स्तर पर या चीन के प्रतिस्पर्धी होने के ख्वाब तो छोड़ ही देना चाहिए. चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुणी है तो रक्षाखर्च करीब चार गुणा ज्यादा है. ये बात ठीक है कि उसे हम से कहीं ज्यादा बड़ी सीमा और हितों की चौकीदारी करनी होती है और उसके लगभग सारे पड़ोसियों से असहज संबंध हैं और देश के भीतर तिब्बत, ओइगर और हांगकांग जैसे बड़े टकराव के बिंदु हैं. उस तुलना में भारत को दो ही पड़ोसियों से झगड़ा है. शक्ति संतुलन के लिए चीन पचास के दशक से ही पाकिस्तान का साथ देता आया है. लेकिन ऐसा हर बड़ा देश करता है, अमेरिका तो उसके बिल्कुल पड़ोस में परमाणु हथियारों की तैनाती करके बैठा है. भारत ने भी वियतनाम-जापान जैसे देशों से संबंध बढ़ा लिया है.

लेकिन कुल मिलकार चीन को ऐसी कोई तात्कालिक मजबूरी नहीं है कि वो भारत को खुश करे. अगर नाखुश भी कर दे, तो हम उसका फिलहाल कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे जैसा कि वो करता रहता है.

ये बहुत व्यवहारिक बातें हैं अगर हम इसे स्वीकार कर लें तो भारत- चीन संबंध को सही तरीके से देख सकते हैं.

भारत की दुखती रग कश्मीर

कश्मीर भारत की दुखती रग रहा है, तो हांगकांग चीन के लिए नासूर बनता जा रहा है-जबकि वह उसकी सीमा के अंदर है और वहां कोई धार्मिक समस्या भी नहीं है. तिब्बत की समस्या उसने बहुत हद तक काबू में कर ली है लेकिन अमेरिका, यूरोप और भारत के लिए वह चीन के बांह मरोड़ने का एक सतत बहाना है. वीगर मुसलमान उसके लिए नई समस्या है जिसे लेकर उसे डर लगा रहता है कि कहीं ये मसला इस्लामिक जगत में न केंद्रीय स्थान हासिल कर ले. उधर अपनी लाख आर्थिक-सैनिक प्रगति के बावजूद वह ताइवान पर अधिकार नहीं कर पाया है.

सबसे बड़ी बात यह कि प्रशांत महासागर और हिंद महासागर में वह कमजोर है. वहां अमेरिका और भारत का प्रभाव है.

ऐसे में वह नहीं चाहेगा कि भारत से एक सीमा से ज्यादा संबंध खराब करे और भारत पूरी तरह अमेरिका-यूरोप की गोदी में बैठ जाए. दूसरी बात, अभी के भारत से समझौता करने में उसे फायदा है क्योंकि भारतीय पक्ष उसकी तुलना में कमजोर है. भारत की आर्थिक-सैनिक ताकत ज्यों-ज्यों बढ़ेगी, भारतीय पक्ष समझौते में ज्यादा कठोर रुख अपनाएगा. जिस तरह के संकेत हैं, अगले 20-30 साल में भारत हिंद महासागर में अपनी मर्जी के बगैर किसी को स्वतंत्र आवाजाही की एक कीमत वसूलेगा. ऐसा संभव है कि वह अरब सागर में और अरब देशों की राजनीति में सीधे हस्तक्षेप की स्थिति में आ जाए.

सन् 1962 के बाद चीन-भारत सीमा पर कोई बड़ी घटना नहीं हुई. ये दोनों देशों की परिपक्वता का नतीजा है. चीन ने चार भारत-पाक युद्धों में भी पाकिस्तान को प्रत्यक्ष मदद नहीं की. पाकिस्तान की तरह चीन हमारे देश में आतंकवाद को भी बढ़ावा नहीं दे रहा.

पूरब के नेता चीन और भारत

सबसे बड़ी बात ये है कि चीन और भारत इस बात पर एकमत हैं और जवाहरलाल नेहरू के जमाने से एकमत हैं कि उन दोनों पर पूरब के नेतृत्व की जिम्मेवारी है और एक हद तक पश्चिम के वे विरोधी हैं. चीन में यह विरोध ज्यादा मुखर है.

ऐसे में चीन और भारत ने महाबलीपुरम को अपनी अनौपचारिक मिलन स्थल चुनकर ठीक ही किया है, जिससे प्राचीन और सभ्यतागत संबंधों का संकेत मिलता है. चीन और भारत को सन् 1962 से आगे बढ़ने की आवश्यकता है लेकिन भारत को भी चाहिए कि वह चीन को पश्चिमी नजरिये से देखना बंद करे. भारत में चीन के बारे में बहुत सारे विचार पश्चिम से आयातित हैं और हम जितना अमेरिका-इंग्लैंड के बारे में जानते हैं उसका दशांश भी चीन के बारे में नहीं जानते. ये बात ठीक है कि चीन एक कम्यूनिस्ट तानाशाही है जहां से बहुत सी बातें छनकर बाहर नहीं आती, लेकिन एक कारण यह भी है कि भारत में सरकार और संस्थानों के स्तर पर चीन के बारे में उदासीनता छाई रही और सन् 1962 की पराजय से उबरने में भारत को काफी वक्त लगा है.

चीनी विकास मॉडल भारत के लिए अनुकरणीय तो नहीं है क्योंकि उसमें मानवाधिकार का तत्व बहुत कम है, जबकि भारत को विकास योजना लागू करते समय एक “डेमोक्रेसी टैक्स” चुकाना पड़ता है. लेकिन चीन ने जिस तरह से शिक्षा, स्वास्थ्य, लघु उद्योगों, पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान और बुनियादी ढांचे में तरक्की की है उससे हमें सीखना चाहिए.

कुल मिलाकर भारत और चीन को अभी लंबी दूरी तय करनी है लेकिन एक-दूसरे देशों के लोगों में आपसी संबंध और मेलजोल से उस दूरी को कम किया जा सकता है. हमें याद रखना चाहिए कि हजारों साल के इतिहास में हम सिर्फ एक बार ही बड़ी लड़ाई लड़े हैं.    

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