राजेश बादल का ब्लॉग: अब उपयोगिता खोने लगे हैं सियासी गठबंधन
By राजेश बादल | Updated: January 15, 2025 15:42 IST2025-01-15T15:42:52+5:302025-01-15T15:42:52+5:30
एक जमाने में इन पार्टियों को वैचारिक आधार पर साथ काम करते देखना सुखद था. लेकिन बाद के वर्षों में सिद्धांत और विचार सियासत से गायब होते गए. गठबंधनों में शामिल छोटे-बड़े दलों की प्राथमिकताएं गड्डमड्ड होती रहीं. उससे जम्हूरियत की भावना कमजोर पड़ी और व्यक्तिगत स्वार्थ तथा नवसामंत पनपते रहे.

राजेश बादल का ब्लॉग: अब उपयोगिता खोने लगे हैं सियासी गठबंधन
भारतीय राजनीति में दलों के बीच गठबंधन अब कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं. करीब आधी सदी पहले इन गठबंधनों की शुरुआत हुई थी. राजनीतिक अस्थिरता इसके पीछे थी. उसके बाद लंबे समय तक राष्ट्रीय हित में लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने के लिए तमाम पार्टियां एक मंच पर उपस्थित रहीं और अपने तीव्र आवेग का प्रदर्शन करती रहीं. एक जमाने में इन पार्टियों को वैचारिक आधार पर साथ काम करते देखना सुखद था. लेकिन बाद के वर्षों में सिद्धांत और विचार सियासत से गायब होते गए. गठबंधनों में शामिल छोटे-बड़े दलों की प्राथमिकताएं गड्डमड्ड होती रहीं. उससे जम्हूरियत की भावना कमजोर पड़ी और व्यक्तिगत स्वार्थ तथा नवसामंत पनपते रहे.
इसका एक कारण राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे राजनेताओं की उपस्थिति थी, जो आजादी के बाद उभरे थे. उनके लिए आदर्श और सिद्धांत सर्वोपरि थे. वे राजनीति में नैतिक मूल्यों के हामी थे. खेद है कि उनके जाने के बाद ऐसे राजनेताओं का विलुप्त होना शुरू हो गया. सियासत का रंग बदल गया. देशहित हाशिए पर चला गया. राजनीति कारोबार में तब्दील होती गई. मुल्क का जहाज छोटे-छोटे अनेक उपकप्तानों के सहारे बढ़ता गया. एनडीए और यूपीए दो दशक पहले तक अपने सर्वोत्तम स्वरूप और आकार में थे. गठबंधन -राजनीति का एक तरह से वह स्वर्ण युग कहा जा सकता है.
दरअसल किसी भी धड़कते हुए लोकतंत्र में मतभेद अत्यंत स्वाभाविक हैं. वे गठबंधनों में भी समय-समय पर दिखाई देते रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले एनडीए तथा कांग्रेस के नेतृत्व में बने यूपीए के भीतर कई बार यह मतभेद सामने आए और आपसी तालमेल से सुलझाए जाते रहे. लेकिन एक स्थिति ऐसी भी बनी, जब छोटे दलों के अंदर असुरक्षा बोध पनपा. उन्हें लगा कि बड़ी पार्टी उन्हें गठबंधन में साथ लेकर चल तो रही है, मगर साथ रहने के खतरे भी हैं. उनकी इस सोच का आधार भी था.
बड़े दल जब चुनाव मैदान में सामने आते तो छोटे दलों का वोट बैंक बड़ी पार्टियों के साथ तो चला जाता पर बड़ी पार्टियों के मतदाता छोटी पार्टियों को वोट देने से छिटकते रहे. कई चुनाव परिणाम इसका गवाह हैं. इससे छोटे दल और नाटे-बौने होते गए, जबकि बड़ी पार्टियां अपनी काया का विस्तार करती रहीं. लोकतंत्र का बगीचा इस भावना से नहीं चलता. भारतीय लोकतंत्र की इस बगिया में सभी किस्म के फूलों के लिए भरपूर संभावना है. वे अपनी हर तरह की विशिष्ट वैचारिक खुशबू बिखेरते हुए खिल सकते हैं. गेंदे से लेकर गुलाब तक सब भारतीय गुलशन को महका सकते हैं.
ऐसे में कोई यह फूल दावा नहीं कर सकता कि वह बगीचे का राजा फूल है. पर, हुआ इसके उलट. पार्टियों में यह संक्रामक राजा बोध हमें नजर आया. छोटे दलों में इसी तर्ज पर अपनी सुरक्षा में अधिनायकवाद विकसित हुआ. मौजूदा राजनीति किसी भी क्षेत्रीय दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं दिखाती. वहां एक शिखर पुरुष या शिखर महिला है, जो पार्टी की गाड़ी को अपने अंदाज में खींच रहा है. इन दलों में संगठन चुनाव सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं. अरसे से इन दलों में एक ही चेहरा सुप्रीम है. क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि भारत जैसे विराट देश के नागरिक आजादी के सतहत्तर बरस बाद भी राजा-रानी युग की मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं और वे अभी भी एक सुल्तान अथवा महाराजा के अधीन रहना पसंद करते हैं?
देखा जाए तो छोटी पार्टियों का आकार और असुरक्षा बोध उनके ढांचे में लोकतंत्र की अनुपस्थिति का कारण भी है. गठबंधन का बड़ा दल उनको आंखें दिखाता है तो उन्हें अपने अस्तित्व पर हमला लगता है. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने जब बिहार में यह बयान दिया था कि अब भारतीय राजनीति में छोटे दलों का भविष्य नहीं रहा और आने वाले दिनों में वे समाप्त हो जाएंगे तो उसका संभवतया मतलब यही था. हम देखते हैं कि चुनाव दर चुनाव मंझोले दल सिकुड़ते जा रहे हैं. बेशक बंगाल या तमिलनाडु अपवाद हो सकते हैं, लेकिन आने वाले दिन तो उनके लिए भी चेतावनी भरा संदेश दे रहे हैं.
एक अनुभव यह भी है कि गठबंधन में प्रतिपक्ष तनिक ज्यादा चुनौतियों का सामना करता है. सत्ताधारी गठबंधन के सामने कम मुश्किलें पेश आती हैं. कारण यह कि सरकार के साथ रहने पर छोटे दल सुख-सुविधाओं का भरपूर लाभ लेते हैं. उनके काम होते रहते हैं और कार्यकर्ताओं का रौब बना रहता है. दूसरी ओर प्रतिपक्षी गठबंधन को अपने दलों या उनके विधायकों तथा सांसदों के शिकार का खतरा रहता है. यह बीमारी हालिया दौर में ज्यादा दिखाई दी है. जाहिर है कि प्रतिपक्ष के बिखरने का लाभ सत्ताधारी दल को मिलता है. इसलिए पक्ष यही कोशिश करता है कि प्रतिपक्ष टूटा-फूटा रहे. विपक्षी गठबंधन इंडिया के साथ कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी का गठबंधन इंडिया की बड़ी पार्टी कांग्रेस से दूर जाने का संकेत है.
महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शिखर पुरुष शरद पवार का ताजा बयान इशारा कर रहा है कि वहां भी कांग्रेस की अगुआई उन्हें रास नहीं आ रही है. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी तो कई बार गठबंधन की अगुआई कांग्रेस को नहीं देने की बात कह चुकी हैं. जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला भी कुछ यही तेवर दिखा रहे हैं. सबसे बड़ी बात आरजेडी के रुख में भी परिवर्तन का नजर आना है. इन दलों के बदलते रवैये से साफ है कि उन्हें दुर्बल कांग्रेस तो स्वीकार है, लेकिन जब कांग्रेस सौ सांसदों के साथ सदन में उपस्थित है तो उन्हें उसकी अगुआई पसंद नहीं है. यह उन दलों की लोकतांत्रिक निरक्षरता नहीं तो और क्या है? यह मांग ही बेतुकी होगी कि सौ सांसदों वाली पार्टी को छोड़कर दस-बीस सांसदों वाली किसी क्षेत्रीय पार्टी को गठबंधन का नेतृत्व सौंपा जाए.