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Lok Sabha Elections 2024: जीत की खुशियों के बीच भगवा दलों का अदृश्य नुकसान...

By Amitabh Shrivastava | Updated: June 5, 2024 11:32 IST

Lok Sabha Elections 2024: वर्ष 2019 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और अटूट शिवसेना ने क्रमश: 25 व 23 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 23 व 18 सीटें जीती थीं.

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ठळक मुद्देआपस के झगड़े से 14 सीटों का सीधा नुकसान होता दिखाई दे रहा है. भाजपा 28 सीटों पर चुनाव लड़कर आधे से कम सीटें जीतने की स्थिति में है. चुनाव में सर्वाधिक लाभ कांग्रेस को होता दिख रहा है, जिसने 17 सीटों पर चुनाव लड़कर 13 सीटें जीत लीं.

Lok Sabha Elections 2024: आम चुनाव-2024 में महाराष्ट्र में जीत की खुशी में शिवसेना ठाकरे गुट के नेता उद्धव ठाकरे चाहे जितनी बांछें खिला लें, लेकिन भगवा दलों के दिल पर हाथ रखकर सही हाल जाना जाए तो उनका अच्छा खासा नुकसान हुआ है. वहीं दूसरी ओर इस लोकसभा चुनाव में धर्मनिरपेक्ष दलों की तो लॉटरी ही खुल गई है. वर्ष 2019 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और अटूट शिवसेना ने क्रमश: 25 व 23 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 23 व 18 सीटें जीती थीं. ताजा परिणामों के संकेतों को समग्र रूप से देखा जाए तो करीब भगवा दल मात्र 27 सीटें ही जीतते दिखाई दे रहे हैं.

जिससे साफ है कि उन्हें आपस के झगड़े से 14 सीटों का सीधा नुकसान होता दिखाई दे रहा है. अब यदि ताजा चुनाव के गणित से भी देखा जाए तो भाजपा 28 सीटों पर चुनाव लड़कर आधे से कम सीटें जीतने की स्थिति में है. दूसरी ओर शिवसेना के दोनों गुटों का भी यही हाल है. इस चुनाव में सर्वाधिक लाभ कांग्रेस को होता दिख रहा है, जिसने 17 सीटों पर चुनाव लड़कर 13 सीटें जीत लीं.

वहीं दूसरी ओर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शरद पवार गुट भी कांग्रेस की तरह अत्यधिक लाभ में नजर आ रहा है, जिसने दस सीटों पर चुनाव लड़कर सात सीटें अपने नाम की हैं. दोनों ही धर्मनिरपेक्ष दलों ने 19 सीटेें अपने नाम की हैं. वर्ष 2014 और वर्ष 2019 के चुनाव में दोनों कांग्रेस क्रमश: छह और पांच सीटें ही जीत पाई थीं.

इसके साथ ही दस वर्ष के अंतराल के बाद दोनों दलों, हालांकि राकांपा को टूट का सामना करना पड़ा, को इस चुनाव ने नई संजीवनी दी है. दोनों राकांपा को एक साथ देखा जाए तो कुल 20 सीटें उनके खाते में जाती हैं. एक निर्दलीय विजेता प्रत्याशी भी कांग्रेस का असंतुष्ट ही है. इस तरह भगवा दलों के मुकाबले धर्मनिरपेक्ष दल 21 सीटों पर कब्जा करते दिखाई देते हैं, जो जीत की खुशी में उनका अदृश्य नुकसान है.

फिलहाल यह चुनाव परिणाम दो की लड़ाई में तीसरे के फायदे का सबक लेने का है. अतीत में कुछ ऐसा ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के चुनाव में उतरने के दौरान भी राज्य की जनता ने देखा था. वर्ष 1995 विधिवत् गठबंधन के रूप में लड़ने वाले भगवा दल शिवसेना और भाजपा के बीच मतभेदों की गुंजाइश हमेशा ही कम रही.

दोनों दलों के वरिष्ठ नेताओं ने आपसी संबंधों में खटास को कभी आने नहीं दिया. हर तरह के समझौते को मिलजुल कर अंजाम दिया. किंतु वर्ष 2014 के चुनाव के बाद से दोनों दलों के संबंधों में प्राकृतिक आत्मीयता कम होने लगी. एक तरफ जहां शिवसेना से राज ठाकरे का मनसे का बनना तो दूसरी ओर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में भगवा गठबंधन की स्वीकार्यता सहज नहीं रही.

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव तक स्थितियां सामान्य रहीं, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद संबंध इस कदर बिगड़ गए कि लोकसभा चुनाव के परिणामों की स्थितियां ही बदल गईं. वैचारिक दृष्टि से दोनों एक ही राह पर चलने के बावजूद अलग-अलग गठबंधनों में रहकर एक-दूसरे के मतों को बांटने पर मजबूर हैं. दोनों दलों की महत्वाकांक्षा और नेतृत्व की लालसा मतदाता को भ्रमित कर रही है.

नए समीकरणों के बीच भाजपा महाराष्ट्र के महागठबंधन के साथ है, जिसमें शिवसेना का शिंदे गुट और राकांपा का अजित पवार गुट है. इसमें अजित पवार गुट के अलावा शिंदे गुट से भाजपा की विचारधारा मिलती है और दोनों एक सुर में बात करते हैं. वहीं दूसरी ओर महाविकास आघाड़ी में शिवसेना उद्धव गुट के अलावा राकांपा शरद पवार और कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के साथ ही राजनीति करते हैं.

ऐसे में शिवसेना के उद्धव गुट को ताजा चुनाव में काफी परेशानी का सामना करना पड़ा है. भविष्य में भी उसे अपनी सोच को स्पष्ट रूप से सामने रखना होगा. मानसिकता के विपरीत चलने में हर बार परेशानी आएगी. एक समूह के तौर पर विजय स्वयं की लगेगी, लेकिन वास्तविक रूप में बांट कर देखने में नुकसान ही समझ में आएगा.

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