कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉगः जलवायु परिवर्तन से निपटने की चुनौती

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: July 3, 2020 03:36 PM2020-07-03T15:36:05+5:302020-07-03T15:36:05+5:30

वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार वह गंगा भी अधिकांश स्थानों पर कम से कम नहाने लायक हो गई थी, जो अरबों रुपए के ‘नमामि गंगे’ जैसे महत्वाकांक्षी अभियानों के बावजूद अविरल व साफ नहीं हो पा रही थी. उसकी सहायक नदियों की स्थिति भी कमोबेश सुधरी थी.

Krishna Pratap Singh's blog Coronavirus india lockdown challenge tackling climate change | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉगः जलवायु परिवर्तन से निपटने की चुनौती

प्रकृति व पर्यावरण से खिलवाड़ के खतरों से आगाह करते हुए नए सिरे से उनके संरक्षण की जरूरत रेखांकित की है.

Highlightsमनुष्य के प्रकृति विरोधी क्रियाकलापों के कारण बहुत बिगड़ चुकी थी और उसके घरों में जा बैठने के कारण हर सुबह कुछ नई दिखने लगी थी. मानवीय विवशता से जन्मी अस्थायी स्थिति थी और मानवीय गतिविधियों को हमेशा के लिए रोक कर उसे स्थायी नहीं किया जा सकता था. लॉकडाउन खत्म होते ही न सिर्फ दुनिया सब कुछ भूलकर अपनी पुरानी राह पर चल पड़ेगी बल्कि मनमानी इंसानी धमा-चौकड़ी से प्रकृति व पर्यावरण के हालात पूर्ववत चिंतनीय हो जाएंगे.

याद कीजिए, पिछले दिनों कोरोना वायरस के संक्रमण से डरा हुआ देश (कायदे से संसार) अपने इतिहास का सबसे बड़ा लॉकडाउन डोल रहा था, तो कई हलकों में कहा जा रहा था कि लॉकडाउन किसी और के लिए कितना भी तकलीफदेह क्यों न सिद्ध हो रहा हो, प्रकृति और पर्यावरण को तो वह उनकी खोई हुई प्रसन्नता ही लौटा रहा है.

बड़े शहरों की उस आबोहवा को इसकी मिसाल बताया जा रहा था, जो मनुष्य के प्रकृति विरोधी क्रियाकलापों के कारण बहुत बिगड़ चुकी थी और उसके घरों में जा बैठने के कारण हर सुबह कुछ नई दिखने लगी थी. वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार वह गंगा भी अधिकांश स्थानों पर कम से कम नहाने लायक हो गई थी, जो अरबों रुपए के ‘नमामि गंगे’ जैसे महत्वाकांक्षी अभियानों के बावजूद अविरल व साफ नहीं हो पा रही थी. उसकी सहायक नदियों की स्थिति भी कमोबेश सुधरी थी.

कोरोना वायरस का मुकाबला न कर पाने की मानवीय विवशता से जन्मी अस्थायी स्थिति थी

लॉकडाउन खुले मैदान में कोरोना वायरस का मुकाबला न कर पाने की मानवीय विवशता से जन्मी अस्थायी स्थिति थी और मानवीय गतिविधियों को हमेशा के लिए रोक कर उसे स्थायी नहीं किया जा सकता था. इसलिए तब भी अंदेशा जताया ही जा रहा था कि लॉकडाउन खत्म होते ही न सिर्फ दुनिया सब कुछ भूलकर अपनी पुरानी राह पर चल पड़ेगी बल्कि मनमानी इंसानी धमा-चौकड़ी से प्रकृति व पर्यावरण के हालात पूर्ववत चिंतनीय हो जाएंगे.

दुर्भाग्य से यह अंदेशा सच्चा सिद्ध होने लगा है. यह इस अर्थ में बहुत चिंतनीय है कि इस सदी के अंत तक देश के मौसम में होने वाले अप्रत्याशित बदलावों का चित्न उकेरने वाली पुणो स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटिओरॉलॉजी की रिपोर्ट की फिलहाल कोई चर्चा ही नहीं हो रही, जिसने प्रकृति व पर्यावरण से खिलवाड़ के खतरों से आगाह करते हुए नए सिरे से उनके संरक्षण की जरूरत रेखांकित की है.

रिपोर्ट कहती है कि सदी के अंत तक देश के औसत तापमान में 4.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी. मुख्य रूप से भारत पर केंद्रित ‘असेसमेंट ऑफ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन’ शीर्षक रिपोर्ट में इस कारण भारतीय प्रकृति व पर्यावरण में संभव अप्रत्याशित परिवर्तनों के अनुरूप खेती-किसानी और स्वास्थ्य संबंधी नीतियों के निर्धारण की जरूरत जताई गई.

कहा गया है कि इसके बगैर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटा नहीं जा सकता. सवाल है कि हम इस सबके लिए कितने तैयार हैं? उक्त रिपोर्ट को जिस तरह नक्कारखाने में तूती की आवाज बना दिया गया है, उससे तो यही लगता है कि हम तैयार कम, अनमने ज्यादा हैं.

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