भाषा का स्वराज्य और हिंदी, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग
By गिरीश्वर मिश्र | Published: September 14, 2021 03:31 PM2021-09-14T15:31:40+5:302021-09-14T15:32:38+5:30
इंडियन ओपिनियन में 1909 में लिखते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यह विचार प्रकट किया था कि ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिंदी ही होगी’.
कहते हैं कि जब अंग्रेज भारत में पहुंचे थे तो यहां के समाज में शिक्षा और साक्षरता की स्थिति देख दंग रह गए थे. इंग्लैंड की तुलना में यहां के विद्यालयों और शिक्षा की व्यवस्था अच्छी थी.
यह बात कहीं और से नहीं, उन्हीं के द्वारा किए सर्वेक्षणों से प्रकट होती है. जब वे शासक बने तो यह उन्हें गंवारा न हुआ और आधिपत्य के लिए उन्होंने भारत की शिक्षा और ज्ञान को अप्रासंगिक और व्यर्थ बनाने का भयानक षड्यंत्न रचा. वे अपने प्रयास में कामयाब रहे. उन्होंने संस्कृति और ज्ञान के देशज प्रवेश द्वार पर कुंडी लगा दी और एक नई पगडंडी पर चलने को बाध्य कर दिया जिसके तहत हम ‘ए फार एपल एपल माने सेव’ याद करते हुए नए ज्ञान को पाने के लिए तत्पर हो गए.
जब अंग्रेज देश छोड़कर गए तो उनके मानक के अनुसार भारत शिक्षा और निरक्षरता के अंधकार में ऐसा डूबा कि आज तक उबर ही नहीं सका. यह अलग बात है कि भारत के पास ज्ञान की अकूत विरासत निरंतर मौजूद थी और आज भी है और अब हम उसके प्रति संशय, अविश्वास के नजरिये से ग्रस्त हो चुके हैं.
अंग्रेजों ने शिक्षा की कैसी र्दुव्यवस्था स्थापित कर दी कि भाषा, शिक्षा, संस्कृति आदि का सवाल स्वतंत्न भारत के बौद्धिक विमर्श में मधुमक्खी का छत्ता जैसा बन गया और धीरे-धीरे उसे न छेड़ने में ही भलाई समझी गई और उसके प्रति उपेक्षा और तटस्थता का रुख अपनाने में ही राजनीतिक कल्याण देखा गया.
शिक्षा की राह और मंजिल दोनों ही इस तरह बदल दी गई कि ज्ञान का देसी राज-मार्ग और ज्ञान-कोष दोनों ही व्यर्थ लगने लगे. आंख मूंद कर हमने पराई मंजिल और राह को अंगीकार कर लिया और इनमें परिवर्तन की बात ठंडे बस्ते में डाल दी गई. देश के विकास की पंचवर्षीय योजनाओं में इनसे जुड़े सवाल हाशिए पर ही बने रहे.
सरकारें आती-जाती रहीं पर इनके समाधान के लिए किसी तरह की उत्सुकता या पहल से बचते-बचाते हम यह सोचकर समय काटते रहे कि यह उतना जरूरी नहीं है जितना कल-कारखाना लगाना. भाषा और शिक्षा जैसे सवालों की अहमियत नजरंदाज होती रही और उसके लिए निवेश करने में कोताही बरती जाती रही.
सब कुछ यंत्नवत चलता रहा. इस बीच विदेश की पश्चिमी आधुनिक तथा विकसित दुनिया की नकल पर आधे-अधूरे मन से कुछ-कुछ होता रहा. बौद्धिक वर्ग में यदाकदा छटपटाहट और बेचैनी दिखी पर कभी गहरे आत्मनिरीक्षण या आत्मान्वेषण की हिम्मत नहीं पड़ी. अपनी भाषा में सोचने-समझने को फैशन के विरुद्ध मानते हुए शिक्षा एक नकली कृत्य या ‘रिचुअल’ बन गई.
हम एक अंधी सुरंग में घुस गए जिसमें से निकलने की अब राह नहीं सूझ रही है. अंग्रेजों ने उपनिवेश के लिए जो रास्ता अख्तियार किया था और देश के आत्मबोध के लिए जो चुनौती खड़ी की थी, वह न केवल आज भी बनी हुई है बल्कि कुछ ज्यादा जटिल हो चुकी है क्योंकि हममें से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो उसे चुनौती भी नहीं मान रहे हैं.
गौरतलब है कि अंग्रेजों ने शिक्षा-दीक्षा और भारत की संस्कृति का जो खाका हमारे लिए बनाया था वही मानक बन गया और उसी लीक पर हम चल पड़े, यह मान कर कि यही एकमात्न विकल्प है. उन्होंने भारत को ‘इंडिया’ बना दिया और हम उसे गढ़ने लगे. भारत, भारतीयता और भारत-भाव पराया, गौण और निर्थक बनता गया.
सांस्कृतिक विस्मरण की प्रक्रिया आधुनिक होने, विकसित होने की वैश्विक दौड़ की अनिवार्यता बन गई. चूंकि विचार और कर्म भाषा से अनुविद्ध होते हैं, हमारे अस्तित्व की बनावट और बुनावट में भाषा और शिक्षा के संस्कार की अनिवार्य भूमिका होती है. देखने-समझने अर्थात अपने होने का अर्थ इसी के जरिये बनता-बिगड़ता है.
अंग्रेजी भाषा ज्ञान के क्षेत्न में जिस तरह पैठी उसने ज्ञान के साथ अज्ञान को भी बढ़ाया. हम अपने यथार्थ को न केवल उधार की कोटियों में रख कर देखने लगे बल्कि वह भी देखने लगे, जो था भी नहीं. सोचने-विचारने की प्रक्रिया कुछ इस तरह अस्त-व्यस्त और विश्रृंखलित हुई कि ज्ञान की गुणवत्ता प्रश्नांकित होती गई. संवाद, संपर्क और ज्ञान की भाषा के रूप हिंदी की भारत में व्यापक उपस्थिति है.
उल्लेखनीय है कि इंडियन ओपिनियन में 1909 में लिखते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यह विचार प्रकट किया था कि ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिंदी ही होगी’. आगे चलकर स्वतंत्नता के लिए छिड़े राष्ट्रीय आंदोलन के लिए हिंदी देश की संपर्क भाषा बन गई. सरकारी तौर पर 14 सितंबर 1949 को हिंदी संवैधानिक तौर पर राजभाषा घोषित हुई और उसे अंग्रेजी से टक्कर लेने के लिए कहा गया.
अंग्रेजों का राज्य खत्म होने पर भी अंग्रेजी संस्कार बने रहे और अंग्रेजी का आतंक चारों ओर फैल रहा है. यदि बापू ने राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र को गूंगा कहा था तो यही आशय था हिंदी में संवाद सहज है. हिंदी का विकास अंतर भाषा के रूप में हुआ था और अनेक अहिंदी भाषियों ने हिंदी की शक्ति को पहचाना था.
अंग्रेजी का मोह और हिंदी से असंतोष वैश्विकता के व्यामोह के चलते है जिसकी सीमाएं आए दिन प्रकट हो रही हैं. नई शिक्षा नीति के अंतर्गत इस समस्या की पहचान की गई है और भारतीय भाषाओं को ज्ञानार्जन का माध्यम बनाने का संकल्प लिया गया है और भारतीय ज्ञान परंपरा को भी स्थान दिया गया है. आवश्यकता है कि हम औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलें और भारत को भारत की दृष्टि से समझे.