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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: आवश्यकता है लोकतांत्रिक संस्कृति की

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: February 1, 2020 08:45 IST

एक तकनीकी दस्तावेज के रूप में संविधान से परिचय और समझदारी सरल नहीं है. इससे आम आदमी इससे दूरी बनाए रखता है. दूसरी ओर राजनीति के चतुर सुजान जाने-अनजाने इसके प्रावधानों की मनचाही व्याख्या भी करते रहते हैं.

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विश्व के विशालतम प्रजातांत्रिक देश की महत्वाकांक्षाओं  को आकार देने के लिए संविधान बना और उसकी सहायता से सामाजिक विषमताओं और असमानताओं को दूर करने और नागरिक जीवन के विधिसम्मत संचालन की व्यवस्था स्थापित करने की भरसक कोशिश की गई.

उल्लेखनीय है कि देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता और बहुलता उस समय भी मौजूद थी जब संविधान बन रहा था. परंतु उस दौरान सब के बीच देश की एकता के असंदिग्ध सूत्र भी तीव्रता के साथ मुखर रूप में उपस्थित थे, उनके प्रति अकाट्य प्रतिबद्धता थी और उनका सबके द्वारा आदर भी किया जाता था. महात्मा गांधी के प्रभाव में राजनैतिक दलों की महत्वाकांक्षाएं देश की व्यापक संकल्पना से सकारात्मक रूप से जुड़ी हुई थीं और उनके न केवल वैचारिक आधार थे बल्कि वे आधार भी अपेक्षाकृत कदाचित अधिक स्पष्ट थे.

संविधान सभा में उदार और खुले मन से वाद-विवाद के कई-कई दौरों के बीच सदस्यों ने संविधान को अंतिम रूप दिया और स्वीकार करते हुए लागू किया. सामाजिक मूल्यों के पक्षधर जन प्रतिनिधियों ने संसदीय शासन के संचालन के लिए प्रकट संकल्पों के रूप में संविधान के अंतर्गत जनता और सरकार दोनों के लिए विधि-निषेधों की एक सुदृढ़ और लचीली  श्रृंखला निर्मित की जिसमें समाज के व्यापक हित के लिए उपाय सुनिश्चित किए गए. एक तकनीकी दस्तावेज के रूप में संविधान से परिचय और समझदारी सरल नहीं है. इससे आम आदमी इससे दूरी बनाए रखता है. दूसरी ओर राजनीति के चतुर सुजान जाने-अनजाने इसके प्रावधानों की मनचाही व्याख्या भी करते रहते हैं.

स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के दबावों के बीच राजनीति को अपना रास्ता ढूंढना और बनाना पड़ रहा  है. इसका परिणाम कभी-कभी अराजक सी स्थिति को जन्म देता है. सहमति और असहमति के स्वरों के बीच कई बार सुविधाजनक पर विचारहीन समझौते की परिस्थितियां पैदा होती हैं. इससे उपजने वाली राजनैतिक अस्थिरता के फलस्वरूप देश के विकास की कोशिश कमजोर पड़ जाती है. ऐसे में राजनैतिक दलों को अपनी सीमित सोच से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय हित के लिए काम करने की जरूरत है. इक्कीसवीं सदी में जो परिस्थितियां बन रही हैं उनको ध्यान में रख प्रजातांत्रिक संस्कृति को विकसित करना आवश्यक है जिसमें नैतिकता और आपसी  संवाद  को अधिकाधिक जगह देनी होगी.

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