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दीपावली के बाद एक हारे हुए नेता का घर, पीयूष पांडे का ब्लॉग

By पीयूष पाण्डेय | Updated: November 21, 2020 12:31 IST

चुनाव हारते ही नेता के घर सन्नाटा पसर जाता है. विडंबना ये कि चुनाव का हारना ऐन दिवाली के बीच हो तो आसमान में फूटते बम को देखकर ऐसा लगता है कि वो घर के भीतर फट रहे हैं. ऐसे ही एक हारे हुए नेताजी के घर मैं दिवाली के दिन शुभकामनाएं देने जा पहुंचा.

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ठळक मुद्देदीपावली के बाद हर दीये का तेल खत्म हो चुका होता है, उसी तरह चुनाव हारते ही नेता का बाहुबल खत्म हो जाता है.बाकी दिन बरामदे में घुसते ही एक साथ चारों तरफ से चार-छह लोग उसे लतियाने के लिए आगे बढ़ते थे.कुत्ता खुद से सवाल करता था कि जब वो शांतिवार्ता का पक्षधर है तो ये इंसानगण बिना वार्ता के हिंसा पर क्यों उतर रहे हैं?

दीपावली में फुस्स हुए बम और चुनाव में फुस्स हुए बम उर्फ हारे हुए नेता के बीच एक बड़ी समानता होती है. वो ये कि दोनों अपनी-अपनी फील्ड के सबसे अहम ‘महापर्व’ में अपनी इज्जत गंवा चुके होते हैं. जिस तरह दीपावली के बाद हर दीये का तेल खत्म हो चुका होता है, उसी तरह चुनाव हारते ही नेता का बाहुबल खत्म हो जाता है.

चुनाव हारते ही नेता के घर सन्नाटा पसर जाता है. विडंबना ये कि चुनाव का हारना ऐन दिवाली के बीच हो तो आसमान में फूटते बम को देखकर ऐसा लगता है कि वो घर के भीतर फट रहे हैं. ऐसे ही एक हारे हुए नेताजी के घर मैं दिवाली के दिन शुभकामनाएं देने जा पहुंचा. वहां एक कुत्ता तेजी से पूंछ हिलाते हुए कन्फ्यूजन की मुद्रा में टहल रहा था, क्योंकि बाकी दिन बरामदे में घुसते ही एक साथ चारों तरफ से चार-छह लोग उसे लतियाने के लिए आगे बढ़ते थे.

उस वक्त कुत्ता खुद से सवाल करता था कि जब वो शांतिवार्ता का पक्षधर है तो ये इंसानगण बिना वार्ता के हिंसा पर क्यों उतर रहे हैं? और अगर बिना बात के ये इंसान टांग उठा रहे हैं तो आखिर  कुत्ता है कौन? कुत्ते का कन्फ्यूजन वाजिब था क्योंकि सन्नाटा था ही ऐसा. मेरे लिए भी ये सन्नाटा अजीब था. हवेलीनुमा इस घर में पहली बार कोई कार्यकर्ता नहीं दिख रहा था. दो-चार नौकर टहल रहे थे, लेकिन उनकी आंखों में वो सवाल था, जो कोरोना काल में बड़ी कंपनियों के कर्मचारियों की आंखों में है. मतलब नौकरी बचेगी या जाएगी और क्या अब इंक्रीमेंट हो सकता है?

बरामदे से भीतर पहुंचते ही वो ऐतिहासिक ड्राइंग रूम था, जहां न जाने कितने घोटालों का कमीशन लिया गया. लेकिन यहां भी ऐसा सन्नाटा, जैसा एक्जिट पोल जीतने किंतु असल परिणाम आने पर हारने वाले राजनीतिक दल के दफ्तर में होता है. इसी ड्राइंगरूम में जब नेताजी का बड़ा बेटा पहला मर्डर करने के बाद वापस लौटा था, तब उन्होंने उसकी पीठ ठोंकते कहा था- शाबाश! अब तुम अपने पैरों पर खड़े होने लायक हो गए. तुम्हारे टिकट के लिए आलाकमान से बात करेंगे.

इस घुप्प सन्नाटे के बीच नेताजी छत पर खड़े दिखाई दिए. वो शून्य में कुछ ताक रहे थे. शायद, संभावित कमीशन को शून्य होता या बेटे का टिकट शून्य होता देख रहे थे. ऐन दिवाली के बीच हार ने नेताजी को भीतर तक हिला दिया. न कार्यकर्ता मिठाई लेकर आए, न आलाकमान का फोन आया, न ठेकेदार महंगे गिफ्ट लाया. हद ये कि शहर में रहने वाला छोटा बेटा भी काम का बहाना बनाकर नहीं आया. मैं नेताजी से कुछ कह पाता, इससे पहले ही वो बोल पड़े- ‘चुनाव आयोग को होली, दिवाली जैसे त्यौहारों के बीच चुनाव परिणामों पर पाबंदी लगानी चाहिए.’

टॅग्स :दिवालीबिहारचुनाव आयोग
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