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ब्लॉग : सत्ता के लिए किनारे होती राजनीतिक दलों की विचारधारा

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: February 26, 2024 11:26 IST

भारतीय राजनीति में दलों के लगातार बनते-बिगड़ते गठबंधनों से यह साबित हो चला है कि अब विचारधारा व राजनीति की बात आई-गई हो चुकी है। लोकसभा चुनाव हो या क्षेत्रीय स्तर पर सत्ता पाने की लालसा, अब विचारों की कोई अधिक कीमत जान नहीं पड़ रही है।

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भारतीय राजनीति में दलों के लगातार बनते-बिगड़ते गठबंधनों से यह साबित हो चला है कि अब विचारधारा व राजनीति की बात आई-गई हो चुकी है। लोकसभा चुनाव हो या क्षेत्रीय स्तर पर सत्ता पाने की लालसा, अब विचारों की कोई अधिक कीमत जान नहीं पड़ रही है। ताजा उदाहरण में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी का जन्म लंबे आंदोलन से कांग्रेस का विरोध करने के लिए हुआ। मगर वह चार राज्यों में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने का फैसला कर चुकी है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में ना-ना करते हुए समाजवादी पार्टी से भी कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने के लिए तालमेल हो चुका है. पश्चिम बंगाल में भी तृणमूल कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन के प्रयास जारी हैं।

यही स्थिति भारतीय जनता पार्टी की है, जो बिहार में आलोचना करने और सुनने के बाद भी जनता दल यूनाइटेड के साथ दोबारा सरकार चला रही है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में फूट पड़ने के बाद उसे भी साथ ले लिया है। इसके अलावा चुनाव को सामने देख कांग्रेस और अन्य दलों के नेताओं का आना-जाना तो सामान्य प्रक्रिया है। ताजा माहौल में राजनीति के बनते-बिगड़ते नए समीकरण साफ कर रहे हैं कि हर दल का लक्ष्य चुनाव है, न कि विचारों की राजनीति से समाज में अपना स्थान बनाना है। अतीत में देखें तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकतांत्रिक समाजवाद के आधार पर एक नए भारत का सपना देखा. इसी प्रकार विख्यात समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने एक आंदोलन के रूप में समता और समानता की सोच रखी।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के समक्ष जाति प्रथा को समाप्त कर तथा धर्मनिरपेक्षता के आधार पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया. किंतु अब ये सब बातें उन्हीं दलों के लिए गौण हो चुकी हैं, जिनके नेताओं ने कभी अपनी सोच को पार्टी की विचारधारा का आधार बनाया था। आज तो कांग्रेस की ओर से जातिगत जनगणना की मांग उठाई जा रही है, जो कहीं न कहीं जाति के नाम पर मतविभाजन का आधार है। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी को भाजपा की ‘बी’ टीम बताने वाले उससे तालमेल कर रहे हैं। यह साबित करता है कि चाहे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी हो या फिर समाजवादी आंदोलन से तैयार हुई समाजवादी पार्टी हो, सभी के लिए विचारधारा एक दिखावा है, जिसके नाम पर चलने की बात कहना तो सिर्फ एक बहाना है। असलियत तो वोट की राजनीति है, जिसमें अंतिम लक्ष्य सत्ता को पाना है. लिहाजा जैसे भी और जहां से भी रास्ता सत्ता की ओर जाता हो, उस पर चलने में कोई बुराई नहीं है। अलबत्ता समय की जरूरत है। जिसको लेकर इन दिनों भारतीय राजनीति में कोई दल अपवाद नहीं है। आरोप-प्रत्यारोप केवल दिखावा हैं. सच वही है जो सामने है।

टॅग्स :लोकसभा चुनाव 2024BJPकांग्रेससमाजवादी पार्टीआम आदमी पार्टीAam Aadmi Party (AAP)
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