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Assembly elections: भाजपा ने साबित किया डर के आगे जीत है?, छप्पर फाड़ सफलता के साथ नया इतिहास

By Amitabh Shrivastava | Updated: November 30, 2024 05:14 IST

Assembly elections: लोकसभा चुनाव के विपरीत आरंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) की आवश्यकता को माना.

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ठळक मुद्देकेवल विकास के नारे से विजय तक नहीं पहुंच पाने की बात मानी. छप्पर फाड़ सफलता के साथ एक नया इतिहास रच दिया. य परिणामों की दृष्टि से राज्य में पहली बार किसी गठबंधन को इतना बड़ा बहुमत दर्ज हुआ.

Assembly elections: लोकसभा चुनाव में ‘अबकी बार चार सौ पार’ के नारे से झटका खा चुकी भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) ने विधानसभा चुनाव में साबित कर दिया है कि वह आम चुनाव में अति आत्मविश्वास की शिकार थी. उसने महाराष्ट्र में 45 सीटों को जीतने का सपना इतनी आसानी से देखा कि उसे जमीनी स्तर पर जीत का सहजता से ही बोध होने लगा था. किंतु ताजा राज्य के चुनाव में किसी भी प्रकार की गलती न करते हुए उसने लगभग नब्बे प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज की है. इस बार उसने लोकसभा चुनाव के विपरीत आरंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) की आवश्यकता को माना.

उसने केवल विकास के नारे से विजय तक नहीं पहुंच पाने की बात मानी. हिंदुत्व के नारे को अपनी असलियत और जरूरत मान कर अपने मतदाताओं को जगाने की कोशिश की, जिसने छप्पर फाड़ सफलता के साथ एक नया इतिहास रच दिया. यहां तक कि राज्य के सत्ताधारी महागठबंधन के घटक दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अजित पवार गुट तथा शिवसेना शिंदे गुट को भी इतना सहारा दिया कि वे भी उम्मीद से कहीं आगे निकल आए. इसके साथ ही पिछले चुनाव परिणामों की दृष्टि से राज्य में पहली बार किसी गठबंधन को इतना बड़ा बहुमत दर्ज हुआ.

आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 28 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे नौ सीटों पर सफलता मिली थी. कुछ सीटों पर उसकी कांटे की टक्कर हुई थी. मतों के हिसाब से उसे कुल 26.18 प्रतिशत मिले थे. यह आंकड़ा वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिले 27.83 प्रतिशत मतों से बहुत कम नहीं था.

सिर्फ सीटों के लिहाज से 23 का आंकड़ा सीधे नौ पर जा पहुंचा था. वहीं शिवसेना का शिंदे गुट भी 12.96 प्रतिशत मत लेने में सफल रहा था, जिनसे उसे सात लोकसभा सीटें मिली थीं. साथ ही यह संख्या शिवसेना के ठाकरे गुट से बहुत कम नहीं थी. यहां तक कि शिवसेना के ठाकरे गुट के 16.72 प्रतिशत मत शिंदे गुट से बहुत ज्यादा नहीं थे.

हालांकि गठबंधन के लिहाज से सबसे अधिक नुकसान में राकांपा अजित गुट ही रहा था, जिसे एक सीट और 3.6 प्रतिशत मत ही मिले थे. इस स्थिति पर विचार के बाद महागठबंधन ने अपनी गलतियों के कारण ढूंढ़ने आरंभ किए. सुधार की श्रृंखला में सबसे पहले ‘लाड़ली बहन’ योजना आरंभ हुई. फिर ‘लाड़ला भाऊ’ से लेकर किसानों को हर तरह की राहत दी गई.

इसके बाद अलग-अलग समाजों को जोड़ने के लिए बड़ी संख्या में महामंडलों का गठन कर डाला. चुनाव और आचार संहिता की मर्यादा को देखते हुए ‘लाड़ली बहन’ योजना की अग्रिम राशि महिलाओं के खाते तक पहुंचा दी, जो दीपावली त्यौहार पर आकर्षण का केंद्र बनी. जब सबकुछ देना हो गया तो शुरू हुआ प्रचार, जो दो भाग में हुआ.

जिसका पहला भाग था चुनाव की घोषणा के पहले और दूसरा भाग था चुनाव की घोषणा के बाद, जिसमें रणनीति की आक्रामकता का अंतर साफ दिखा. साधु-संत से लेकर आरएसएस तक सभी अपने मोर्चों पर डटे दिखे. भाजपा को यह मालूम था कि आम चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में रक्षात्मक खेलने से बड़ा नुकसान हो सकता है.

इसलिए उसने सबसे पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का विदर्भ क्षेत्र के लिए सहारा लिया, जो अपना नारा अपने प्रदेश से बुलंद कर चुके थे. फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उसी क्षेत्र से प्रचार आरंभ करने के लिए पहुंचे. दोनों के नारों में कहीं न कहीं हिंदू समाज के एकजुट होने की ध्वनि थी. योगी आदित्यनाथ का नारा सभाओं में चला, तो प्रधानमंत्री मोदी का नारा विज्ञापनों का सहारा बना.

उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस तो दोनों के नारे ले उड़े और उन्होंने अपनी हर सभा में दोनों नारों का प्रयोग किया. उन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण का प्रत्यक्ष विरोध किया. उन्होंने एक तरफ हिंदुत्व तो दूसरी तरफ विकास का तीखा बखान किया. स्पष्ट था कि उनके तीखेपन को प्रतिक्रिया मिलेगी और चुनाव की दिशा बदलेगी, जिसकी चपेट में सबसे पहले ओवैसी बंधु आए,

जो नारों का जवाब देने की बजाय उन पर सवाल-जवाब करते आए. उन्होंने रक्षात्मक रणनीति अपनाई, जिससे भाजपा को अधिक आक्रामक होने का अवसर मिला. उधर, कांग्रेस ने अपनी शुरुआत बीते लोकसभा चुनाव की परिपाटी के आधार पर की और संविधान, किसान, बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दों को उठाने की कोशिश की, जिसे लोकसभा चुनाव के दौरान काफी सुना जा चुका था,

लेकिन वे भाजपा को पूरी तरह सत्ता से बाहर करने में विफल रहे थे. इस बार चुनाव क्षेत्र का स्तर अलग होने से मतदाताओं के समक्ष अपील भी अलग अपेक्षित थी. मगर पुरानी फिल्म ही चली. हालांकि कांग्रेस ने माहौल को देखकर स्पष्ट किया था कि वह आक्रामक नहीं होगी और अपने स्तर को बनाए रखेगी. इस बात को भाजपा ने कांग्रेस की कमजोरी बनाया और आक्रमण कम या कमजोर नहीं होने दिया.

भाजपा ने पहले अपनी योजनाओं में महिला-पुरुष को अलग-अलग किया, फिर धर्म और अंत में जाति के नाम पर सीधी-सीधी रेखाएं खींचीं, जिनसे निचले स्तर के मतदाता को स्पष्ट संदेश गया और उनमें छिपा डर लोगों के मन में कहीं न कहीं जगह बनाने में सफल हुआ. भाजपा को मालूम था कि बस इसी के आगे उसकी जीत है, जिसे धमाकेदार अंदाज में दर्ज कर दिखाया गया.

चुनाव में अधिक दल होने और बगावत होने के कारण नतीजे कम अंतर से आने की संभावना थी, इसलिए अधिक मतदान का प्रयास किया गया. यही आधार मामूली अंतर के फैसलों में काम आया और लोकसभा चुनाव में 26.18 प्रतिशत मत पाने वाली भाजपा पांच महीने बाद 149 सीटों पर 26.77 प्रतिशत मत पाकर 132 सीटें जीतने में सफल हो गई.

आम तौर पर एक लोकसभा सीट का गठन छह विधानसभा सीटों को मिलाकर होता है. विधानसभा चुनाव के नतीजों के एक मोटे आधार पर कहा जा सकता है कि भाजपा को करीब 22 लोकसभा सीटों के बराबर बहुमत मिला, जो वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव की सफलता के लगभग बराबर है.

बस उसने इन परिणामों से मतों के लिए थोड़ा उन्मादी बनना सीख लिया है. आक्रामक हिंदुत्व की कड़वी गोली को विकास की मीठी परत के साथ खिलाने से अपनी समस्या का हल जान लिया है. संभव है कि अब यह अंदाज भाजपा की चुनावी शैली का भाग बने, क्योंकि यह बात पक्की हो चुकी है कि डर के आगे जीत है.

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