अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: कितने संतुलित हैं हमारे लोकतंत्र के तीनों स्तंभ?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 2, 2020 12:31 PM2020-12-02T12:31:35+5:302020-12-02T13:33:53+5:30

लोकतंत्र के तीन स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर गहन मंथन हाल में हुआ. इस विशेष सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के भाषण से हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसे संबोधित किया।

Arvind Kumar Singh blog: How balanced are Legislature, Executive and Judiciary three pillars of our democracy | अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: कितने संतुलित हैं हमारे लोकतंत्र के तीनों स्तंभ?

भारत के पीठासीन अधिकारियों का 80वें सम्मेलन गुजरात में हुआ (फाइल फोटो)

Highlightsगुजरात के केवड़िया में 25 और 26 नवंबर को हुआ पीठासीन अधिकारियों का 80वां सम्मेलनराष्ट्रपति रामनाथ कोविंद सहित उपराष्ट्रपति और पीएम नरेंद्र मोदी के संबोधन से बना इस बार सम्मेलन खास

गुजरात के केवड़िया में विश्वविख्यात सरदार पटेल की प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी की छत्रछाया में हुए भारत के पीठासीन अधिकारियों के 80वें सम्मेलन में तीनों स्तंभों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर गहन मंथन हुआ. चौथा स्तंभ यानी मीडिया चर्चा से बाहर रहा क्योंकि तकनीकी तौर पर वह इसकी परिधि में आता नहीं है. 

अपने शताब्दी वर्ष में बेहद अलग अंदाज में 25 और 26 नवंबर को हुए पीठासीन अधिकारियों के इस सम्मेलन में पहली बार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से लेकर तमाम दिग्गजों की मौजूदगी रही और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वर्चुअल तरीके से इसके समापन सत्र को संबोधित किया. विशेष अंदाज में सम्मेलन आयोजित करने की परिकल्पना दिसंबर 2019 के दौरान देहरादून में हुए 79वें सम्मेलन में की गई थी.

भारत में लोकतंत्र और इसका महत्व

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. सदनों को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है. इसकी गरिमा बनाए रखने से लेकर पीठासीन अधिकारियों के जिम्मे तमाम अहम भूमिकाएं होती हैं. वे सदस्यों के अधिकारों के संरक्षक और अभिभावक होते हैं. इनका सबसे बड़ा संगठन विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन है जिसके पदेन अध्यक्ष लोकसभा अध्यक्ष होते हैं. 

भारत में संसदीय लोकतंत्र में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों का बहुत महत्व है. उनमें स्वस्थ परंपराओं और परिपाटियों के विकास के लिए पीठासीन अधिकारियों का पहला सम्मेलन 14 सितंबर 1921 को शिमला में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के तत्कालीन अध्यक्ष सर फ्रेडरिक वाइट के नेतृत्व में हुआ. 

1926 से यह अंग्रेजों द्वारा मनोनीत अध्यक्षों की जगह निर्वाचित अध्यक्षों का सम्मेलन बन गया क्योंकि विट्ठल भाई पटेल 1925 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के पहले भारतीय निर्वाचित अध्यक्ष बन गए थे. इसकी अध्यक्षता उनके हाथों में आ गई. लेकिन 1921 से 1950 के दौरान यह सम्मेलन दिल्ली या शिमला में ही होता था. 

1951 में जी.वी. मावलंकर की पहल पर इसे अन्य राज्यों में करने का फैसला हुआ और इस कड़ी में 30 जुलाई से 1 अगस्त 1951 के दौरान त्रिवेंद्रम में पहला सम्मेलन हुआ जो इसका 17वां सम्मेलन था.

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने किया सम्मेलान का उद्घाटन

केवड़िया में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए संवाद को लोकतंत्र के लिए सर्वश्रेष्ठ माध्यम बताया और कहा कि यही विचार-विमर्श को विवाद में परिणत नहीं होने देता. लेकिन उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू ने अपने भाषण में इस बात को कह कर चर्चा में नया मोड़ दे दिया कि पटाखों पर अदालत के फैसले और जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका को भूमिका देने से इनकार करने जैसे फैसलों से लगता है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा है. 

कई न्यायिक फैसले किए गए जिसमें हस्तक्षेप का मामला लगता है. आजादी के बाद बेशक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टो ने ऐसे कई फैसले दिए जिनका सामाजिक-आर्थिक मामलों में दूरगामी असर हुआ. लेकिन कई बार विधायिका ने भी लक्ष्मण रेखा लांघी है.

वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन में कहा कि कोरोना संकट जैसे विषम हालात में 130 करोड़ से अधिक भारतीयों ने जिस परिपक्वता का परिचय दिया, उसकी एक बड़ी वजह उनके द्वारा संविधान के तीनों अंगों पर पूर्ण विश्वास है.

लोकतंत्र के सभी स्तंभ अपने दायरे में सर्वोच्च

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही अपने दायरे में सर्वोच्च हैं. संविधान लागू होने के आरंभिक वर्षो में ए.के. गोपालन मामले में दिए गए फैसले में न्यायमूर्ति राघव राव ने कहा था कि तीनों अंगों में से हरेक की शक्तियों का प्रयोग मूलभूत रूप से किया जाना चाहिए जो अलग-अलग उस अंग से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों और अन्य अंगों से संबंधित उपबंधों के अध्यायधीन हों. 

तिरुवनंतपुरम में 2007 में इसी विषय पर पीठासीन अधिकारियों के व्यापक मंथन के बाद सर्वसम्मत संकल्प लिया गया था कि संविधान में ऐसा कोई महाअंग या सुपर आर्गन नहीं है, जिसे दूसरे के क्षेत्नाधिकार में हस्तक्षेप का अधिकार हो. 

राज्य के सभी अंगों से अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान द्वारा निर्धारित कार्यक्षेत्र में रहते हुए सौंपे गए दायित्वों का निर्वहन करें जिससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सद्भावनापूर्ण तरीके से सुनिश्चित किया जा सके.

Web Title: Arvind Kumar Singh blog: How balanced are Legislature, Executive and Judiciary three pillars of our democracy

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