अभिनव कुमार का ब्लॉग: दिल्ली के दंगों से सबक ले सकती है पुलिस

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: March 8, 2020 06:03 IST2020-03-08T06:03:29+5:302020-03-08T06:03:29+5:30

गहन जांच में उन पुलिस अधिकारियों की भी पहचान होनी चाहिए, जिन्होंने विशिष्ट चूक की, जिसके कारण दंगा हुआ और उनके खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई की जानी चाहिए. इस तरह की हिंसा के लिए माहौल पहले से ही तैयार हो रहा था. चेतावनी के बहुत सारे संकेत मिले होंगे जिन पर ध्यान नहीं दिया गया.

Abhinav Kumar blog: Police can learn lessons from Delhi riots | अभिनव कुमार का ब्लॉग: दिल्ली के दंगों से सबक ले सकती है पुलिस

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

सर्दियों का मौसम वास्तव में ही दिल्ली पुलिस के लिए बहुत कठोर रहा- नवंबर में शुरुआत वकीलों के साथ मुठभेड़ से हुई, इसके बाद दिसंबर में जामिया में छात्रों से भिड़ंत हुई जिसका शाहीन बाग प्रदर्शन में बड़ा योगदान है. जनवरी में जेएनयू कैंपस में होने वाली हिंसा में पुलिस पर निष्क्रियता का आरोप लगा और फरवरी में तो सांप्रदायिक हिंसा के साथ मामला पराकाष्ठा पर पहुंच गया जिसमें कम से कम 47 लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए. लोगों का पुलिस पर भरोसा और विश्वास अपने निम्नतम स्तर पर दिखाई दे रहा है. न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में इसे फिर से बहाल होने में एक लंबा समय लगेगा.

दिल्ली में 24 फरवरी को जो कुछ हुआ, वह गंभीर चिंता का विषय है और कुछ कष्टकारी सवालों को उठाता है चाहे वह किसी भी विचारधारा से संबंधित हो. पहला और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यदि देश की राजधानी में इस तरह कई-कई घंटों और दिनों तक निरंतर तबाही हो सकती है तो देश के अन्य हिस्सों में कानून और व्यवस्था के बारे में क्या उम्मीद की जा सकती है जहां पुलिस बल की इतनी मौजूदगी नहीं है? दूसरा, भारत की आंतरिक सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिरता के लिए व्यापक सांप्रदायिक तनाव के बड़े निहितार्थ क्या हैं?

इस हिंसा का समय इससे ज्यादा खराब नहीं हो सकता था. यह अमेरिकी राष्ट्रपति की उस हाई-प्रोफाइल यात्र के दौरान हुई, जो दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी के लिए थी. जाहिर है कि हर कोई अपने राजनीतिक झुकाव के अनुसार बिंदुओं को जोड़ने में व्यस्त है. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और हमारे समाज के वाम झुकाव वाले वर्ग का कहना है कि एक तरह की सामूहिक हत्या हुई है. हालांकि यह बात पीड़ितों की धार्मिक पहचान जैसे तथ्यों के साथ मेल नहीं खाती है, अचानक ही भारत को एक किस्म के फासिस्ट पुलिस वाले देश के रूप में पेश कर दिया गया है जहां अल्पसंख्यकों का विध्वंस किया जा रहा है. इस धारणा को तत्काल दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है. लेकिन ऐसा करने के लिए सभी नागरिकों, विशेषकर अल्पसंख्यकों में कानून के शासन पर भरोसे को फिर से बहाल करने की जरूरत है.  

सबसे पहले तो हमें पीड़ितों और उनके परिवारों को राहत देने और पुनर्वास करने की जरूरत है. इसके साथ ही बातचीत शुरू करने और विश्वास बहाली के लिए दोनों समुदायों के नेताओं के बीच जमीनी स्तर पर संवाद शुरू किए जाने की आवश्यकता है. आरोप लगाने के खेल को परे रखकर ठोस प्रयत्न करने के लिए प्रशासकीय दृढ़ता तथा राजनीतिक आम सहमति बनाने की जरूरत है. दूसरा, दिल्ली पुलिस को बिना किसी भय या पक्षपात के तय समय-सीमा के भीतर दंगों से संबंधित सभी मामले दर्ज करना और जांच करना चाहिए. व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि नेताओं के भड़काऊ भाषणों की हिंसा फैलाने में बड़ी भूमिका रही है. इस आयाम की भी जांच होनी चाहिए. लेकिन प्राथमिक तौर पर हिंसा के लिए इस तरह के नफरत भरे भाषण ही पर्याप्त नहीं लगते हैं.  हिंसक वारदातों को अंजाम देने के असली दोषियों की पहचान करने तथा उन पर मुकदमा चलाने की जरूरत है.

तीसरा, गहन जांच में उन पुलिस अधिकारियों की भी पहचान होनी चाहिए, जिन्होंने विशिष्ट चूक की, जिसके कारण दंगा हुआ और उनके खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई की जानी चाहिए. इस तरह की हिंसा के लिए माहौल पहले से ही तैयार हो रहा था. चेतावनी के बहुत सारे संकेत मिले होंगे जिन पर ध्यान नहीं दिया गया. दिल्ली पुलिस ने भी अपना एक हेडकांस्टेबल खोया और डीसीपी समेत अनेक पुलिस कर्मी घायल हुए. लेकिन उनका बलिदान और बहादुरी दंगे रोक पाने की उनकी आरंभिक विफलता को नहीं ढंक सकते.

चौथा और शायद सबसे कठोर हिस्सा है,  इस तरह के दंगों के लिए जिम्मेदार प्रणालीगत विफलताओं को दुरुस्त किया जाना चाहिए. ऐसा किए बिना हम भविष्य में भड़कने वाली भीड़ की हिंसा को रोक नहीं पाएंगे. यह सोचना बेवकूफी होगी कि दिल्ली के दंगों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा प्रस्तुत छवि हमारे राष्ट्रीय हित के लिए गंभीर रूप से हानिकारक नहीं होगी. ठीक वैसे ही जैसे यह सोचना पागलपन होगा कि हमारे अल्पसंख्यक समुदाय में व्याप्त असुरक्षा और चिंता की भावना हमारे सामाजिक ताने-बाने को नुकसान नहीं पहुंचाएगी और आर्थिक विकास की हमारी आकांक्षाओं के लिए इसके विनाशकारी परिणाम नहीं होंगे. सांप्रदायिक सद्भाव के अभाव में सीमा पार आतंकवाद से निपटने और कश्मीर में स्थिति सामान्य रखने की हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों से निपटना कठिन हो जाता है.  

अल्पसंख्यक समुदाय को भयपूर्ण वातावरण में रखना हितकारी नहीं है. यह केवल अनैतिक और असंवैधानिक ही नहीं है बल्कि इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि हम कभी भी अपनी पूर्ण राष्ट्रीय क्षमता को प्राप्त नहीं कर पाएंगे. निश्चित रूप से आतंकवाद और कट्टरता के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने चाहिए, लेकिन एक पूरे समुदाय को अलग-थलग करके इसमें सफलता नहीं मिल सकती. उन्हें हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली और हमारे सामाजिक ताने-बाने में अधिक विश्वास रखने की आवश्यकता है. ऐसा करने का एक तरीका हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली के सभी क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना हो सकता है, खासकर पुलिस व न्यायपालिका में.

मूल मुद्दा यह है कि पुलिस को जनता का विश्वास फिर से हासिल करने के लिए  बहुत कुछ करना है.
 

Web Title: Abhinav Kumar blog: Police can learn lessons from Delhi riots

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