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अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग: कफ सिरप से मासूमों की मौत के बाद क्या बंद आंखें खुलेंगी?

By दीपक कुमार पन्त | Updated: October 10, 2025 07:19 IST

छिंदवाड़ा की घटना ने उस त्रासदी को रेखांकित किया है जिसमें आम भारतीय परिवार जीने को मजबूर हैं. क्या किसी को जवाबदेह नहीं होना चाहिए जब इतने सारे बच्चे बिना उनकी गलती के मर रहे हों? क्या होता अगर किसी बड़े राजनेता या शीर्ष नौकरशाह को ऐसी त्रासदी का सामना करना पड़ता?

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अभिलाष खांडेकरवरिष्ठ पत्रकार

मध्य प्रदेश और राजस्थान में कफ सिरप पीने से हुई 20 मासूम बच्चों की मौतों ने हमें  झकझोर दिया है और फिर से यह उजागर कर दिया है कि भारत में गरीब परिवार कितने असुरक्षित हैं. नियामक तंत्र व दवाओं की गुणवत्ता की निगरानी का अभाव, ईमानदार पेशेवरों की कमी, आधिकारिक प्रणाली में लापरवाही और निश्चित रूप से हर स्तर पर भ्रष्टाचार - इन सबने मिलकर उन बच्चों की जान ले ली है.

कोविड-19 महामारी के दौरान भारत को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसने स्वास्थ्य क्षेत्र की गंभीर कमियों को उजागर किया था. कोविड ने कई विकसित और विकासशील देशों को समान रूप से प्रभावित किया, लेकिन चूंकि भारत पर जनसंख्या का भारी बोझ था और बुनियादी उपचारों के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे का अभाव था, इसलिए यहां इसकी गंभीरता कहीं अधिक महसूस की गई. 

पांच साल बाद भी स्वास्थ्य क्षेत्र में चुनौतियां बरकरार हैं जिसमें प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी से लेकर खराब तरीके से संचालित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, निजी अस्पतालों का लालच और सभी प्रकार के घोटाले शामिल हैं. पर्याप्त बजट की बात तो दूर की है. मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में अत्यधिक दूषित कफ सिरप (कोल्ड्रिफ) के कारण बच्चों की चौंकाने वाली मौतें भारत में कहीं भी हो सकती थीं, लेकिन निश्चित रूप से उन्हें टाला जा सकता था. 

मध्य प्रदेश पहले से ही ‘व्यापमं’ की अनियमितताओं और उसके बाद भयावह नर्सिंग कॉलेज घोटाले के काले धब्बों से जूझ रहा है, परंतु  ‘बीमारू’ की जकड़ से बाहर निकलने का दावा भी कर रहा है. ‘बीमारु’ कुछ राज्यों के नामों का संक्षिप्त रूप तो है, लेकिन यह मध्य प्रदेश के पिछड़ेपन की गहरी झलक भी देता है. स्कूली शिक्षा का स्तर, ग्रामीण/शहरी सड़कों की स्थिति, आदिवासी क्षेत्रों की बदहाली, बच्चों के प्रति अपराध और स्वास्थ्य विभाग की भ्रष्ट व्यवस्था से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि मध्य प्रदेश एक गंभीर रूप से बीमार राज्य बना हुआ है.

यह जानलेवा सिरप तमिलनाडु की एक गंदी-सी फैक्ट्री में बनाया जा रहा था, और इसका वितरण पूरे भारत में हो रहा था. लेकिन किसी ने भी इस दवा की जांच करने की जहमत नहीं उठाई. मुझे दूसरे राज्यों की जानकारी नहीं है, लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि पिछले कई सालों से मध्य प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग दागी अधिकारियों के हाथ में रहा है, जिनका आर्थिक स्वास्थ्य बेहतर होता गया और मध्य प्रदेश का ‘स्वास्थ्य’ बिगड़ता गया.  

ऐसे में, दो स्थितियां उभरी हैं: ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई हैं और शहरों में आलीशान निजी अस्पतालों की भरमार हो गई है. ग्रामीण इलाकों में गरीब और अशिक्षित लोग बदहाल व्यवस्था से जूझ रहे हैं, जबकि शहरों में आलीशान अस्पताल मरीजों को लूट रहे हैं. आयुष्मान योजना, कई अन्य योजनाओं की तरह, जिनकी घोषणा बड़े जोर-शोर से की गई थी (स्मार्ट सिटी को याद कीजिए), उन्हें लागू करने वाले अधिकारियों के कारण असफल साबित हुई है.

कठोर सच्चाई यह है कि देश में किसी भी ऐसी व्यवस्था का अभाव है जो ‘मतदाता’ को किफायती दरों पर सर्वोत्तम चिकित्सा सुविधाओं की गारंटी दे सके. छिंदवाड़ा की घटना ने उस त्रासदी को रेखांकित किया है जिसमें आम भारतीय परिवार जीने को मजबूर हैं. क्या किसी को जवाबदेह नहीं होना चाहिए जब इतने सारे बच्चे बिना उनकी गलती के मर रहे हों? क्या होता अगर किसी बड़े राजनेता या शीर्ष नौकरशाह को ऐसी त्रासदी का सामना करना पड़ता?

हाल ही में, एक केंद्रीय मंत्री को सोशल मीडिया पर सुदूर राजस्थान में मुफ्त घर-घर स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली ग्रामीण मोबाइल चिकित्सा इकाइयों का शुभारंभ करते हुए देखा गया- यह इस बात का संकेत है कि अभी तक ज्यादातर जगहों पर वहां चिकित्सा सेवाएं नहीं पहुंच पाई हैं. मोबाइल चिकित्सा इकाई योजना की देखरेख राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) करता है, जो कई राज्यों में  निजी आपूर्तिकर्ताओं और दागी अधिकारियों के चंगुल में है, ऐसा माना जाता है. पर छिंदवाडा के मासूम परिवारों का क्या कसूर है? सरकार के पास इसका जवाब नहीं है, जो और बड़ी त्रासदी है.

टॅग्स :Health DepartmentMadhya Pradesh
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