बनारस के मणिकर्णिका घाट पर होता है मृत्यु का उत्सव
By मेघना वर्मा | Published: April 12, 2018 06:25 PM2018-04-12T18:25:43+5:302018-04-12T18:25:43+5:30
समय के साथ बदलते हुए हमारी दाह संस्कृति भी आधुनिक होती जा रही है। पारम्परिक तरीकों से बनी लकड़ी की चिता अब लोहे के चूल्हों में तब्दील होने को तैयार हैं।
सफेद चादर में लिपटा शरीर, लोगों की भीड़ और उसी भीड़ से आती 'राम नाम सत्य है' की आवाज, ऐसा दृश्य आपको कहीं मिले तो समझ जाइएगा आप बनारस के मणिकर्णिका घाट पर हैं। भारतीय संस्कृति में जीवन और मृत्यु को एक ही सिक्के का दो पहलु माना जाता है।मौत और शहर बनारस का अपने आप में ही अनोखा रिश्ता है। दुनिया में लोग कहीं भी रहते हो जीवन के बाद मोक्ष प्राप्त करने की चाह में वो बनारस ही आना चाहते हैं। सदियों से बनारस का मणिकर्णिका घाट लोगों के शव दाह का गवाह बनता आया है। गंगा के तट पर बसा बनारस, एक मात्र ऐसा शहर है जहां मरने के बाद मृत्यु का उत्सव मनाया जाता है, मरने की खुशी मनाई जाती है। खुशी सांसारिक सुख त्यागने कि, खुशी...मोक्ष प्राप्त करने की। शायद इसी खुशी को देखने और भारतीय संस्कृति के इस पौराणिक मान्यता से रूबरू होने हर साल दुनिया भर से पर्यटक बनारस का रुख करते हैं। अस्सी घाटों के बीच मन की शांति के साथ उन्हें जीवन-मरण के सुख का भी ज्ञान हो जाता है।
क्या है शव दाह
सांसारिक सुख और जीवन त्याग कर जब इंसान मौत की गोद में जाता है तो उसका दाह संस्कार किया जाता है। पांच तत्वों (अग्नि, वायु, जल, धरती और आकाश ) से बना हमारा शरीर वापिस उसी पांच तत्वों में विलीन कर दिया जाता हैं। दाह संस्कार की क्रिया तब शुरू होती है, जब शव को सफेद कपड़ों में लपेटे घाट पर लाया जाता है। इसके बाद दाह संस्कार में उपयोग की जाने वाली लकड़ियों की कीमत उनके वजन और प्रकार के आधार पर तय की जाती है।
जितनी तरह की लकड़ियां इस घाट पर मिलती हैं, उनमें से चंदन की लकड़ी सबसे महंगी होती है। वैसे तो मृत्यु के बाद घरों में दुःख का माहौल होता है लेकिन बनारस का ये मणिकर्णिका घाट लोगों को मौत की सच्चाई से सामना कराता है। पूर्व पत्रकार और लगभग तीन साल से मणिकर्णिका घाट पर रिसर्च कर रहे प्रमोद मालवीय ने लोकमत को बताया "इस घाट में अनोखा जादू सा है यहां आने के बाद लोगों को किसी तरह का दुःख नहीं होता, मोह-माया से दूर, मौत ही जीवन की आखिरी सच्चाई है।जिसका ज्ञान यहां आने वाले लोगों को मिल जाता है। शायद यही कारण है कि लोग यहां आकर मृत्यु पर गम नहीं बल्कि खुशी मनाते हैं."
रात में भी होता है अंतिम संस्कार
मणिकर्णिका घाट पर रोजाना 500 से 600 शवों का अंतिम संस्कार किया जात है। ये मात्र एक ऐसा जिसे महाश्मशान के नाम से भी बुलाया जाता है। इस स्थान का नाम महाश्मशान कैसे पड़ा इस बात से जुड़े कई किस्से भी हैं। कुछ लोगों का कहना है कि भगवान शिव और पार्वती के स्नान के लिए यहां विष्णु जी ने कुआं खोदा था, जिसे लोग अब मणिकर्णिका कुंड के नाम से भी जानते हैं। जब शिव इस कुंड में स्नान कर रहे थे, तब उनका एक कुंडल कुएं में गिर गया तब से इस जगह को मणिकर्णिका (मणि यानि कुंडल और कर्णम मतलब कान) घाट कहा जाने लगा।
वैसे तो भारतीय संस्कृति के अनुसार शवों के अंतिम संस्कार सिर्फ दिन में ही किये जाते हैं लेकिन मणिकर्णिका घाट ही एक ऐसा घाट है जहां दिन और रात दोनों समय शवों को जलाया जाता है। प्रमोद ने बाताया की " मणिकर्णिका घाट के दायरे में आते ही इंसान की सारी समस्याएं उसका सारा तनाव कहीं पीछे छूट जाता है." उन्होंने कहा कि जब गंगा के तट पर शव को विलीन होते देखा जाता है तो दुनिया की सारी परेशानियां अपना रुख बदल देती हैं। मणिकर्णिका घाट पर खड़े होकर शायद जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान प्राप्त होता है.
"जीवन है तो मौत है और मौत है तभी जीवन है"
प्रमोद ने बताया कि "कभी किसी इंसान को किसी बात की चिंता होती है या सामजिक कारणों से उसका मूड सही नहीं होता तो उसे मणिकर्णिका घाट पर आना चाहिए, क्योकिं शायद यही वो जगह है जहां आप को बिना कहे बिना कुछ सुने जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई का अनुभव होता है।यही आकर आपको मालूम होता है कि मौत, जीवन चक्र का ही एक हिस्सा है।जीवन है तो मौत होनी भी तय है और अगर मौत है तो ही जीवन का है."
चाय के चुस्कियों के साथ मनता है मृत महोत्सव
मणिकर्णिका घाट पर रोजाना विदेशी पर्यटक आते हैं, हालाकिं यहां किसी भी तरह से फोटोग्राफी करना मना है लेकिन फिर भी विदेशी पर्यटक गंगा नदी में नाव से जाकर फोटोग्राफी करते हैं। घाट के माहौल की बात करें तो यहां कुछ ऐसा नहीं जो सामान्य ना हो। प्रमोद ने बताया कि घाटों के बगल में चाय की दुकाने, पकौड़िया तलते हलवाई और हर तरफ से आती चाय की खुशबू। नहीं मैं कहीं और नहीं बल्कि मणिकर्णिका घाट का ही दृश्य आपक तक पहुंचा रही हूं।
यहां आने वाले लोग (शव के साथ) साधारण तरीके से घाट पर बैठकर ना सिर्फ चाय पीते हैं बल्कि एक-दूसरे से हंसी-ठिठोली भी करते हैं।
वह स्थान जहां होती है मोक्ष की प्राप्ति
कहा जाता है कि भगवान शिव ने मणिकर्णिका घाट को अनंत शांति का वरदान दिया है। लोगों का यह भी मानना है कि यहां हजारों साल तक भगवान विष्णु ने भगवान शिव की आराधना की थी और ये प्रार्थना की थी कि सृष्टि के विनाश के समय भी काशी (जिसे पहले वाराणसी कहा जाता था) को नष्ट न किया जाए। श्री विष्णु की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती के साथ काशी आए और उन्होंने भगवान विष्णु की मनोकामना पूरी की।
तभी से यह मान्यता है कि वाराणसी में अंतिम संस्कार करने से मोक्ष (अर्थात व्यक्ति को जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाता है) की प्राप्ति होती है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदुओं में यह स्थान अंतिम संस्कार के लिए सबसे पवित्र माना जाता है।
आधुनिक होती जा रही है शव दाह की पौराणिक परम्परा
समय के साथ बदलते हुए हमारी दाह संस्कृति भी आधुनिक होती जा रही है। मालवीय ने बताया कि मणिकर्णिका घाट पर शव दाह की ये परम्परा अब आधुनिक होती जा रही है। पारम्परिक तरीकों से बनी लकड़ी की चिता अब लोहे के चूल्हों में तब्दील होने को तैयार हैं। जहां हमारी संस्कृति में तीन, पांच और सात मन की लकड़ियों से चिताएं जलाई जाती थी वहीं अब गर्म लोहे की चिताओं के चलते सर दो या तीन मन की ही लकड़ी में चिताएं जल जाया करेंगी।
शव दाह की ये परम्परा 'वाटर हार्वेस्टिंग' जैसी है। जैसे पानी को शुद्ध करके भूमिगत जल में मिलाया जाता है उसी तरह शरीर की पांच तत्वों को शुद्ध करके उन्हीं पञ्च तत्वों में मिला दिया जाता है।