ब्लॉग: राजनीति की गिरावट, चुल्लू-भर पानी, डर और जिम्मेदारी

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: April 24, 2024 11:18 AM2024-04-24T11:18:25+5:302024-04-24T11:20:21+5:30

चुल्लू-भर पानी में तो तब भी डूब मरने को जी चाहता है जब हमारे नेता 'निर्विरोध' के अर्थ को सिर के बल खड़ा कर देते हैं। नेताओं के निर्विरोध निर्वाचित होने से बढ़कर आदर्श स्थिति तो लोकतंत्र में और कोई हो ही नहीं सकती।

Decline of politics little water fear and responsibility | ब्लॉग: राजनीति की गिरावट, चुल्लू-भर पानी, डर और जिम्मेदारी

फाइल फोटो

Highlightsचुनाव प्रचार चरम पर है और देश स्तब्ध हैराजनीति का स्तर इतना गिर जाएगाक्या किसी ने कभी सोचा होगा?

हेमधर शर्मा: चुनाव प्रचार चरम पर है और देश स्तब्ध है। राजनीति का स्तर इतना गिर जाएगा, क्या किसी ने कभी सोचा होगा? यह सच है कि किसी चीज को बनाने में समय लगता है, पर बिगाड़ने में कुछ पल भी नहीं लगते। तो क्या नकारात्मकता की इसी ताकत का इस्तेमाल हमारे नेता करना चाहते हैं? क्या सचमुच ही जनता विकास जैसे सकारात्मक मुद्दों पर वोट नहीं देती? अगर ऐसा नहीं है तो फिर नेताओं को हम नागरिकों के विवेक पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा, गलीज आरोपों-प्रत्यारोपों के दलदल में वे क्यों धंसते जा रहे हैं? अगर वे हम मतदाताओं को बेवकूफ समझ कर इतना नीचे गिर रहे हैं तो क्या यह हमारे लिए चुल्लू-भर पानी में डूब मरने वाली बात नहीं है?

चुल्लू-भर पानी में तो तब भी डूब मरने को जी चाहता है जब हमारे नेता 'निर्विरोध' के अर्थ को सिर के बल खड़ा कर देते हैं। नेताओं के निर्विरोध निर्वाचित होने से बढ़कर आदर्श स्थिति तो लोकतंत्र में और कोई हो ही नहीं सकती, पर बिना जनता का मत जाने ही किसी को जनप्रतिनिधि घोषित कर दिया जाए तो जनता को हंसना चाहिए या रोना चाहिए! कहते हैं एक जमाने में देश के कुछ इलाकों में डकैतों का इतना आतंक था कि उनके प्रत्याशी के मुकाबले में खड़ा होने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता था। डराते तो डकैत भी थे, पर निर्विरोध का नया अर्थ इतना डरावना क्यों लगने लगा है?

डरावनी तो वह खबर भी लगती है कि एक शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में सुहावने मौसम वाले दिन साल में 140 से घटकर 69 रह जाएंगे. नेताओं से तो अच्छे दिन लाने की उम्मीद बची नहीं है लेकिन क्या प्रकृति भी हमें सुहावने दिनों का अधिकारी नहीं समझती? बिगड़ना चाहे नेताओं का हो या प्रकृति का, जिम्मेदार शायद हम नागरिक ही हैं। मुफ्त उपहारों का लालच देने वाले नेताओं के वादों के बारे में क्या हमने सोचा कि क्या वे अपने घर से यह सब देने वाले हैं? जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से भरे सरकारी खजाने को मुफ्त में लुटाने का उन्हें क्या अधिकार है? इसी तरह प्रकृति की नेमतों को मुफ्त का माल समझकर हमने इतना उड़ाया कि प्रकृति अब हमारे होश उड़ाने पर आमादा है। जिन चीजों को लेकिन हमने बिगाड़ा है - चाहे वे नेता हों या प्रकृति - उन्हें ठीक करने की जिम्मेदारी भी अब हमारी ही है।

तकलीफदेह लेकिन यह है कि अपनी जिम्मेदारी ही तो हम नहीं निभा रहे हैं! पांच साल में एक बार मतदान केंद्र तक जाकर अपना एक वोट ही तो हमें डालना होता है; अगर वह भी नहीं कर सकते तो किस मुंह से नेताओं या किसी और को दोष दें! नेता अगर हमें बेवकूफ समझते हैं तो यह समझने का कारण हम ही न उन्हें दे रहे हैं!

Web Title: Decline of politics little water fear and responsibility

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