ब्लॉग: उन्हें भी अपने गिरेबां में झांकना चाहिए

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: May 3, 2024 10:31 AM2024-05-03T10:31:44+5:302024-05-03T11:03:46+5:30

अपने भ्रामक विज्ञापनों के लिए जहां बाबा रामदेव को सुप्रीम कोर्ट की तीखी आलोचना और फटकार का सामना करना पड़ रहा है, वहीं न्यायाधीशों ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) को भी नहीं बख्शा है।

Blog: They should also look into their own pockets | ब्लॉग: उन्हें भी अपने गिरेबां में झांकना चाहिए

फाइल फोटो

Highlightsरामदेव को अपने भ्रामक विज्ञापनों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जमकर खरी-खोटी सुनाई रामदेव को फटकारने के साथ कोर्ट ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को भी नहीं बख्शारामदेव पर आरोप लगाने वाली आईएमए को भी अब अपने गिरेबां में झांकना चाहिए

अपने भ्रामक विज्ञापनों के लिए जहां बाबा रामदेव को सुप्रीम कोर्ट की तीखी आलोचना और फटकार का सामना करना पड़ रहा है, वहीं न्यायाधीशों ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) को भी नहीं बख्शा है। उन्होंने सही समय पर आईएमए की खिंचाई की, यह अच्छा रहा। पूरे भारत में एलोपैथी डॉक्टरों के प्रमुख संगठन के रूप में आईएमए व उसके सदस्य देश की स्वास्थ्य सेवा के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।

बताया जाता है कि इसके 29 राज्यों में 3.50 लाख से अधिक चिकित्सक सदस्य हैं। एलोपैथी तुलनात्मक रूप से एक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान है, जो कभी-कभी रोगी को तुरंत राहत प्रदान करती है, इसलिए बड़ी संख्या में भारतीय इस पर निर्भर हैं।

पिछले हफ्ते जब मैंने शीर्ष अदालत की तीखी टिप्पणियों के आलोक में बाबा रामदेव और उनके विज्ञापनों के बारे में लिखा था, तो मुझे पाठकों की ढेरों प्रतिक्रियाएं मिलीं, जिन्होंने महसूस किया कि मैंने एलोपैथिक चिकित्सकों के गलत कामों की अनदेखी की है। नहीं, मैंने नहीं की है। मैं उनके व्यापक कदाचार से भी अवगत हूं, जो शायद उससे भी अधिक गंभीर हैं जो पतंजलि ने पिछले अनेक वर्षों में किया होगा।

रामदेव ने कोविड-19 के दौरान एलोपैथी का उपहास किया था और उनका दृढ़ मत था कि आयुर्वेद का उपचार सबसे श्रेष्ठ था। दोनों की लड़ाई यहीं से शुरू हुई थी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को अब आईएमए को भी गंभीरता से समझना होगा और पेशे में जरूरी सुधार करने होंगे। ऐसा नहीं है कि केवल सुप्रीम कोर्ट ने ही आईएमए सदस्यों के अनैतिक तरीकों पर नाराजगी जताई, लोग जानते हैं कि कैसे कोविड-19 के दौरान, निजी अस्पतालों ने खुलेआम असहाय मरीजों को लूटा, जब बीमारी के इलाज के लिए कोई दवा उपलब्ध नहीं थी।

भयावह महामारी के दौरान, जब रिश्तेदार अपने मरीजों के बारे में बहुत कम जान सकते थे, अस्पताल या मरीज के कमरे में प्रवेश करना तो दूर की बात थी, अस्पताल मालिकों ने खुलेआम लूट मचा दी थी. उन्होंने अकल्पनीय हद तक जरूरत से ज्यादा पैसे लिए और मरीजों की वित्तीय या अन्य परिस्थितियों की जरा भी परवाह नहीं की।

मानवीय दृष्टिकोण लगभग लुप्त हो गया था और उनमें से करीब 80-90 प्रतिशत चिकित्सक बेतहाशा पैसा कमाने में व्यस्त थे। महामारी ने जैसे उन्हें एक सुनहरा अवसर थाली में सजाकर दिया हो। इस दौरान सरकार मूकदर्शक बनी रही। अस्पताल मालिक, फार्मासिस्ट, दवा विक्रेता, ऑक्सीजन आपूर्तिकर्ता, हर कोई कोविड पीड़ितों को बेरहमी से निचोड़ने पर उतारू था।

इस वजह से कई परिवार पूरी तरह से बर्बाद हो गए। इसका श्रेय डॉक्टरों द्वारा बनाए गए भारी-भरकम बिलों को जाता है, जो इसे नकद में लेते थे- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नकदी-रहित लेनदेन के दिशानिर्देशों को दरकिनार करते हुए। हां, मैं मानता हूं कि जान पर खेलकर उन्होंने सेवाएं दी थीं।

कोविड के दौरान अस्पताल मालिकों और अधिकांश डॉक्टरों ने ऐसा व्यवहार किया जैसे अभी नहीं तो कभी नहीं। आपदा में अवसर कहावत को चरितार्थ किया सभी ने। वैसे, आईएमए के कई उच्च शिक्षित सदस्य, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने अपने घर को व्यवस्थित रखने के लिए कहा है, दशकों से ऐसा कर रहे हैं। इनमें कई सारे ईमानदार और मानवीय डॉक्टर भी हैं जो अपने मूल्यों और सरोकारों पर कायम रहे हैं। यह दुःखद है कि वे अल्पमत में हैं।

फार्मास्युटिकल कंपनियों की एक शक्तिशाली लॉबी सभी प्रकार की दवाओं को हमारे बाजार में फेंकती रहती है; डॉक्टरों को उन्हें लिखने के लिए ‘प्रभावित’ करती है; सरकारों को इन्हें थोक में खरीदने के लिए ‘मजबूर’ करती है। इसके अलावा, महंगे चिकित्सा उपकरण निर्माता भारत में प्रचलित अन्य चिकित्सा प्रणालियों को खत्म करने के लिए उनके साथ मिलकर काम कर रहे हैं, यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। कई लोगों का मानना है कि शक्तिशाली लॉबी वर्षों से बाबा रामदेव के पीछे पड़ी थी क्योंकि वह आयुर्वेद के माध्यम से बड़ी संख्या में बीमारियों का इलाज कर रहे थे. इसमें सच्चाई का अंश हो सकता है।

मैंने कुछ साल पहले एक अद्भुत किताब पढ़ी थी जिसमें डॉक्टरों द्वारा अपनाई जाने वाली ‘अस्वास्थ्यकर’ प्रथाओं के बारे में साहसिक रूप से और खुलकर बात की गई थी। डॉ. अरुण गद्रे और डॉ. अभय शुक्ला द्वारा लिखित, छोटी सी पुस्तक-डिसेंटिंग डायग्नोसिस- बेईमान चिकित्सा पद्धतियों, अनावश्यक जांच, खराब ऑपरेशन, हानिकारक दवाओं का प्रयोग, वेंटिलेटर का अत्यधिक उपयोग, अस्पताल में ज्यादा दिनों तक भर्ती रखना आदि को उजागर करती है फिर भारत में नौकरशाहों और डॉक्टरों द्वारा नकली दवा आपूर्तिकर्ताओं को चुपचाप बढ़ावा देने का भी एक बड़ा रैकेट है।

महंगी फीस चुकाकर एमबीबीएस डॉक्टर बनना (भारत से यूक्रेन गए छात्रों ने इसका खुलासा किया है), फिर पोस्ट ग्रेजुएशन और गलाकाट प्रतियोगिता के युग में सुपर स्पेशलिस्ट बनना बहुत महंगा है. यही बुराई और लालच का मूल कारण है. इसके अलावा, दस बिस्तर वाले छोटे अस्पताल को भी शुरू करने के लिए निजी क्षेत्र में भारी निवेश की आवश्यकता होती है, बड़ी अस्पताल श्रृंखलाओं की तो बात ही छोड़ दें. इन सबका परिणाम असहाय रोगियों पर अत्याचार के रूप में देखने को मिलता है।

लेकिन क्या यह उचित या कानूनी है? यहां सरकार और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) की महत्वपूर्ण भूमिका है। बाबा रामदेव पर आरोप लगाने वाली आईएमए को भी अब अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद और कोई विकल्प नहीं बचा है। समाज को भी कुछ दबाव बनाना होगा।

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