सऊदी अरब क्यों शिया बहुल मुल्कों को एक के बाद एक ठिकाना लगा रहा है?

By विकास कुमार | Published: December 17, 2018 05:50 PM2018-12-17T17:50:46+5:302018-12-17T17:50:46+5:30

ईरान की अर्थव्यवस्था को चौपट करने के लिए अमेरिका के साथ उसके परमाणु समझौते को रद्द करवाना हो या कतर पर तमाम तरह के प्रतिबंध थोपना हो, यमन के शिया बहुल इलाकों में बमबारी और अपने देश में शिया धर्मगुरुओं को प्रताड़ित करना ये दिखाता है कि सऊदी अरब शिया देशों को जल्द से जल्द ठिकाने लगाना चाहता है।

Saudi Arab want to destroy the Shia majority countries in middle-east, Iran, Yemen, Qatar are facing Saudi dictatorship | सऊदी अरब क्यों शिया बहुल मुल्कों को एक के बाद एक ठिकाना लगा रहा है?

सऊदी अरब क्यों शिया बहुल मुल्कों को एक के बाद एक ठिकाना लगा रहा है?

मध्य-पूर्व की राजनीति में तेल और इस्लाम दोनों बराबर की हैसियत रखते हैं। सऊदी अरब के पास दोनों भरपूर मात्रा में है। एक तरफ वो पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा कच्चे तेल का उत्पादन करता है, तो दूसरी तरफ कट्टर वहाबी इस्लाम के जरिये इस्लामिक वर्ल्ड का झंडाबरदार होने का भी दावा करता है। प्रथम विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य की करारी शिकस्त के बाद जब इस्लामिक देश अनाथ हो चुके थे और नेतृत्व के स्तर पर असहाय महसूस कर रहे थे, उस दौर में सऊदी अरब ने स्वयं को इस्लामिक देशों का खलीफा घोषित किया और धीरे -धीरे इस पूरे क्षेत्र में उसकी बादशाहत कायम होती चली गयी। तेल से प्राप्त हुई अकूत दौलत से इसने पूरे मुस्लिम जगत को कट्टर वहाबी पंथ की अफीम चटाई और और उनकी संप्रभुता को हमेशा के लिए अपने शाही महल में कैद कर लिया। 

ईरान और सऊदी की जंग 

साल 1979 जब पूरी दुनिया अपने दकियानूसी सोच की तिलांजलि देकर आधुनिकता की चादर ओढ़ने के मुहाने पर खड़ी थी, ठीक उसी समय आधुनिक ख़्यालों वाले एक इस्लामिक देश में इस्लामिक क्रांति होती है जो देश को फिर से इस्लामिक स्थापना के काल में ले जाती है और यहीं से शुरू होती है मध्य -पूर्व में कट्टरता की होड़। एक तरफ ईरान जो की शिया मुसलमानो के मसीहा के रूप में उभरा तो दूसरी तरफ सऊदी अरब जिसने सुन्नी मुसलमानो को ईरान के विरुद्ध गोलबंद किया। ईरान की इस्लामिक क्रांति से ही घबराकर इराक के सुन्नी तानाशाह सद्दाम हुसैन ने 1980 में ईरान पर हमला किया। आठ वर्षों की भीषण लड़ाई में लाखों लोग मारे गए और अंततः इराक को युद्ध से खाली हांथ ही वापस लौटना पड़ा। ईरान के डर ने इराकी अर्थव्यवस्था को ऐसा घाव दिया जो आज तक उसके लिए नासूर बना हुआ है। ईरान इस युद्ध में अकेला खड़ा था और वहीं इराक को सऊदी अरब और अमेरिका का समर्थन प्राप्त था।

शीत युद्ध के दौर से ही सऊदी अरब मध्य -पूर्व में अमेरिकी सामरिक नीतियों का एक महत्त्वपूर्ण ठिकाना रहा है, या यू कहें कि जब पूरी दुनिया अमेरिका और रूस के खांचे में बट चुकी थी तो सऊदी अरब के शाही दरबार ने अमेरिका का पिछलगू बनना ही पसंद किया। जिसका प्रसाद उन्हें आजतक प्राप्त हो रहा है। सिलिकॉन वैली की कंपनियों में भारी भरकम निवेश से उसे मिडिल ईस्ट में खुलेआम गुंडागर्दी करने का लाइसेंस प्राप्त हुआ। एक कहावत है न जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे। सऊदी के इस्लामिक कट्टरपंथियों ने अमेरिका को रिटर्न गिफ्ट के रूप में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को ही उड़ा दिया। एक बार फिर पूरी दुनिया अमेरिका के दोगले रवैये की साक्षी बनी। जब अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी आतंकवादी हमले को अंजाम देने वाले 21 आतंकवादियों में 16 सऊदी अरब के थे तो अमेरिका ने इराक पर हमला क्यों किया ?

बराक ओबामा के शासन काल के अंतिम वर्ष में अमेरिकी कांग्रेस ने एक कानून को मंजूरी दी। जिसमें अमेरिकी नागरिक सऊदी अरब के उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों के खिलाफ जिनकी उस मानवीय त्रासदी में संलिप्तता थी, उनके खिलाफ कानूनी विकल्प का इस्तेमाल कर सकते थे। अमेरिकी कांग्रेस की इस कानून पर सऊदी अरब आग बबूला हो उठा और उसने वहां की कई कंपनियों में किये 80 लाख करोड़ के निवेश को वापस लेने की धमकी तक दे दी। आनन-फानन में अमेरिकी सरकार ने इस कानून को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। उस समय पूरी दुनिया ने सऊदी रियाल की ताक़त को महसूस किया। इसी ताक़त की बदौलत सऊदी अरब आज पूरे मध्य -पूर्व का चौकीदार बन बैठा है, जहां एक पत्ता भी उसके मर्ज़ी के बगैर नहीं हिलता।

यमन सबसे ताजा शिकार 

यमन एक छोटा सा देश आज सऊदी कट्टरता का सबसे नया शिकार बना है। जहां अपनी कठपुतली सरकार को बचाने के लिए सऊदी और सहयोगी गठबंधन सेनाएं लगातार आसमान से आग उगल रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक यमन इस सदी के सबसे बड़े मानवीय त्रासदी के कगार पर खड़ा है, जहां कभी भी 1.5 करोड़ लोगों की मौत भूख के कारण हो सकती है। हौती विद्रोहियों और सऊदी प्रायोजित सरकार के बीच के इस संघर्ष में अभी तक 50 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। सऊदी अरब ने मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आतंकवादियों को समर्थन देने के नाम पर कतर पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाये, लेकिन कतर अपनी मजबूत अर्थव्यवस्था के दम पर सऊदी अरब को चुनौती देता रहा और आज भी सऊदी और उसके सहयोगियों के सामने मजबूती से खड़ा है। 

कतर ने यमन में सऊदी अरब की मदद नहीं की और इसके साथ ईरान से अच्छे रिश्ते होने के कारण ही सऊदी अरब और बाकी के खाड़ी देशों ने कतर से सारे रिश्ते तोड़ लिए और उस पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए। लेकिन कतर ने तुर्की और ईरान की मदद से इन प्रतिबंधों को बेअसर कर दिया। शिया मुल्कों की अस्थिरता ही सऊदी अरब का प्राथमिक उद्देश्य रहा है। ईरान और अमेरिका के परमाणु डील को तोड़ने में भी सऊदी अरब ने बड़ी भूमिका निभायी है। लॉबिंग पर करोड़ों डॉलर खर्च किया गया और इसके लिए बाकायदा अमेरिकी कंपनियों की मदद ली गई।

दरअसल यमन में एक बड़ी शिया आबादी होने के बावजूद वहां की सत्ता में उन्हें कोई स्थान प्राप्त नहीं है। ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकना इस्लामिक जगत के मुखिया बने रहने के प्रोजेक्ट का ही हिस्सा है जिसके लिए सऊदी हुकूमत किसी भी हद तक जाने को तैयार है। अमेरिका ने हाल ही में ईरान से हुए न्यूक्लिअर डील को रद्द कर दिया है और भारी प्रतिबन्ध लगाने की तैयारी कर रहा है। पहले से ही ईरान की खोखली अर्थव्यवस्था अब दम तोड़ने के कगार पर पहुँच चुकी है। इतना सब होने के बाद कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है ये किसके इशारे पर हो रहा है और क्यों हो रहा है? 

पाकिस्तान और सऊदी अरब की जुगलबंदी 

कहा जाता है कि पाकिस्तान ने जब परमाणु परिक्षण किया तो उसमे से कुछ परमाणु हथियार सऊदी अरब के लिए भी बनाये। दोनों देशों के बीच ये समझौता है कि जब भी सऊदी हुकूमत को परमाणु हथियार की ज़रूरत होगी, तो पाकिस्तान उसे दौड़कर परमाणु बम का वो बटन देगा जिसके सहारे वो इस्लामिक देशों का मुखिया बना रहे। अगर किसी ने उसके विरोध में आवाज उठायी तो उसका हश्र यमन , कतर और ईरान के जैसा ही होगा। क्षद्म उदारीकरण की आड़ में इस्लामिक तांडव का खेल मध्य -पूर्व की रेतीली मिट्टियों में अनवरत जारी है जिसके ऊपर अमेरिका नाम की महाशक्ति का चादर ओढ़ा दिया गया है, ताकि उन्हीं  रेतीली मिट्टियों से सऊदी अरब पूरी दुनिया की आँख में धुल झोकता रहे और आधुनिक युग का ऑटोमन साम्राज्य बना रहे।

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