Radha Ashtami 2024: कृष्ण के वियोग में आंसू नहीं बहाती!, आज दैहिक नहीं वरन बुद्धिमत्ता की बुनियाद राधा?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: September 10, 2024 10:16 PM2024-09-10T22:16:16+5:302024-09-10T22:17:06+5:30

Radha Ashtami 2024 shubh-muhurat significance vrat vidhi: जयदेव के गीत-गोविंद में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन मिलता है।

Radha Ashtami 2024 She not shed tears in separation Krishna Today Radha not physical but foundation of intelligence shubh-muhurat significance vrat vidhi | Radha Ashtami 2024: कृष्ण के वियोग में आंसू नहीं बहाती!, आज दैहिक नहीं वरन बुद्धिमत्ता की बुनियाद राधा?

सांकेतिक फोटो

Highlightsधातुओं में 'राधस' धातु मिलती है, जिसका अर्थ धन या ऐश्वर्य है। भक्तिकाल में ही ईश्वर प्राप्ति के दो मार्ग बने ज्ञान-मार्ग व प्रेम-मार्ग।प्रेम-मार्ग ने राधा के प्रेमाख्यान को स्तुत्य व अमर बना दिया।

डॉ. धर्मराज सिंह, मथुराः

'राधा' शब्द को लेकर प्रायः इतिहासविद व साहित्यकारों में मतैक्य नहीं है, फिर भी प्रश्न उठता है आलम्बन के रूप में राधा का उदय कब और कैसे हुआ..? वेदों में 'राधा' शब्द का प्रयोग 'व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में नहीं मिलता अपितु वैदिक धातुओं में 'राधस' धातु मिलती है, जिसका अर्थ धन या ऐश्वर्य है। यास्क के निरुक्त में 'राध' धातु का अर्थ- संतुष्ट करना है। जयदेव के गीत-गोविंद में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन मिलता है।

वो लिखते भी हैं-

कंसारिरपि संसारवासनाबन्ध श्रृंखलाम
राधामाधाय हृदये तत्याज व्रजसुन्दरी:
जबकि कविवर बिहारी "मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
 जा तन की झाँई परै, स्यामु हरित दुति होई।। के रूप में स्तुति करते हैं।

ऐतिहासिक दृष्टि से मध्यकाल ने न केवल समसामयिक समाज को प्रभावित किया, अपितु साहित्य व कला पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा। इस काल में रसोपासना व आराध्य के रूप में श्रीकृष्ण की सखी, प्रिया आदि रूपों में 'राधा' का स्थान सर्वोच्च शिखर पर रहा है, आगे चलकर यह नाम ब्रजधाम के लिए शाश्वत हो गया। भक्तिकाल में ही ईश्वर प्राप्ति के दो मार्ग बने ज्ञान-मार्ग व प्रेम-मार्ग।

इसी प्रेम-मार्ग ने राधा के प्रेमाख्यान को स्तुत्य व अमर बना दिया। यही कारण है कि प्रेम की अनुभूति व प्रेम की पराकाष्टा कहीं दृष्टिगोचर होती है, तो वह है - राधा-कृष्ण का अनन्य प्रेम। 'भाषिक दृष्टि से देखें तो श्रद्धा, प्रेम व वात्सल्य तीनों शब्द प्रेम के पर्यायवाची के रूप में प्रचलित होते हैं  किन्तु श्रद्धा नीचे से ऊपर चलती है, तो वात्सल्य ऊपर से नीचे चलता है किंतु प्रेम परस्पर, समान व सजीव चलता है, यहीं प्रेम राधा-कृष्ण के प्रेम के देखने मिलता है, जिसने राधा-कृष्ण कोवही नहीं प्रेम को भी अमर बना दिया। 

सूरदास अष्टछाप के कवियों में राधा-कृष्ण के प्रेम को भक्ति का अवलम्ब देते हैं, तो मीरा व रसखान उस प्रेम की अनुभूति के अमर-गायक हैं। राधा को समझने का अर्थ है, विरह की दशों दिशाओं से रूबरू होना, इसी दशा ने कृष्ण-प्रेम में अनुरक्त हुई राधा की रूह को कृष्ण बना दिया। राधा बांसुरी की धुन सुन दौड़ने लगती है और कृष्ण परसों की कहकर गए, फिर कभी न लौटे।

विरह-वेदना से क्षीणकाय होती राधा जल बिन मीन की भांति हो गई। विरह का यह मार्मिक दृश्य अविश्वसनीय लगता क्योंकि गोकुल से मथुरा की दूरी कितनी थी? आखिर ऐसे कौन से कारक या कारण थे कि गोकुलवास के बाद कृष्ण व राधा के मिलन का संयोग फिर कभी नहीं हुआ। क्या राधा ने कोई शिकायत अपने प्रेमी से नहीं की, यदि नहीं की तो आज के प्रेमियों को ये सबक राधा से सीखना चाहिए।

हरिऔध उपाध्याय लिखते हैं कि राधा एक सम्पूर्ण व्यक्ति, राधा एक सामाजिक प्राणी, राधा जिसे केवल अपना ही दुःख नहीं व्यापता, उसे समाज के सर्वहारा वर्ग की भी चिन्ता है। उसे दीन दुखियों का दर्द, अपने विरह के दर्द के समान लगता है। वह पवन को दूतिका बनाकर संदेश देते हुए सावधान करती हैं कि वह संदेश लेकर इतने वेग से न जाए कि वृक्षों के कोटरों में पलने वाले आहत हों, श्रम कर रहे किसान और किसान-पुत्रियों के सिर पर बादल के माध्यम से छाया देकर उन्हें गर्मी व धूप से बचाए, इसलिए राधा, कृष्ण की सहचरी के साथ-साथ दीन-हीनों की सेविका भी है।

धर्मवीर भारती की 'कनुप्रिया' आज भी इन्तजार कर रही है। 'राधा' आज उसी अशोक वृक्ष के नीचे, उन्हीं मंजरियों से अपनी 'कुंवारी मांग' को भरने को खड़ी है, इस प्रतीक्षा में कि जब महाभारत के अवसान बेला में कृष्ण अठारह अक्षौहिणी सेना के विनाश के बाद, निरीह, एकाकी और आकुल हो, आंचल की छाया में विश्राम पाने लौटेंगे तो वह उन्हें अपने वक्ष में शिशु-सा लपेट लेंगी।

राधा एक नाम नहीं अपितु प्रेम की एक अविरल धारा है, जिसके आगे कोई धारा नहीं ठहरती। कृष्ण की कल्पना के बगैर राधा सम्भव नहीं हो पाती वरन कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि राधा कृष्ण से आगे निकल गई हैं। कृष्ण के नाम से पहले राधा का नाम लिया जाना इसका परिचायक है। कृष्ण की सीमाएं हैं, राधा वतुर्लाकार है, सीमा रहित है।

राधा-कृष्ण की प्रेम-कथा विश्व की अनेक प्रचलित प्रेम-कथाओं में अनूठी, अनुपम व अद्वितीय है। राधा निश्चित रूप से कृष्ण से ज्यादा साहसी हैं क्योंकि वो जानती थी कि उनका कृष्ण के साथ मिलन कभी नहीं हो सकता इसलिए धर्मवीर भारती की कनुप्रिया पूछ बैठती है कि तुम कौन हो कनु..? मैं तो आज तक नहीं जान पाई, किन्तु फिर भी अनेक वर्जनाओं को तिलांजलि देते हुए वह प्रेम करती है।

वह निराश या हताश प्रेमियों की तरह नहीं हैं, वह भागती नहीं है, अवसादग्रस्त नहीं होती और न ही आत्महत्या को प्रेरित होती है, अपितु संघर्ष करती है। राधा अत्याधुनिक सोच की पोशिका है। वह कृष्ण के वियोग में आंसू नहीं बहाती, उलाहने नहीं देती या कृष्ण को भला-बुरा नहीं कहती। समाज-कल्याण के लिए जनहित की भावना राधा में देखने को मिलती है। यही कारण है कि आज दैहिक नहीं वरन बुद्धिमत्ता की बुनियाद है- राधा।

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