Kalashtami Vrat Katha: पढ़िए कालाष्टमी की व्रत कथा
By मेघना वर्मा | Published: November 16, 2019 09:36 AM2019-11-16T09:36:05+5:302019-11-16T09:36:05+5:30
Kalashtami Vrat Katha in hindi: मान्यता है कि अगर सच्चे मन से भैरव बाबा की पूजा की जाए तो उनके सभी कष्टों का नाश होता है।
हिन्दू धर्म में कालभैरव को शिव का रूप माना जाता है। पंचाग के अनुसार कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को कालाष्टमी का व्रत किया जाता है। इसे कालभैरव जयंती के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भक्त कालभैरव के लिए पूजा करते हैं। भैरव जयंती के दिन मां दुर्गा की पूजा का भी विधान है।
कालाष्टमी का महत्व
माना जाता है कि भैरव जी की पूजा से भूत, पिशाच एंव काल हमेशा दूर रहते हैं। मान्यता है कि अगर सच्चे मन से भैरव बाबा की पूजा की जाए तो उनके सभी कष्टों का नाश होता है। साथ ही लोगों के रुके हुए काम भी बन जाते हैं। आप भी कालाष्टमी का व्रत पूरे विधि-विधान से कर सकते हैं। इस साल नवंबर महीने में कालाष्टमी 19 तारिख को पड़ रही है।
कब है कालाष्टमी
कालाष्टमी तिथि - 19 नवंबर
कालाष्टमी प्रारंभ - 3:35 PM
कालाष्टमी समाप्त - 1:41 PM (20 नवंबर)
कालाष्टमी की व्रत कथा
शिव पुराण की मानें तो देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु जी से बारी-बारी से पूछा कि ब्रह्मांड में सबसे श्रेष्ठ कौन है। जवाब में दोनों ने स्वयं को सर्व शक्तिमान और श्रेष्ठ बताने लगे। इसके बाद दोनों में युद्ध होने लगा। देवता घबरा गए। उन्होंने वेदशास्त्रों से इसका जवाब मांगा। उन्हें बताया कि जिनके भीतर पूरा जगत, भूत, भविष्य और वर्तमान समाया हुआ है वह कोई और नहीं बल्कि भगवान शिव ही हैं।
ब्रह्मा जी यह मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। इसके बाद ब्रह्मा जी भगवान शिव के बारे में अपशब्द कह दिए। इसके बाद दिव्यज्योति के रूप में भगवान शिव प्रकट हो गए। ब्रह्मा जी आत्मप्रशंसा करते रहे और भगवान शिव को कह दिया कि तुम मेरे ही सिर से पैदा हुए हो।
इस पर भगवान शिव नाराज हो गए और क्रोध में उन्होंने भैरव को उत्पन्न किया। भगवान शंकर ने भैरव को आदेश दिया कि तुम ब्रह्मा पर शासन करो। यह बात सुनकर भैरव ने अपने बाएं हाथ की सबसे छोटी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के वही 5वां सिर काट दिया, जो भगवान शिव को अपशब्ध कह रहा था।
इसके बाद भगवान शंकर ने भैरव को काशी जाने के लिए कहा और ब्रह्म हत्या से मुक्ति प्राप्त करने का रास्ता बताया। माना जाता है कि इसी के बाद भगवान शंकर ने उन्हें काशी का कोतवाल बना दिया, आज भी काशी में भैरव कोतवाल के रूप में पूजे जाते हैं। विश्वनाथ के दर्शन से पहले इनका दर्शन होता है, अन्यथा विश्वनाथ का दर्शन अधूरा माना जाता है।