जब नरसिम्हा राव की 'लक्ष्मी' ने किया था प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का विरोध
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: June 28, 2018 05:21 PM2018-06-28T17:21:25+5:302018-06-28T17:24:01+5:30
देश की राजनीति में पीवी नरसिम्हा राव को हमेशा एक कद्दावर कांग्रेसी नेता के रूप में देखा जाता रहा है। देश के दसवें प्रधानमंत्री रहे चुके राव को देश में हुए बड़े आर्थिक बदलावों का जनक भी माना जाता है। राव गिनती के उन नेताओं में थे जिन्होंने आज़ादी के पहले और बाद दोनों ही समय में देश हित के लिए काम किया। देश की अर्थव्यवस्था को वैश्वीकरण से जोड़ने वाले शुरुआती नेताओं में राव का नाम सबसे आगे आता है।
नई दिल्ली, 28 जून। देश की राजनीति में पीवी नरसिम्हा राव को हमेशा एक कद्दावर कांग्रेसी नेता के रूप में देखा जाता रहा है। देश के दसवें प्रधानमंत्री रहे चुके राव को देश में हुए बड़े आर्थिक बदलावों का जनक भी माना जाता है। राव गिनती के उन नेताओं में थे जिन्होंने आज़ादी के पहले और बाद दोनों ही समय में देश हित के लिए काम किया। देश की अर्थव्यवस्था को वैश्वीकरण से जोड़ने वाले शुरुआती नेताओं में राव का नाम सबसे आगे आता है।
साल 1940 के आस पास आज़ादी के लिए हो रहे आंदोलनों में एक अलग ही धार थी और राव का राजनीतिक जीवन बस शुरू ही हुआ था। उस समय हैदराबाद में निज़ाम का शासन था और राव ने उसके विरुद्ध एक तरफ़ा लड़ाई लड़ी। ऐसा माना जाता है कि जब देश 15 अगस्त 1947 को आजादी की ख़ुशी मना रहा था तब राव निज़ाम के खिलाफ जंगल में लड़ाई लड़ रहे थे।
इंदिरा गांधी के प्रबल समर्थक माने जाने वाले राव पचास से सत्तर के दशक के बीच आंध्र प्रदेश विधानसभा का हिस्सा रहे। इस बीच साल 1971 से 1973 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के पीछे तमाम वजहें बताई जाती हैं। उन तमाम वजहों में से एक वजह साल 1957 में आंध्र प्रदेश की खम्मम सीट से चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची ‘लक्ष्मी कांतम्मा’ थीं। ठीक इसी साल राव भी प्रदेश की मंथनी सीट से चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे और यहीं से दोनों ने एक दूसरे को समझना शुरु किया।
राव का प्रदर्शन आंध्र प्रदेश प्रदेश की राजनीति में प्रभावशाली था जिसकी वजह से दिल्ली की राजनीति के दरवाज़े भी उनके लिए जल्द ही खुल गए। इस दौरान लक्ष्मी से उनकी नजदीकियां बढ़ती ही रहीं, 1962 के लोकसभा चुनावों में लक्ष्मी को जीत दिलाने में राव ने खूब मेहनत की।
अपनी कुशल नेतृत्व क्षमता के चलते राव पहली पीढ़ी नेहरु और दूसरी पीढ़ी इंदिरा दोनों के ही प्रिय थे। उसका ही नतीजा था कि इंन्दिरा गांधी ने 1970 में प्रधानमंत्री बनते ही नरसिम्हा राव को आंध्र प्रदेश की कमान सौंप दी। यह आश्चर्जनक था कि राव का विवाह दस वर्ष की उम्र में हो गया था और उनके तीन बेटे और पांच बेटियाँ थीं इसके बावजूद लक्ष्मी उनके जीवन में अच्छा खासा महत्त्व रखने लगी थीं। दोनों का प्रयास रहता था कि उनसे जुड़ी बातें राजनैतिक गलियारों से होकर ना गुज़रें लेकिन ऐसा बहुत समय तक हो नहीं पाया।
अब तक सब ठीक था कि साल 1975 में इंदिरा सरकार ने देश पर आपातकाल लागू कर दिया था और लक्ष्मी ने इंदिरा और आपातकाल दोनों का भरपूर विरोध किया। ऐसे कठिन हालातों में राव ने राजधर्म को तरजीह दी और इंदिरा सरकार के पक्ष में खड़े नज़र आए। साल 1977 में आपातकाल हटने के बाद राव और लक्ष्मी के रास्ते पूरी तरह अलग हो चुके थे।
नब्बे के दशक की शुरुआत में लक्ष्मी साद्धवी बन गईं और राव का मन भी राजनीति में नहीं लगता था लेकिन एक बार फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी वजह से उनकी राजनीतिक भूमिकाओं ने फिर आकार लेना शुरु कर दिया। साल 1991 मे राजीव गांधी की बम धमाके में हत्या होने के बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने एक बार फिर सत्ता कांग्रेस को सौंप दी। उस समय कांग्रेस के पास राव से बेहतर और कोई विकल्प नहीं था। नतीजतन राव देश के दसवें प्रधानमंत्री चुने गए।
17 भाषाओं के जानकार राव को निर्णय लेने वाला नेता कहा जाता था, बाबरी मस्जिद विध्वंस भी इनके प्रधानमंत्री रहते ही हुआ। देश में आर्थिक सुधारों के अगुआ की कहानी में इतने रंग हो सकते हैं ऐसा कम ही लोग मानते हैं लेकिन सच यही है कि अब भी ऐसी बहुत सी कहानियां हैं जिनसे आम जनता पूरी तरह अनजान है। शायद उन राजनीतिक कहानियों से कभी पर्दा उठे।
रिपोर्ट: विभव देव शुक्ला