मुंबई की राजनीति-6: सबके चहेते बन गए उत्तर भारतीय

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: September 17, 2019 06:30 PM2019-09-17T18:30:31+5:302019-09-17T18:30:31+5:30

मुंबई में शिवसेना तथा भाजपा के उत्तर भारतीय प्रेम से कांग्रेस ने अब तक सबक नहीं सीखा, लेकिन राज ठाकरे वास्तविकता को जल्दी ही समझ गए. अपना राजनीतिक वजूद बचाने उन्होंने मुंबई में उत्तर भारतीयों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया.

Electoral politics of Mumbai-5: North Indians became the favorites of all In mumbai | मुंबई की राजनीति-6: सबके चहेते बन गए उत्तर भारतीय

मुंबई की राजनीति-6: सबके चहेते बन गए उत्तर भारतीय

Highlights2008 में मुंबई में परीक्षा देने आए उत्तर प्रदेश तथा बिहार के युवकों पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भीषण  हमला किया. . शिवसेना ने हिंदीभाषियों के समर्थन या विरोध में कुछ नहीं कहा मगर राज ठाकरे का साथ भी नहीं दिया.

हर्षवर्धन आर्य

पिछली सदी का अंतिम दशक राजनीतिक दृष्टि से बेहद उथल-पुथल भरा रहा. राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद, लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्र, आरक्षण जैसे मसलों ने देश की राजनीति की धारा ही बदल दी. मुंबई की राजनीति पर भी इसका गहरा असर पड़ा. भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की विचारधारा हिंदुत्व की पैरोकार है. इसीलिए दोनों का एक साथ आना स्वाभाविक था. 1990 के बाद से मुंबई की राजनीति देश के अन्य राज्यों की तरह हिंदुत्व के  इर्द-गिर्द घूमने लगी.

शिवसेना को जल्दी ही समझ में आ गया  कि ‘भैया’  लोगों का विरोध कर वह एक छोटे से हिस्से तक ही सिमट कर रह सकती है. हिंदुत्व का राग उसका प्रभावक्षेत्र बढ़ा सकता है. अयोध्या विवाद के सहारे भाजपा भी हिंदुत्व को हवा दे रही थी. इससे मुंबई की ‘भैया’ वालों की राजनीति से शिवसेना का ध्यान थोड़ा हटने लगा.

उसने भाजपा से हाथ मिला लिया और 1989 के लोकसभा चुनाव में उसने महाराष्ट्र में चार लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया. इनमें मुंबई की दो सीटें शामिल थीं. 1989 में केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता से त्रस्त होकर 1990 के  विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र में कांग्रेस फिर सत्ता में आई लेकिन शिवसेना ने 52 सीटें जीतकर शानदार प्रदर्शन किया. भाजपा के खाते में 42 सीटें आईं. शिवसेना का प्रदर्शन मुंबई में जबर्दस्त रहा. उसने भाजपा के साथ मिलकर कांग्रेस के हिंदीभाषी वोटों को भी हिंदुत्व के नाम पर प्रभावित किया. भाजपा का साथ मिलने के कारण शिवसेना को गुजरातियों के वोट भी मिले.

इन सबके बीच युवा मराठियों को अपनी ओर आकर्षित रखने के लिए शिवसेना उत्तर भारतीयों का विरोध करती रही. उसने उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ-साथ बिहारियों को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया. शिवसेना ने उन्हें मुंबई  से चले जाने तक की चेतावनी दी. मगर शिवसेना बीच-बीच में हिंदीभाषियों के प्रति नरमी भी दिखाती रही. बालासाहब ठाकरे के सुर बदले तथा उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि मुंबई में पीढ़ियों से रहने वाले तथा मराठी बोलने वाले उत्तर भारतीयों से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. भाजपा-शिवसेना गठबंधन की स्थिरता के लिए भी उत्तर भारतीयों को जोड़ना आवश्यक था.

बीच-बीच में हिंदीभाषियों के प्रति उग्र तेवर दिखाने के बावजूद 1990 के बाद शिवसेना की पूरी राजनीति भाजपा की तरह हिंदुत्व पर केंद्रित हो गई. उसने मुंबई में उग्र हिंदुत्व की राह पकड़ी. भाषा की राजनीति मुंबई में धर्म की राह पर चल पड़ी. धर्म के नाम पर मतदान करने की अपील के चलते शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे को 11 दिसंबर 1999 से 10 दिसंबर 2005 तक तत्कालीन केंद्र सरकार ने मताधिकार से वंचित कर दिया. 2002 में बालासाहब ने पाकिस्तान परस्त आतंकियों के विरुद्ध हिंदू आत्मघाती दस्ता बनाने का आह्वान किया. 2007 में उन्होंने धर्म के नाम पर फिर भड़काऊ भाषण देकर कानूनी कार्रवाई को न्यौता दिया.

धर्म को राजनीति का हथियार बनाकर शिवसेना फायदे में रही. भाजपा से गठबंधन ने उसे मुंबई में सबसे ज्यादा ताकत दी.  मुंबई में हिंदी और गुजराती वोट बैंक का झुकाव तेजी से भाजपा की ओर होने लगा. शिवसेना को भी इसका फायदा हुआ. 1995 के चुनाव में शिवसेना ने 73 तथा भाजपा ने 65 सीटें जीतकर  महाराष्ट्र की सत्ता पर पहली बार कब्जा कर लिया. कांग्रेस को सिर्फ 80 सीटें मिलीं.

कांग्रेस को मुंबई में सबसे बड़ा झटका  लगा जबकि 1991 में मुंबई की छह में से चार सीटें कांग्रेस के पास थीं मगर बाबरी ध्वंस तथा 1992 के मुंबई के दंगों ने हिंदुओं के बीच भाजपा और शिवसेना की जड़ें मजबूत कर दीं. वामपंथी और समाजवादी मुंबई की राजनीति से मिटते चले गए.

1999, 2004 तथा 2009 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने उत्तर भारतीयों के विरुद्ध तेवर एकदम नरम कर दिए. इन तीन चुनावों में भगवा गठबंधन हारा जरूर मगर मुंबई पर उसकी पकड़ कम नहीं हुई. मुंबई महानगरपालिका पर शिवसेना काबिज रही ओर कांग्रेस हाशिए पर जाती रही. 2006 में उग्र भाषाई  राजनीति के दम पर राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया और  2009 के  विधानसभा चुनाव में उसे 13 सीटों के साथ सफलता भी मिली.  राज का उत्तर भारतीय विरोध ज्यादा दिन नहीं टिका.

2008 में मुंबई में परीक्षा देने आए उत्तर प्रदेश तथा बिहार के युवकों पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भीषण  हमला किया. शिवसेना ने हिंदीभाषियों के समर्थन या विरोध में कुछ नहीं कहा मगर राज ठाकरे का साथ भी नहीं दिया. भाषायी नफरत की राजनीति के चलते राजनीतिक पटल से मनसे ओझल होने लगी.

दूसरी ओर 2014 का लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव आते-आते मुंबई की राजनीति में कांग्रेस सिर्फ दलितों तथा मुसलमानों के वोटबैंक तक सिमट गई. उसमें भी बसपा तथा सपा ने सेंध लगा दी. दूसरी ओर हिंदी भाषियों के प्रति उदार रवैया अपनाने तथा हिंदुत्व की राजनीति तथा भाजपा से युति के चलते शिवसेना की हिंदी वोटबैंक में भी पैठ होने लगी. जो शिवसेना कभी हिंदीभाषी विरोध की राजनीति करती थी, अब वह उन्हें गले लगाने लगी. कांग्रेस की कथित धर्मनिरपेक्षता उसे हाशिए पर ले आई.

राज ठाकरे ने बढ़ाया उत्तर भारतीयों की ओर दोस्ती का हाथ  

मुंबई में शिवसेना तथा भाजपा के उत्तर भारतीय प्रेम से कांग्रेस ने अब तक सबक नहीं सीखा, लेकिन राज ठाकरे वास्तविकता को जल्दी ही समझ गए. अपना राजनीतिक वजूद बचाने उन्होंने मुंबई में उत्तर भारतीयों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. पिछले साल राज ठाकरे मुंबई में उत्तर भारतीय महापंचायत में गए. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी उत्तर भारतीय नेताओं से संबंध बढ़ाने में पीछे नहीं रहे.

मुंबई में इस वक्त 28 लाख उत्तर भारतीय तथा बिहारी वोटर हैं. किसी भी पार्टी के लिए उनकी उपेक्षा करना संभव नहीं है. बालासाहब के देहांत के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव भी इस तथ्य को जानते हैं. भाजपा तो शुरू से हिंदी वोटबैंक में पैठ बना रही थी. आज हालत यह है कि मुंबई का 80 प्रतिशत से ज्यादा वोट बैंक भाजपा के साथ है और उसका फायदा शिवसेना को मिल रहा है. आज मुंबई के उत्तर भारतीय सभी राजनीतिक दलों के चहेते बन गए हैं. शायद ही अब कोई भी पार्टी उनके विरोध को अपना राजनीतिक हथियार बनाए.

Web Title: Electoral politics of Mumbai-5: North Indians became the favorites of all In mumbai

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