आजीवन कारावास को सश्रम आजीवन कारावास माना जाए या नहीं, इस पर फिर से विचार नहीं करेंगे : न्यायालय

By भाषा | Published: September 14, 2021 09:02 PM2021-09-14T21:02:11+5:302021-09-14T21:02:11+5:30

Won't reconsider whether life imprisonment should be treated as rigorous life imprisonment: Court | आजीवन कारावास को सश्रम आजीवन कारावास माना जाए या नहीं, इस पर फिर से विचार नहीं करेंगे : न्यायालय

आजीवन कारावास को सश्रम आजीवन कारावास माना जाए या नहीं, इस पर फिर से विचार नहीं करेंगे : न्यायालय

नयी दिल्ली, 14 सितंबर उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को इस बहस पर विचार करने से इंकार कर दिया कि आजीवन कारावास की सजा को सश्रम आजीवन कारावास माना जाए या नहीं। अदालत ने कहा कि इसने विभिन्न फैसलों में इस बारे में निर्णय किए हैं, जिसमें एक मामला महात्मा गांधी की हत्या के मामले में नाथूराम गोडसे के छोटे भाई की सजा से जुड़ा हुआ है।

न्यायमूर्ति एल. एन. राव और न्यायमूर्ति बी. आर. गवई की पीठ ने हत्या के अलग-अलग मामलों में दोषी ठहराए गए दो लोगों की अलग अपील पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया। याचिकाओं में सवाल उठाए गए थे कि क्या उन्हें मिली आजीवन कारावास की सजा को सश्रम आजीवन कारावास माना जाएगा।

पीठ ने कहा, ‘‘इन विशेष अनुमति याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों पर इस अदालत के पहले के फैसलों को देखते हुए इस पर फिर से विचार करने की जरूरत नहीं है।’’

शीर्ष अदालत ने कहा कि 1985 के नायब सिंह बनाम पंजाब के मामले में इस अदालत ने पहले के फैसलों पर भरोसा किया जिनमें 1945 का पंडित किशोरी लाल बनाम किंग इम्पेरर का प्रिवी काउंसिल मामला और 1961 का गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र का मामला भी शामिल है। 1985 के नायब सिंह बनाम पंजाब का मामला कानून के इसी सवाल से जुड़ा हुआ है।

गोपाल विनायक गोडसे, नाथू राम गोडसे का छोटा भाई था और महात्मा गांधी की हत्या में भूमिका के लिए 1949 में उसे सजा सुनाई गई थी और उसे आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।

उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद अलफाज अली की अपील को खारिज कर दिया जिसे भादंसं की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया और सश्रम आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

दोषी ठहराने एवं सजा सुनाए जाने के खिलाफ उसकी अपील को 2016 में गौहाटी उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, जिसके बाद उसने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

शीर्ष न्यायालय ने राकेश कुमार की तरफ से दायर एक अन्य अपील को खारिज कर दिया, जिसने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने भादंसं की धारा 302 के तहत उसे दोषी ठहराने एवं सजा दिए जाने को बरकरार रखा था।

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Web Title: Won't reconsider whether life imprisonment should be treated as rigorous life imprisonment: Court

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