जम्मू-कश्मीर: त्रासदी! वितस्ता की जयंती मनाने और क्षीर भवानी में मत्था टेकने वाले कश्मीरी पंडित आज भी प्रशासन के लिए 'टूरिस्ट'
By सुरेश एस डुग्गर | Published: September 20, 2021 03:58 PM2021-09-20T15:58:35+5:302021-09-20T16:00:48+5:30
कश्मीरी पंडित हर साल पर्यटक बन ही त्योहारों के मौकों पर रस्में निभाने आते हैं। अब धारा 370 हट जाने के बाद भी अभी उनकी स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ है।
जम्मू: यह एक कड़वी सच्चाई है कि धारा 370 की समाप्ति के बावजूद वितस्ता अर्थात झेलम नदी की जयंती मनाने और क्षीर भवानी में मत्था टेकने वाले कश्मीरी पंडितों को अभी भी प्रशासन टूरिस्ट मान रहा है।
इन रस्मों और त्योहारों को मनाने वाले कश्मीरी पंडित हर साल पर्यटक बन कर ही आते हैं और अब धारा 370 हट जाने के बाद भी अभी भी उन्हें कोई ऐसी उम्मीद नहीं है कि वे अपनी जन्मभूमि के वाशिंदे बन कर यह सब कर पाएंगें क्योंकि दहशत का माहौल कायम है।
पनुन कश्मीर के अध्यक्ष डा. अजय चुरुंगु कहते थे कि वितस्ता न होती तो कश्मीर कश्मीर न होता, यह एक रेगिस्तान होता, बंजर होता। कश्मीर अगर स्वर्ग है, कश्मीर की जमीन अगर उपजाऊ है तो उसके लिए वितस्ता ही जिम्मेदार है। वितस्ता ही कश्मीर का कल्याण करने वाली है।
यूं तो उनकी इन रस्मों और त्यौहारों को कामयाब बनाने में तत्कालीन राज्य सरकारों की अहम भूमिका रही थी पर वह भी अभी भी कश्मीरी पंडितों को कश्मीर के लिए ‘पर्यटक’ ही मानती रही है। अगर ऐसा न होता तो कश्मीरी बच्चों को वादी की सैर पर भिजवाने का कार्य सेना क्यों करती और कश्मीर आने वाले पर्यटकों की संख्या में कश्मीरी पंडितों की संख्या को नहीं जोड़ा जाता।
कश्मीर में आने वाले पर्यटकों की संख्या में अगर पिछले कुछ सालों तक राज्य प्रशासन अमरनाथ श्रद्धालुओं को भी गिनता रहा है तो कुछ खास त्यौहारों पर कश्मीर आए कश्मीरी पंडितों और विभिन्न सुरक्षाबलों द्वारा वादी की सैर पर भिजवाए गए उनके बच्चों की संख्या का रिकॉर्ड बतौर पर्यटक ही रखा गया है।
इससे कश्मीरी पंडित नाराज भी नहीं हैं क्योंकि वे अपने पलायन के इन 30 सालों के अरसे में जितनी बार कश्मीर गए 3 से 4 दिनों तक ही वहां टिके रहे। कारण जो भी रहे हों वे कश्मीर के वाशिंदे इसलिए भी नहीं गिने गए क्योंकि कश्मीर के प्रवास के दौरान या तो वे होटलों में रहे या फिर अपने कुछ मुस्लिम मित्रों के संग।
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू के अनुसार वितस्ता जो आगे जाकर दरिया चिनाब में शामिल हो जाती है, तभी से है जब से कश्मीर और कश्मीरी पंडित हैं। वितस्ता, को हम वेयथ भी पुकारते हैं। यह सिर्फ एक नदी नहीं है, यह हम कश्मीरी पंडितों की आत्मा है, यह हमारे अस्तित्व का एक हिस्सा है। यह कश्मीर की संस्कृति और सभ्यता का जननी है।
वैसे सरकारी तौर पर कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में लौटाने के प्रयास जारी हैं। 32 सालों में 1200 के लगभग कश्मीरी पंडितों के परिवार कश्मीर वापस लौटे भी हैं पर वे सभी सरकारी नौकरी के लिए ही आए थे।