लोगों की नाराजगी को कम करने के लिए भाजपा ने शुरू की सामाजिक समीकरण की कवायद : संजय कुमार

By भाषा | Published: June 13, 2021 03:28 PM2021-06-13T15:28:06+5:302021-06-13T15:28:06+5:30

To reduce the displeasure of the people, BJP started the exercise of social equation: Sanjay Kumar | लोगों की नाराजगी को कम करने के लिए भाजपा ने शुरू की सामाजिक समीकरण की कवायद : संजय कुमार

लोगों की नाराजगी को कम करने के लिए भाजपा ने शुरू की सामाजिक समीकरण की कवायद : संजय कुमार

नयी दिल्ली, 13 जून सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार का कहना है कि कोविड-19 की दूसरी लहर से लोगों में नाराजगी है और चुनावों में इसके असर को कम करने के लिए भाजपा उत्तर प्रदेश में जातीय गोलबंदी में जुट गई है। उनका कहना है कि चुनावी राजनीति में विकास ‘‘दिखाने वाले दांत’’ और जातीय समीकरण ‘‘खाने वाले दांत’’ हैं।

आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर भाजपा में लखनऊ से लेकर दिल्ली तक पिछले दिनों शीर्ष स्तर पर चली बैठकों और मुलाकातों के दौर पर जाने-माने चुनाव विश्लेषक एवं राजनीतिक पर्यवेक्षक कुमार से भाषा के पांच सवाल और उनके जवाब:

सवाल: हाल में पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद भाजपा में शामिल हुए और अमित शाह ने अपना दल (एस) नेता अनुप्रिया पटेल तथा निषाद पार्टी के नेताओं से मुलाकात की। दिल्ली में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी मुलाकातों का दौर चला। आप इन गतिविधियों को कैसे देखते हैं?

जवाब: उत्तर प्रदेश में अगले साल फरवरी में विधानसभा चुनाव होने वाला है। भाजपा ने पहले से ही चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। बहुदलीय व्यवस्था में जहां राज्य में तमाम तरह की पार्टियां हैं तो गठजोड़ होना स्वाभाविक है। मुझे लगता है कि भाजपा ने इसके मद्देनजर अपनी शुरुआत कर दी है। छोटी-छोटी पार्टियों से, जिनके साथ उसका या तो पहले गठबंधन रहा था या गठबंधन बनाने की कोशिश की जा रही है, उनसे उसने अपनी बातचीत शुरू कर दी है। यह चुनाव से पहले की तैयारी है।

सवाल: कहीं यह कवायद कोरोना वायरस संक्रमण की दूसरी लहर से पैदा हुई नाराजगी से होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई की कोशिश के तहत तो नहीं चल रही?

जवाब: इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोविड-19 की दूसरी लहर में लोगों को बड़ी त्रासदी झेलनी पड़ी और इससे जनता की नाराजगी बढ़ी है। यहां भाजपा से नाराजगी इसलिए भी ज्यादा है कि केंद्र व राज्य दोनों में उसकी ही सरकारें हैं। भाजपा भी इस बात को भलीभांति जानती है। उसके नेताओं को पता है कि वर्ष 2014, 2017 और 2019 के चुनावों के मुकाबले पार्टी का जनाधार इस बार नीचे खिसकेगा। इस खिसके हुए जनाधार को कैसे साधा जा सके, इसकी रणनीति वह बनाने में जुटी है। इसके दो-तीन तरीके हैं। नई नीतियां और योजनाएं लाई जाएं ताकि जनता को यह भरोसा हो सके कि सरकार अच्छा काम कर रही है या करने वाली है। साथ ही साथ पार्टी चाहती है कि गठजोड़ भी किया जाए जिससे समाज के अलग-अलग तबके के मतदाताओं को अपनी ओर गोलबंद किया जा सके। इसी प्रयास के तहत भाजपा छोटे दलों के साथ बातचीत कर रही है। कोशिश यही है कि अगर एक सही गठजोड़ और सामाजिक समीकरण बन जाए तो कोविड से उत्पन्न नाराजगी से संभावित नुकसान को कम किया जा सकेगा।

सवाल: आपका कहना है कि चुनावों में ‘‘विकास’’ मायने नहीं रखता, जातीय गोलबंदी मायने रखती है?

जवाब: चुनाव कई स्तरों पर लड़ा जाता है। हाथी के दांत ‘दिखाने के और’, ‘खाने के और’ होते हैं। विकास ‘‘दिखाने के दांत’’ तो है लेकिन ‘‘चबाने के दांत’’ अलग हैं और यह है गठबंधन। जातीय समीकरण बनाने के लिए छोटे-छोटे दलों के साथ गठजोड़। विकास के नाम पर चुनाव लड़ा जाता है लेकिन गठजोड़ ऐसी पार्टियों के साथ किया जाता है जिनका विकास के साथ दूर-दूर तक कोई वास्ता न हो। पार्टियों के साथ गठबंधन यही सोचकर किया जाता है कि उस पार्टी से जुड़ी हुई जातियों का वोट उसे हासिल हो सके। अपना दल की अनुप्रिया पटेल हों या निषाद पार्टी के नेता, ये कोई विकास के चैंपियन नहीं हैं लेकिन गठबंधन इसलिए किया जा रहा है कि उनके पास कुर्मी और निषाद मत हैं। भाजपा हो या कांग्रेस या दूसरे दल, गठबंधन का सिर्फ एक ही आधार है जाति समुदाय के वोटरों को अपने पक्ष में गोलबंद करना। विकास ‘‘दिखाने वाले दांत’’ और ‘‘खाने वाले दांत’’ गठजोड़ तथा जातीय समीकरण हैं। इसे एक अच्छा सा नाम दे दिया गया है ‘‘सोशल इंजीनियरिंग’’ का।

सवाल: तो क्या लग रहा है कि अब चुनाव तक उत्तर प्रदेश की कमान मोदी और शाह संभालेंगे?

जवाब: भाजपा किसी चुनाव को हल्के में नहीं लेती है। हर चुनाव में देखिए उसके सभी शीर्ष नेता पूरी ताकत झोंक देते हैं। यह जरूर है कि उत्तर प्रदेश को लेकर अचानक हलचल बढ़ गई है। योगी दिल्ली आते हैं सारे नेताओं से मुलाकात होती है। उसके पहले लखनऊ में भी कुछ गतिविधियां होती हैं। आरएसएस के कई बड़े नेता वहां बैठकें करते हैं। मौजूदा परिस्थितयों से भाजपा भली-भांति परिचित है। विपक्ष बिखरा हुआ है, इसका फायदा भाजपा को जरूर है लेकिन उसके लिए 2022 का चुनाव आसान नहीं है। इसलिए शीर्ष नेताओं को कमान संभालनी पड़ी है। वैसे तो 2024 का चुनाव अभी दूर है लेकिन भाजपा अगर उत्तर प्रदेश में चुनाव हार जाए तो आने वाले चुनावों में उसके लिए दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है और यह लोकसभा चुनाव का आगाज कराता है। भाजपा यदि यहां अपनी पकड़ बरकरार रखती है तो 2024 में उसे एक स्वाभाविक बढ़त दिखाई पड़ती है।

सवाल: हाल ही देखने को मिला कि उत्तर प्रदेश में कई पोस्टरों से मोदी और शाह या यूं कहिए कि केंद्रीय नेतृत्व गायब है। चुनावों में आप क्या संभावना देखते हैं?

जवाब: हो सकता है कि ऐसा कर पार्टी कुछ अंदाज़ लगाने की कोशिश कर रही हो लेकिन मैं नहीं मानता कि उत्तर प्रदेश के चुनाव भाजपा राज्य नेतृत्व के बल पर लड़ेगी और केंद्रीय नेतृत्व नदारद रहेगा। जब चुनाव का वक्त आएगा आप देखेंगे कि ये सभी चेहरे सामने आएंगे। रही बात चुनावी संभावनाओं की तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन कागज पर बहुत जबरदस्त दिखता है। क्योंकि सपा के साथ यादव वोट गोलबंद रहते हैं तो बसपा के साथ दलित वोट। लेकिन यह प्रयोग 2019 के चुनाव में विफल हो गया। फिलहाल, तीनों अगर साथ में मिल जाएं तो मुझे इसकी संभावना दिखाई नहीं पड़ती। कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा, मुख्यमंत्री कौन होगा, को लेकर ही मतभेद हो जाएगा। यह जरूर है कि अगर गोलबंदी हो गई और तीनों पार्टियां एक साथ मिल गईं तो भाजपा के लिए कुछ तो मुश्किल कर देंगी। लेकिन कुल मिलाकर क्या इतनी मुश्किल पैदा कर देंगी कि भाजपा चुनाव हार जाए, यह कहना थोड़ा जल्दबाजी होगा, मुझे ऐसी स्थिति होने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं पड़ती है।

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