समीक्षा: विकास की मार से त्रस्त आम भारतीयों की मार्मिक कराह है शिरीष खरे की किताब 'एक देश बारह दुनिया'

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: September 7, 2021 02:59 PM2021-09-07T14:59:04+5:302021-09-07T15:04:13+5:30

पत्रकार शिरीष खरे की नई किताब 'एक देश बारह दुनिया' इन दिनों चर्चा में है। इस किताब की समीक्षा कर रहे हैं नीरज।

shirish khare hindi book ek desh barah duniya review | समीक्षा: विकास की मार से त्रस्त आम भारतीयों की मार्मिक कराह है शिरीष खरे की किताब 'एक देश बारह दुनिया'

पत्रकार शिरीष खरे इससे पहले 'उम्मीद की पाठशाला' किताब लिख चुके हैं।

नीरज

2021 का वर्ष भारत के नागरिकों के लिए महत्त्वपूर्ण वर्ष है। इसी वर्ष भारत ने एक स्वतंत्र देश के रूप में अपनी औपनिवेशिक दासता से मिली स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे किए हैं। इस मौके पर 'राजपाल प्रकाशन' से हाल ही प्रकाशित शिरीष खरे की पुस्तक 'एक देश बारह दुनिया' समकालीन विकास के विरोधाभासों के बारे में सटीक और विस्तृत वर्णन दर्ज कराती है।  

किताब के फ्लैप पर सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हर्ष मंदर लिखते हैं, ''जब मुख्यधारा की मीडिया में अदृश्य संकटग्रस्त क्षेत्रों की जमीनी सच्चाई बताने वाले रिपोर्ताज लगभग गायब हो गए हैं तब इस पुस्तक का संबंध एक बड़ी जनसंख्या को छूते देश के उन इलाकों से है जिसमें शिरीष खरे ने विशेषकर गांवों की त्रासदी, उम्मीद और उथल-पुथल की परत-दर-परत पड़ताल की है।''

शिरीष ने पिछले करीब डेढ़ दशक के दौरान खास तौर पर ग्रामीण भारत के विभिन्न इलाकों में की गई अपनी बेतरतीब, गैर-नियोजित यात्राओं के आधार पर यह किताब लिखी है, जो यह दर्शाती है कि लेखक के भीतर किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं है, बल्कि लेखन का कारण उनके मन की आंतरिक अशांति है। वैसे भी यह अक्सर कहा जाता है कि किसी लेखक को बेचैनी की हद तक कलम नहीं उठानी चाहिए। इस पुस्तक को पढ़कर लगता है कि इसमें संकलित हर रिपोर्ताज अपनेआप में एक पीड़ा का संसार लिए हुए है, जिसे लेखक ने समय और अनुभव की आग में पकने के बाद ही पाठकों तक लाने का प्रयास किया है।

यहां संकलित रिपोर्ताजों में जनजातीय जीवन से लेकर घुमंतू, अर्ध-घुमंतू, दलित उत्पीड़न से लेकर स्त्री शोषण और जीवनदायी नदियों से लेकर अन्नदाता किसानों के दुःख-दर्दों की दास्तान को बयां किया गया है। मूलत: लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से असहाय और पीड़ित लोगों की टूटी-फूटी आवाजों को शब्दों के रूप में दर्ज किया है।

दंडकारण्य यूं ही लाल नहीं है

आदिवासी जीवन की त्रासदी से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ताज यहां दर्ज हुआ है, नाम है- 'दंडकारण्य यूं ही लाल नहीं है', जिसमें मिड-डे मिल के लिए संघर्ष, मनरेगा मजदूरी के लिए अफसरों के जुल्म, पेंशन के लिए भटकती विधवा महिलाएं, शिक्षा का अभाव, नक्सली आतंक और पुलिसिया दमन के खौफ का जीवंत वर्णन दर्ज किया गया है। लेखक लिखते हैं, ''बस्तर के लोगों का समूचा संघर्ष और टकराव मनुष्य के सांस लेते रहने और मूलभूत जीवन अधिकारों के बारे में है। सबसे अंतिम पंक्ति में धकेल दी गई जनसंख्या के बारे में है, जो संपूर्ण गरिमा के साथ अपने स्थान पर उपस्थित रहना चाहती है।''


कोई सितारा नहीं चमकता

भारत में बसने वाले असंख्य नट समुदाय तथा घुमंतू समुदाय के दुःख-दर्द को भी यहां इस पुस्तक में तीन अलग-अलग रिपोर्ताजों के साथ स्थान दिया गया है। तकनीकी के इस जमाने में जब रेडियो, टीवी और मोबाइल ने मनोरंजन के परंपरागत साधनों को लगभग निगल लिया है तब इन नट लोगों के खेलों में कौन रुचि लेगा! अत्याधुनिक साधनों के सामने इनके जादू अब फीके पड़ने लगे हैं।

एक समय ये लोग बम्बईया अभिनेताओं के लिए स्टंट करते थे। लेकिन, हीरो तो आज भी करोड़ों रुपए फीस लेकर बड़ी बजट की फिल्मों में काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ नट समुदाय और उनकी परंपरागत कला पर नए तरह के संट हावी हो रहे हैं, बल्कि आज तो उनके सामने रोजीरोटी का संकट कहीं अधिक गहराने लगा है। इसी प्रकार, घुमंतू समुदाय भी आज अपनेआप को असहाय महसूस कर रहा है। इस तरह के समुदाय से जुड़े परिवारों की विशिष्टता ही यह रही है कि कभी ये एक जगह टिककर नहीं रहे हैं।

ऐसे में जब इनसे सरकार- राशन, वोटर कार्ड, पैन, आधार कार्ड वगैरह के बारे में पूछती हैं तो इनके पास कोई जवाब नहीं होता है। जमीन की तो बात ही दूर है। यही वजह है कि तमाम सरकारों के पास न तो इनका ठीक-ठीक आंकड़ा मौजूद है और न ही इनकी समस्याओं के बारे में ही उन्हें कुछ ज्यादा पता है।

वे तुम्हारी नदी को मैदान बना देंगे

इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी उभरती हुई वैश्विक पर्यावरणीय संकट की चिंता के दौर में लेखक ने सामयिक समस्या उठाई है, उन्होंने नर्मदा नदी के अस्तित्व पर आए नए संकटों को पाठकों के सामने रखा है।

शिरीष ने नर्मदा नदी, जो सदियों से मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के लोगों की जीवनरेखा रही है; का वर्णन किया है। एक नदी जहां से गुजरती है वहां एक परिस्थितिकी तंत्र का भी निर्माण करती है, जिसमें न केवल मनुष्य बल्कि अन्य प्राणी भी रहते हैं। नदी वहां के जल, जंगल और पर्यावरणीय आदि की सेहत को भी दुरुस्त रखती है। लेकिन, यहां नर्मदा के उदाहरण से यह बताने की कोशिश गई है कि जब किसी नदी पर संकट आता है तो वह महज नदी का संकट नहीं होता है, बल्कि उसका प्रभाव बहुत व्यापक और गहरा होता है।

शिरीष बताते हैं कि वाशिंगटन डीसी की ‘वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट’ की रिपोर्ट के अनुसार, ''नर्मदा नदी विश्व की छह सबसे संकटग्रस्त नदियों में शामिल है।'' यह रिपोर्ट साफ तौर पर बताती है कि हम अपने संसाधनों को बचा पाने में किस हद तक असर्मथ हैं। इस अक्षमता और लापरवाही के कारण हैं- गैर-नियोजित विकास को बढ़ावा देना, स्थानीय लोगों के अनुकूल नीतियां न बनाना, उनकी मदद न लेना और व्यवसायिक लाभ के लिए संसाधनों का अधिकतम दोहन करना।

लेखक बताते हैं कि नर्मदा नदी को तो पहले ही बड़े बड़े बांधों से बांधकर, इसकी धारा को अवरुद्ध कर दिया गया था, जबकि इसके अलावा हाल के वर्षों में अनेक कोयले और परमाणु के बिजलीघर भी निर्मित किए जाने की तैयार की जा रही है, जो न केवल बड़ी मात्रा में नदी का पानी सोखेंगे, बल्कि साथ में हजारों टन राख भी नदी में वापस गिरा देंगे।

कुल मिलाकर, इस प्रकार के अनियोजित प्रबंधन से हम किसी भयानक हादसे की ओर बढ़ रहे हैं। नदी के अलावा पहाड़ों पर पाए जाने वाले तमाम उपयोगी पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। एक दशक पहले यहां घने जंगलों के कारण सूरज सीधे रूप में दिखाई नहीं देता था, वहीं आज अनेक पहाड़ियों से जंगलों को उजाड़कर उन्हें नंगा कर दिया गया है।

स्वाभाविक रूप से नदी और जंगल के अस्तित्व पर संकट साथ-साथ वहां के जीव-जंतुओं और बैगा जनजाति के लोगों के जीवन पर भी उनके अस्तित्व को बचाने का संकट बना हुआ है। लेखक बताते हैं कि जिन स्थानीय निवासियों को हटाया गया है उनकी दूसरे स्थान पर कोई व्यवस्था नहीं की जाती है। एक स्थान पर वे लिखते हैं, ''जिस चुटका बांध पर परमाणु बिजलीघर को बनाने की बात चल रही है वहां  बिजली नहीं पहुंची है। यहां तक कि आसपास बिजली के खंबे भी नहीं हैं। बरगी बांध के लिए अपना त्याग करने वालों के घरों में आज भी चिमनी क्यों जल रही है? यहां से समझा जा सकता है कि जो लोग बिजली के लिए कुर्बानी देने में सबसे आगे होते हैं वे किस तरह बिजली की रोशनी से बेदखल कर दिए जाते हैं।''

यात्रा के दौरान अतीत को देखने की दृष्टि

इसके अलावा यात्रा करने से जुड़े कुछ सूत्र लेखक ने दिए हैं, जिन्हें कोई भी गंभीर यात्री (महज पर्यटक या धार्मिक यात्री नहीं) अपनी यात्राओं के दौरान प्रयोग में ला सकता है। जैसे कि एक स्थान पर लेखक लिखते हैं, ''यात्रा के दौरान अतीत को देखने का दृष्टिकोण वैसा नहीं रह जाता जो उसके पहले होता है। मुझे यात्रा ने हर बार वर्तमान और भविष्य के लिए नयी दृष्टि दी है। लिखने के लिए आत्मविश्वास दिया है। व्यक्तित्व को नयी ताजगी और ताकत दी है। मन को और अधिक संवेदनशील बनाया है। कल्पनाओं में यथार्थ के रंग भरने में मदद की है। यात्रा बोरियत मिटाने की मंशा भर नहीं होती। यात्रा कुछ जानने की जिज्ञासा से शुरू होती है।''

ऐसे सूत्रों का ही परिणाम है कि लेखक ने जहां भी, जिस भी स्थान का वर्णन अपने रिपोर्ताजों में किया है वहां का पूरा परिदृश्य पाठक की आंखों में तैरने लगता है। यदि कहीं नदी का वर्णन आता है तो पाठक के मन के किसी कोने में एक नदी बहने लगती है। पहाड़ की बात आती है तो पाठक के मन में पहाड़ी रम्यता आकार लेने लगती है, बांध का जिक्र होता है तो उसकी विशालता और भयावहता सामने मंडराने लगती है और यदि किसी दुखी व्यक्ति की पीड़ा का चित्रण होता है तो उसकी उम्मीद भरी आंखें पाठक से बहुत कुछ कहने लगती हैं। इस तरह शिरीष खरे की यह पुस्तक भारत के अनेक समुदायों के दुःख-दर्दों को उनकी संपूर्ण जीवंतता के साथ पाठकों के समक्ष रखती है।

पुस्तक: एक देश बारह दुनिया
लेखक: शिरीष खरे
विधा: रिपोर्ताज (समाज व संस्कृति)
प्रकाशक: राजपाल एंड संस, नई-दिल्ली
पृष्ठ: 208 पेपरबैक

(नीरज दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में हिन्दी साहित्य के शोधार्थी हैं और यात्रा-साहित्य पर पीएचडी कर रहे हैं। संपर्क: neerajkr520@gmail.com)

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