लॉकडाउन के बीच यूपी के संतोष साव कोलकाता में चला रहे रिक्शा, कमाई न होने के बाद भी नहीं मांग रहे पैसे
By भाषा | Published: May 26, 2020 05:22 PM2020-05-26T17:22:43+5:302020-05-26T17:22:43+5:30
कोलकाता की सूनी सड़कों और गलियों में रिक्शा चलाकर संतोष साव रोजाना 50 रूपये भी कमा नहीं पा रहे हैं, लेकिन लॉकडाउन के दौरान वो किसी से उसे मुफ्त का 100 रूपये लेना भी कतई मंजूर नहीं है।
कोलकाता: लॉकडाउन के दौरान कोलकाता की सूनी सड़कों और गलियों में रिक्शा चलाकर संतोष साव भले 50 रूपये रोजाना नहीं कमा पाता है लेकिन उसे मुफ्त का 100 रूपये लेना भी कतई मंजूर नहीं है। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के निवासी 45 वर्षीय इस शख्स के लिए जिंदगी कभी आसान नहीं थी। लेकिन सतत लॉकडाउन और पश्चिम बंगाल में आये विनाशकारी तूफान ने उसे और कठिन बना दिया। लेकिन वह जब कभी अपने ग्राहकों को उनके गंतव्य तक पहुंचाता है तब मेहनत पर उसका गर्व यूं ही दिखता है।
जब वह कमारहाट- अगरपारा-बेलघरिया इलाके की गलियों से तेज गति से रिक्शा चलाकर ले जाती है, तो उसकी मांपेशियां उभरकर सामने आ जाती है। शाह अगरपारा की नया बस्ती में पत्नी और 12 साल के बेटे के साथ रहता है लेकिन इन दिनों उसकी चिंता और बढ़ गयी है क्योंकि तूफान में उसके घर का एस्बेस्ट का छप्पर उड़ गया।
उसने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘उड़ गये छप्पर की जगह पर पिछले चार दिनों से प्लास्टिक की चादर और बांस का मचान डालकर काम चल रहा है। लेकिन यह कबतक? यदि एक और तूफान आ गया तो क्या होगा? पहले लॉकडाउन और अब यह। तीन महीने पहले जिंदगी इतनी बुरी नहीं थी।’’
इस संवाददाता ने वर्षों से संतोष को देखा है लेकिन कभी उससे नाम नहीं पूछा। बस सिर हिला-डुलाकर काम चल जाता था। लेकिन लॉकडाउन के साथ काफी वक्त मिला और दोनों ने बातचीत की। शाह ने कहा, ‘‘ दादा, यह बहुत, बहुत मुश्किल दौर है। लॉकडाउन से पहले हम ठीक-ठाक कमा लेते थे, रोजाना 300-400 रूपये, कभी कभी तो पांच रूपये तक कमा लेते थे। मैं वर्षा के दौरान आप जैसे लोगों की मदद कर कुछ अतिरिक्त कमा लेता था।’’
उसने अपने आंसू पर काबू पाने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘लेकिन लॉकडाउन के दौरान चीजें बदल गयी हैं। पुलिस ने मुझे एक बार डंडा मारा था। आवासीय परिसरों पर तैनात गार्डों ने मुझे खदेड़ा भी। मुझे ज्वर नहीं है। गरीबों के पास तो ज्वर भी नहीं फटकता... वे भूख से मरते हैं।’’ उसने कहा कि पिछले पखवाड़े पुलिस का मनमानापण थोड़ा घटा है। इसी के साथ उसने अपना हाथ अपनी पैंट की जेब में डाला और उसमें से दस रूपये के तीन सिक्के और कुछ खुले पैसे निकले। उसने सिक्के रखते हुए कहा कहा कि तूफान ने यही मेरे साथ किया। लेकिन उसने इस संवाददाता द्वारा पैसे देने की पेशकश ठुकरा दी।
संतोष ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ मैं कोई भिखारी नहीं। आप बताइए कि मैं कहीं .......श्यामबाजार, बैरकपुर, सोदपुर आपको पहुंचा दूं, जहां भी आप कहें और तब फिर आप मुझे उसका भुगतान कर दें।’’ उसने दावा किया कि उसे पिछले दो महीने में वादे के हिसाब से सरकार से पांच किलोग्राम चावल और दाल का एक दाना भी नहीं मिला।
संतोष ने कहा, ‘‘ एक महीने पहले मुझे बेलघरिया रथतला में (एनजीओ के) लोगों से 10 किलोग्राम चावल, आलू और साबुन मिले थे। कुछ दिनों तक मेरी पत्नी ने उससे खाना पकाया और हमने खाया। अब मैं बस उन्हीं दिन राशन और किराने का सामना खरीद पाता हूं जब मैं 200 रूपये कमाता हूं जो बिरले ही होता है।’’