राजस्थान में फिर उठी सचिन पायलट को सीएम बनाने की मांग, गहलोत-पायलट समर्थक सक्रिय हुए
By प्रदीप द्विवेदी | Published: June 11, 2019 07:49 AM2019-06-11T07:49:26+5:302019-06-11T07:50:03+5:30
सचिन पायलट अपना राजनीतिक आधार मजबूत करने में लगे हैं, जबकि उनके समर्थक निरंतर उन्हें सीएम बनाने के लिए सियासी दबाव बना रहे हैं.
10 जून लोकसभा चुनाव के बाद से राजस्थान की राजनीति करवट बदल रही है. लगता है प्रदेश में एक बार फिर जोशी-माथुर सियासी समय लौट आया है. पिछले दो दशक से प्रदेश में कांग्रेस में सीएम अशोक गहलोत और भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का एकछत्र राज रहा है, लेकिन अब सियासी हालात बदल रहे हैं.
जहां भाजपा में राजे के बजाए राज्यवर्धन सिंह राठौड़ जैसे किसी और नेता को आगे बढ़ाने की संभावना है, वहीं कांग्रेस में सचिन पायलट के समर्थक ऐसा राजनीतिक अवसर गंवाना नहीं चाहते हैं और इसीलिए अशोक गहलोत की जगह सचिन पायलट को सीएम बनाने के स्वर बुलंद कर रहे हैं. राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सियासी तूफान थमने का इंतजार कर रहे हैं और दिल्ली में लगातार कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकातें कर रहे हैं.
उधर, सचिन पायलट अपना राजनीतिक आधार मजबूत करने में लगे हैं, जबकि उनके समर्थक निरंतर उन्हें सीएम बनाने के लिए सियासी दबाव बना रहे हैं. प्र्रदेश में गहलोत और पायलट समर्थकों के बीच एक-दूसरे पक्ष के खिलाफ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष गतिविधियां, बयानबाजी जारी है. कांग्रेस के ही एमएलए पी.आर. मीणा ने अनुशासन की रेखा लांघते हुए पायलट को मुख्यमंत्री बनाने तक का बयान दे डाला था, जबकि राज्य के दो मंत्रियों, रमेश मीणा और उदय लाल अंजाना ने भी कहा था कि राजस्थान में हार के पीछे जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए.
जोशी-माथुर का सियासी समयचक्र लौटा
इस वक्त प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी और शिवचरण माथुर का सियासी समयचक्र लौट आया है, जब हरिदेव जोशी को हटा कर शिवचरण माथुर को, तो माथुर को हटा कर फिर से जोशी को सीएम बनाया गया था. लेकिन, तब केंद्र में कांग्रेस का नेतृत्व सशक्त था, लिहाजा सारी राजनीतिक गतिविधियां पार्टी के भीतर ही चलती रही थी. अब राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, कहना मुश्किल है.
गुटबाजी से होगा नुकसान :
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश में तत्काल कोई परिवर्तन किया जाता है तो नेताओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं तो पूरी हो सकती हैं, किंतु कांग्रेस को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है, क्योंकि कुछ समय बाद ही पंचायत, स्थानीय निकाय आदि के चुनाव हैं. यदि गुटबाजी जारी रही तो लोकसभा चुनाव की तरह, ये चुनाव भी कांग्रेस के हाथ से निकल जाएंगे.