अज्ञेय के जन्मदिन पर पढ़ें उनका आत्मकथात्मक लेख- ‘अज्ञेय’: अपनी निगाह में

By अज्ञेय | Published: March 7, 2020 12:21 PM2020-03-07T12:21:42+5:302020-03-07T12:21:42+5:30

आज (7 मार्च) को हिन्दी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर अज्ञेय की जयंती है। साहित्य अकादमी पुरस्कार (1964) और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अज्ञेय को 'शेखर एक जीवनी', नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी, अरे यायावर रेहगा याद, एक बूँद सहसा उछली, स्मृति लेखा, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, कितनी नावों में कितनी बार और तार सप्तक इत्यादि रचनाओं के लिए याद किया जाता है। अज्ञेय का ख़ुद पर लिखा यह लेख हम 'हिन्दी समय' से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं।

Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya birth anniversary and autobiographical article | अज्ञेय के जन्मदिन पर पढ़ें उनका आत्मकथात्मक लेख- ‘अज्ञेय’: अपनी निगाह में

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायायन को अज्ञेय नाम कथा सम्राट प्रेमचंद ने दिया था। (photo- public domain)

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कृतिकार की निगाह नहीं होती, यह तो नहीं कहूँगा। पर यह असंदिग्ध है कि वह निगाह एक नहीं होती। एक निगाह से देखना कलाकार की निगाह से देखना नहीं है। स्थिर, परिवर्तनहीन दृष्टि सिद्घांतवादी की हो सकती है, सुधारक-प्रचारक की हो सकती है और- भारतीय विश्वविद्यालयों के संदर्भ में-अध्यापक की भी हो सकती है, पर वैसी दृष्टि रचनाशील प्रतिभा की दृष्टि नहीं है।

'अज्ञेय' : अपनी निगाह में इस शीर्षक के नीचे यहाँ जो कुछ कहा जा रहा है उसे इसलिए ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह स्थिर उत्तर नहीं है। यह भी हो सकता है कि उसके छपते-छपते उससे भिन्न कुछ कहना उचित और सही जान पड़ने लगे। चालू मुहावरे में कहा जाए कि यह केवल आज का, इस समय का कोटेशन है। कल को अगर बदला जाए तो यह न समझना होगा कि अपनी बात का खंडन किया जा रहा है, केवल यही समझना होगा कि वह कल का कोटेशन है जो कि आज से भिन्न है।

फिर यह भी है कि कलाकार की निगाह अपने पर टिकती भी नहीं। क्यों टिके? दुनिया में इतना कुछ देखने को पड़ा है : 'क्षण-क्षण परिवर्तित प्रकृतिवेश' जिसे 'उसने आँख भर देखा।' इसे देखने से उसको इतना अवकाश कहाँ कि वह निगाह अपनी ओर मोड़े। वह तो जितना कुछ देखता है उससे भी आगे बढ़ने की विवशता में देता है 'मन को दिलासा, पुन: आऊँगा-भले ही बरस दिन अनगिन युगों के बाद!'

कलाकार की निगाह, अगर वह निगाह है और कलाकार की है तो, सर्वदा सब-कुछ की ओर लगी रहती है। अपने पर टिकने का अवकाश उसे नहीं रहता। नि:संदेह ऐसे बहुत-से कलाकार पड़े हैं, जिन्होंने अपने को देखा है, अपने बारे में लिखा है। अपने बारे में लिखना तो आजकल का एक रोग है। बल्कि यह रोग इतना व्यापक है कि जिसे यह नहीं है वही मानो बेचैन हो उठता है कि मैं कहीं अस्वस्थ तो नहीं हूँ? लेखकों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने केवल अपने बारे में लिखा है-जिन्होंने अपने सिवा कुछ देखा ही नहीं है। लेकिन सरसरी तौर पर अपने बारे में लिखा हुआ सब-कुछ एक ही मानदंड से नहीं नापा जा सकता, उसमें कई कोटियाँ हैं। क्योंकि देखनेवाली निगाह भी कई कोटियों की हैं। आत्म-चर्चा करनेवाले कुछ लोग तो ऐसे हैं कि निज की निगाह कलाकार की नहीं, व्यवसायी की निगाह है। यों आजकल सभी कलाकार न्यूनाधिक मात्रा में व्यवसायी हैं; आत्म-चर्चा आत्म-पोषण का साधन है इसलिए आत्म-रक्षा का एक रूप है। कुछ ऐसे भी होंगे जो कलाकार तो हैं लेकिन वास्तव में आत्म-मुग्ध हैं-नार्सिसस-गोत्रीय कलाकार! लेकिन अपने बारे में लिखनेवालों में एक वर्ग ऐसों का भी है जो कि वास्तव में अपने बारे में नहीं लिखते हैं-अपने को माध्यम बनाकर संसार के बारे में लिखते हैं। इस कोटि के कलाकार की जागरूकता का ही एक पक्ष यह है कि यह निरंतर अपने देखने को ही देखता चलता है, अनवरत अपने संवेदन के खरेपन की कसौटी करता चलता है। जिस भाव-यंत्र के सहारे वह दुनिया पर और दुनिया उस पर घटित होती रहती है, उस यंत्र की ग्रहणशीलता का वह बराबर परीक्षण करता रहता है। भाव-यंत्र का ऐसा परीक्षण एक सीमा तक किसी भी युग में आवश्यक रहा होगा, लेकिन आज के युग में वह एक अनिवार्य कर्तव्य हो गया है।

तो अपनी निगाह में अज्ञेय। यानी आज का अज्ञेय ही। लिखने के समय की निगाह में वह लिखता हुआ अज्ञेय। बस इतना ही और उतने समय का ही।

अज्ञेय बड़ा संकोची और समाजभीरु है। इसके दो पक्ष हैं। समाजभीरु तो इतना है कि कभी-कभी दुकान में कुछ चीज़ें खरीदने के लिए घुसकर भी उलटे-पाँव लौट आता है क्योंकि खरीददारी के लिए दुकानदार से बातें करनी पडेंग़ी। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसके मूल में निजीपन की तीव्र भावना है, वह जिसे अँग्रेज़ी में सेंस ऑफ़ प्राइवेसी कहते हैं। किन चीजों को अपने तक, या अपनों तक ही सीमित रखना चाहिए, इसके बारे में अज्ञेय की सबसे बड़ी स्पष्ट और दृढ़ धारणाएँ हैं। और इनमें से बहुत-सी लोगों की साधारण मान्यताओं से भिन्न हैं। यह भेद एक हद तक तो अँग्रेज़ी साहित्य के परिचय की राह से समझा जा सकता है: उस साहित्य में इसे चारित्रिक गुण माना गया है। मनोवेगों को अधिक मुखर न होने दिया जाए, निजी अनुभूतियों के निजीपन को अक्षुण्ण रखा जाए : 'प्राइवेट फ़ेसेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़'। लेकिन इस निरोध अथवा संयमन के अलावा भी कुछ बातें हैं। एक सीमा है जिसके आगे अज्ञेय अस्पृश्य रहना ही पसंद करता है। जैसे कि एक सीमा से आगे वह दूसरों के जीवन में प्रवेश या हस्तक्षेप नहीं करता है। इस तरह का अधिकार वह बहुत थोड़े लोगों से चाहता है और बहुत थोड़े लोगों को देता है। जिन्हें देता है उन्हें अबाध रूप से देता है, जिनसे चाहता है उनसे उतने ही निर्बाध भाव से चाहता है। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है, ऐसे लोगों की परिधि बहुत कड़ी है।

इससे गलतफहमी जरूर होती है। बहुत-से लोग बहुत नाराज भी हो जाते हैं। कुछ को इसमें मनहूसियत की झलक मिलती है, कुछ अहम्मन्यता पाते हैं, कुछ आभिजात्य का दर्प, कुछ और कुछ। कुछ की समझ में यह निरा आडंबर है और भीतर के शून्य को छिपाता है जैसे प्याज का छिलका पर छिलका। मैं साक्षी हूँ कि अज्ञेय को इन सब प्रतिक्रियाओं से अत्यंत क्लेश होता है। लेकिन एक तो यह क्लेश भी निजी है। दूसरे इसके लिए वह अपना स्वभाव बदलने का यत्न नहीं करता, न करना चाहता है। सभी को कुछ-कुछ और कुछ को सब-कुछ-वह मानता है उसके लिए आत्म-दान की परिपाटी यही हो सकती है। सिद्धांतत: वह स्वीकार करेगा कि 'सभी को सब-कुछ' का आदर्श इससे अधिक ऊँचा है। पर वह आदर्श सन्यासी का ही हो सकता है। या कम-से-कम निजी जीवन में कलाकार का तो नहीं हो सकता। बहुत-से कलाकार उससे भी छोटा दायरा बना लेते हैं जितना कि अज्ञेय का है और कोई-कोई तो 'कुछ को कुछ, बाकी अपने को सब-कुछ' के ही आदर्श पर चलते हैं। ऐसा कोई न बचे जिसे उसने अपना कुछ नहीं दिया हो, इसके लिए अज्ञेय बराबर यत्नशील है। लेकिन सभी के लिए वह सब-कुछ दे रहा है, ऐसा दावा वह नहीं करता और इस दंभ से अपने को बचाये रखना चाहता है।

अज्ञेय का जन्म खँडहरों में शिविर में हुआ था। उसका बचपन भी वनों और पर्वतों में बिखरे हुए महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्वावशेषों के मध्य में बीता। इन्हीं के बीच उसने प्रारंभिक शिक्षा पायी। वह भी पहले संस्कृत में, फिर फारसी और फिर अँग्रेज़ी में। और इस अवधि में वह सर्वदा अपने पुरातत्त्वज्ञ पिता के साथ, और बीच-बीच में बाकी परिवार से-माता और भाइयों से-अलग, रहता रहा। खुदाई में लगे हुए पुरातत्त्वान्वेषी पिता के साथ रहने का मतलब था अधिकतर अकेला ही रहना। और अज्ञेय बहुत बचपन से एकांत का अभ्यासी है और बहुत कम चीज़ों से उसको इतनी अकुलाहट होती है जितनी लगातार लंबी अवधि तक इसमें व्याघात पड़ने से। जेल में अपने सहकर्मियों के दिन-रात के अनिवार्य साहचर्य से त्रस्त होकर उसने स्वयं काल-कोठरी की माँग की थी और महीनों उसमें रहता रहा। एकांतजीवी होने के कारण देश और काल के आयाम का उसका बोध कुछ अलग ढंग का है। उसके लिए सचमुच 'कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।' वह घंटों निश्चल बैठा रहता है, इतना निश्चल कि चिड़ियाँ उसके कंधों पर बैठ जाएँ या कि गिलहरियाँ उसकी टाँगों पर से फाँदती हुई चली जाएँ। पशु-पक्षी और बच्चे उससे बड़ी जल्दी हिल जाते हैं। बड़ों को अज्ञेय के निकट आना भले ही कठिन जान पड़े, बच्चों का विश्वास और सौहार्द उसे तुरत मिलता है। पशु उसने गिलहरी के बच्चे से तेंदुए के बच्चे तक पाले हैं, पक्षी बुलबुल से मोर-चकोर तक; बंदी इनमें से दो-चार दिन से अधिक किसी को नहीं रखा। उसकी निश्चलता ही उन्हें आश्वस्त कर देती है। लेकिन गति का उसके लिए दुर्दांत आकर्षण है। निरी अंध गति का नहीं, जैसे तेज मोटर या हवाई जहाज की, यद्यपि मोटर वह काफ़ी तेज रफ्तार से चला लेता है। (पहले शौक था, अब केवल आवश्यकता पड़ने पर चला लेने की कुशलता है, शौक नहीं है।) आकर्षण है एक तरह की ऐसी लय-युक्ति गति का-जैसे घुड़दौड़ के घोड़े की गति, हिरन की फलाँग या अच्छे तैराक का अंग-संचालन, या शिकारी पक्षी के झपट्टे की या सागर की लहरों की गति। उसके लेखन में, विशेष रूप से कविता में, यह आकर्षण मुखर है। पर जीवन में भी उतना ही प्रभावशाली है। एक बार बचपन में अपने भाइयों को तैरते हुए देखकर वह उनके अंग-संचालन से इतना मुग्ध हो उठा कि तैरना न जानते हुए भी पानी में कूद पड़ा और डूबते-डूबते बचा-यानी मूर्छितावस्था में निकाला गया। लय-युक्त गति के साथ-साथ, उगने या बढ़नेवाली हर चीज़ में, उसके विकास की बारीक-से-बारीक क्रिया में, अज्ञेय को बेहद दिलचस्पी है: वे चीज़ें छोटी हों या बड़ी, च्यूँटी और पक्षी हों या वृक्ष और हाथी; मानव-शिशु हो या नगर और कस्बे का समाज। वनस्पतियों और पशु-पक्षियों का विकास तो केवल देखा ही जा सकता है; शहरी मानव और उसके समाज की गतिविधियों से पहले कभी-कभी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती थी-क्षोभ और क्रोध होता था; अब धीरे-धीरे समझ में आने लगा है कि ऐसी राजस प्रतिक्रियाएँ देखने में थोड़ी बाधा जरूर होती है। अब आक्रोश को वश करके उन गतिविधियों को ठीक-ठीक समझने और उनको निर्माणशील लीकों पर डालने का उपाय खोजने का मन होता है। पहले विद्रोह था जो विषयिगत था-'सब्जेक्टिव' था। अब प्रवृत्ति है जो किसी हद तक असम्पृक्त बुद्धि से प्रेरित है। एक हद तक जरूर प्रवृत्ति के साथ एक प्रकार की अंतर्मुखीनता आई है। समाज को बदलने चलने से पहले अज्ञेय बार-बार अपने को जाँचता है कि कहाँ तक उसके विश्वास और उसके कर्म में सामंजस्य है-या कि कहाँ नहीं है। यह भी जोड़ दिया जा सकता है कि वह इस बारे में भी सतर्क रहता है कि उसके निजी विश्वासों में और सार्वजनिक रूप से घोषित (पब्लिक) आदर्श में भेद तो नहीं है? धारणा और कर्म में सौ प्रतिशत सामंजस्य तो सिद्धों को मिलता है। उतना भाग्यवान न होकर भी अज्ञेय अंतर्विरोध की भट्ठी पर नहीं बैठा है और इस कारण अपने भीतर एक शांति और आत्मबल का अनुभव करता है। शांति और आत्म-बल आज के युग में शायद विलास की वस्तुएँ हैं। इसलिए इस कारण से अज्ञेय हिंदी भाइयों और विशेष रूप से हिंदीवाले भाइयों से कुछ और अलग पड़ जाता है और कुछ और अकेला हो जाता है।

यहाँ यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि यहाँ शायद सच्चाई को अधिक सरल करके सामने रखा गया है; उतनी सरल वास्तविकता नहीं है। एक साथ ही चरम निश्चलता का और चरम गतिमयता का आकर्षण अज्ञेय की चेतना के अंतर्विरोध का सूचक है। पहाड़ उसे अधिक प्रिय है या सागर, इसका उत्तर वह नहीं दे पाया है, स्वयं अपने को भी। वह सर्वदा हिमालय के हिमशिखरों की ओर उन्मुख कुटीर में रहने की कल्पना किया करता है और जब-तब उधर कदम भी बढ़ा लेता है; पर दूसरी ओर वह भागता है बराबर सागर की ओर, उसके उद्वेलन से एकतानता का अनुभव करता है। शांत सागर-तल उसे विशेष नहीं मोहता-चट्टानों पर लहरों का घात-प्रतिघात ही उसे मुग्ध करता है। सागर में वह दो बार डूब चुका है; चट्टानों की ओट से सागर-लहर को देखने के लोभ में वह कई बार फिसलकर गिरा है और दैवात् ही बच गया है। पर मन:स्थिति ज्यों-की-त्यों है : वह हिमालय के पास रहना चाहता है पर सागर के गर्जन से दूर भी नहीं रहना चाहता! कभी हँसकर कह देता है : ''मेरी कठिनाई यही है कि भारत का सागर-तट सपाट दक्षिण में है-कहीं पहाड़ी तट होता तो-!''

क्योंकि इस अंतर्विरोध का हल नहीं हुआ है, इसलिए वह अभी स्वयं निश्चयपूर्वक नहीं जानता है कि वह अंत में कहाँ जा टिकेगा। दिल्ली या कोई भी शहर तो वह विश्रामस्थल नहीं होगा, यह वह ध्रुव मानता है। पर वह कूर्मांचल हिमालय में होगा, कि कुमारी अंतरीप के पास (जहाँ चट्टानें तो हैं!), या समझौते के रूप में विंध्य के अंचल की कोई वनखंडी जहाँ नदी-नाले का मर्मर ही हर समय सुनने को मिलता रहे-इसका उत्तर उसे नहीं मिला। उत्तर की कमी कई बार एक अशांति के रूप में प्रकट हो जाती है। वह 'कहीं जाने के लिए' बैचेन हो उठता है। (मुक्तिबोध का 'माइग्रेशन इन्स्टिंक्ट'?) कभी इसकी सूरत निकल आती है; कभी नहीं निकलती तो वह घर ही का सब सामान उलट-पुलटकर उसे नया रूप दे देता है : बैठक को शयनकक्ष, शयनकक्ष को पाठागार, पाठागार को बैठक इत्यादि। उससे कुछ दिन लगता है कि मानो नए स्थान में आ गए-फिर वह पुराना होने लगता है तो फिर सब बदल दिया जाता है! इसीलिए घर का फर्नीचर भी अज्ञेय अपने डिजाइन का बनवाता है। ये जो तीन चौकियाँ हैं न, इन्हें यों जोड़ दिया जाए तो पलंग बन जाएगा; ये जो दो डेस्क-सी दीखती हैं, एक को घुमाकर दूसरे से पीठ जोड़ दीजिए, भोजन की मेज बन जाएगी यदि आप फर्श पर नहीं बैठ सकते। वह जो पलंग दीखता है, उसका पल्ला उठा दीजिए- नीचे वह संदूक है। या उसे एक सिरे पर खड़ा कर दीजिए तो वह आलमारी का काम दे जाएगा! दीवार पर शरद् ऋतु के चित्र हैं न ? सबको उलट दीजिए : अब सब चित्र वसंत के अनुकूल हो गए-अब बिछावन भी उठाकर शीतलपाटियाँ डाल दीजिए और सभी चीज़ों का ताल-मेल हो गया...

पुरातत्त्ववेत्ता की छाया में अकेले रहने का एक लाभ अज्ञेय को और भी हुआ है। चाहे विरोधी के रूप में चाहे पालक के रूप में, वह बराबर परंपरा के संपर्क में रहा है। रूढि़ और परंपरा अलग-अलग चीज़ें हैं, यह उसने समझ लिया है। रूढि़ वह तोड़ता है और तोड़ने के लिए हमेशा तैयार है। लेकिन परंपरा तोड़ी नहीं जाती, बदली जाती है या आगे बढ़ाईजाती है, ऐसा वह मानता है; और इसी के लिए यत्नशील है। कहना सही होगा कि वह मर्यादावान विद्रोही है। फिर इस बात को चाहे आप प्रशंसा से कह लीजिए चाहे व्यंग्य और विद्रूप से।

एक ओर एकांत, और दूसरे में एकांत का निरंतर बदलता हुआ परिवेश-कभी कश्मीर की उपत्यकाएँ, कभी बिहार के देहात, कभी कोटागिरि-नीलगिरि के आदिम जातियों के गाँव, कभी मेरठ के खादर और कभी असम और पूर्वी सीमांत के वन-प्रदेश-इस अनवरत बदलते हुए परिवेश ने अकेले अज्ञेय के आत्म-निर्भरता का पाठ बराबर दुहरवाया है। इस कारण वह जितना जैसा जिया है अधिक सघनता और तीव्रता से जिया है। 'रूप-रस-गंध-गान'-सभी की प्रतिक्रियाएँ उसमें अधिक गहरी हुई हैं। सिद्धांतत: भी वह मानता है कि कवि या कलाकार ऐंद्रिय चेतना की उपेक्षा नहीं कर सकता। और परिस्थितियों ने उसे इसकी शिक्षा भी दी है कि ऐंद्रिय संवेदन को कुंद न होने दिया जाए। यह यों ही नहीं कि आँख, कान, नाक आदि को 'ज्ञानेंद्रियाँ' कहा जाता है। ये वास्तव में खिड़कियाँ हैं जिनमें से व्यक्ति जगत को देखता और पहचानता है। इनके संवेदन को अस्वीकार करना संन्यास या वैराग्य का अंग नहीं है। वह पंथ आसक्ति को छोड़ता है यानी इन संवेदनों से बँध नहीं जाता; यह नहीं है कि इनका उपयोग ही वह छोड़ देता है। जब अज्ञेय को ऐसे लोग मिलते हैं जो गर्व से कहते हैं कि ''हमें तो खाने में स्वाद का पता ही नहीं रहता-हम तो यह भी लक्ष्य नहीं करते कि दाल में नमक कम है या ज्यादा,'' तो अज्ञेय को हँसी आती है। क्योंकि यह वह अस्वाद नहीं जिसे आदर्श माना गया, यह केवल एक विशेष प्रकार की पंगुता है। इसमें और इस बात पर गर्व करने में कि ''मुझे तो यह भी नहीं दिखता कि दिन है या रात,'' कोई अंतर नहीं है। अगर अन्धापन या बहरापन श्लाघ्य नहीं है तो जीभ का या त्वचा का अपस्मार ही क्यों श्लाघ्य है? ज्ञानेंद्रियों की सजगता अज्ञेय की कृतियों में प्रतिलक्षित होती है और वह मानता है होनी भी चाहिए। कम या ज्यादा नमक होने पर भी दाल खा लेना एक बात है, और इसको नहीं पहचानना बिलकुल दूसरी बात है।

अज्ञेय मानता है कि बुद्धि से जो काम किया जाता है उसकी नींव हाथों से किये गए काम पर है। जो लोग अपने हाथों का सही उपयोग नहीं करते उनकी मानसिक सृष्टि में भी कुछ विकृति या एकांगिता आ जाती है। यह बात काव्य-रचना पर विशेष रूप से लागू है क्योंकि अन्य सब कलाओं के साथ कोई-न-कोई शिल्प बँधा है, यानी अन्य सभी कलाएँ हाथों का भी कुछ कौशल माँगती हैं। एक काव्य-कला ही ऐसी है कि शुद्ध मानसिक कला है। प्राचीन काल में शायद इसीलिए कवि-कर्म को कला नहीं गिना जाता था। अज्ञेय प्राय: ही हाथ से कुछ-न-कुछ बनाता रहता है और बीच-बीच में कभी तो मानसिक रचना को बिलकुल स्थगित करके केवल शिल्प-वस्तुओं के निर्माण में लग जाता है। बढ़ईगिरी और बाग़वानी का उसे खास शौक है। लेकिन और भी बहुत-सी दस्तकारियों में थोड़ी-बहुत कुशलता उसने प्राप्त की है और इनका भी उपयोग जब-तब करता रहता है। अपने काम के देशी काट के कपड़े भी वह सी लेता है और चमड़े का काम भी कर लेता है। थोड़ी-बहुत चित्रकारी और मूर्तिकारी वह करता है। फोटोग्राफी का शौक भी उसे बराबर रहा है और बीच-बीच में प्रबल हो उठता है।
हाथों से चीज़ें बनाने के कौशल का प्रभाव ज़रूरी तौर पर साहित्य-रचना पर भी पड़ता है। अज्ञेय प्राय: मित्रों से कहा करता है कि अपने हाथ से लिखने और शीघ्रलेखक को लिखाने में एक अंतर यह है कि अपने हाथ से लिखने में जो बात बीस शब्दों में कही जाती लिखाते समय उसमें पचास शब्द या सौ शब्द भी सर्फ़कर दिए जाते हैं! मितव्यय कला का एक स्वाभाविक धर्म है। रंग का, रेखा का, मिट्टी या शब्द का अपव्यय भारी दोष है। अपने हाथ से लिखने में परिश्रम किफायत की ओर सहज ही जाता है। लिखाने में इसमें चूक भी हो सकती है। विविध प्रकार के शिल्प के अभ्यास से मितव्यय का-किसी भी इष्ट की प्राप्ति में कम-से-कम श्रम का-सिद्धांत सहज-स्वाभाविक बन जाता है। भाषा के क्षेत्र में इससे नपी-तुली, सुलझी हुई बात कहने की क्षमता बढ़ती है, तर्क-पद्धति व्यवस्थित, सुचिंतित और क्रमसंगत होती है। अज्ञेय इन सबको साहित्य के बड़े गुण मानता है और बराबर यत्नशील रहता है कि उसका लेखन इस आदर्श से स्खलित न हो।
दूसरे की बात को वह ध्यान से और धैर्य से सुनता है। दूसरे के दृष्टिकोण का, दूसरे की सुविधा का, दूसरे और प्रिय-अप्रिय का वह बहुत ध्यान रखता है-कभी-कभी जरूरत से ज्यादा। नेता के गुणों में एक यह भी होता है कि अपने दृष्टिकोण को अपने पर इतना हावी हो जाने दे कि दूसरे के दृष्टिकोण की अनदेखी भी कर सके। निरंतर दूसरे के दृष्टिकोण को देखते रहना नेतृत्व कर्म में बाधक भी हो सकता है। इसलिए नेतृत्व करना अज्ञेय के वश का नहीं है। वह सही मार्ग पहचानकर और उसका इंगित देकर भी फिर एक तरफ़ हट जाएगा, क्योंकि 'दूसरों का दृष्टिकोण दूसरा है' और वह उस दृष्टिकोण को भी समझ सकता है!
'मार-मारकर हकीम' न बनाने की इस प्रवृत्ति के कारण अज्ञेय को विश्वास बहुत लोगों का मिला है। मित्र उसके कम रहे हैं, पर अपनी समस्याएँ लेकर बहुत लोग उसके पास आते हैं; ऐसे लोगों को खुलकर बात करने में कभी कठिनाई नहीं होती। सभी की सहायता की जा सके ऐसे साधन किसके पास हैं : पर धीरज और सहानुभूति से सुनना भी एक सहायता है जो हर कोई दे सकता है। (पर देता नहीं)।
लेकिन इस धीरज के साथ-साथ अव्यवस्थित चिंतन के प्रति उसमें एक तीव्र असहिष्णुता भी है। चिंतन के क्षेत्र में किसी तरह का भी लबड़धोंधोंपन उसे सख्त नापसंद है और इस नापसंदगी को प्रकट करने में वह संकोच नहीं करता। इसीलिए उसके मित्र बहुत कम हैं। हिंदीवालों में और भी कम, क्योंकि हिंदी साहित्यकार का चिंतन भारतीय साहित्यकारों में अपेक्षया अधिक ढुलमुल होता है। साहित्यकार ही क्यों, हिंदी के आलोचकों और अध्यापकों का सोचने का ढंग भी एक नमूना है।

अज्ञेय हिंदी के हाथी का दिखाने का दाँत है। कभी-कभी उसको इस पर आश्चर्य भी होता है और खीझ भी। क्योंकि वह अनुभव करता है कि हिंदी के प्रति उसकी आस्था अनेक प्रतिष्ठित हिंदीवालों से अधिक है और साथ ही यह भी कि वह बड़ी गहराई में और बड़ी निष्ठा के साथ भारतीय है। यानी वह खाने के दाँतों की अपेक्षा हिंदी के हाथी का अधिक अपना है। यों तो खैर, दाँत ही हाथी का हो सकता है, कोई ज़रूरी नहीं है कि हाथी भी दाँत का हो। लेकिन शायद ऐसा सोचना भी अज्ञेय की दुर्बलता है-यह भी 'दूसरे के दृष्टिकोण को देखना' है। वह अपने को हिंदी का मानकर चलता है जब कि आर्थोडाक्स हिंदीवाला हिंदी को अपनी मानता ही नहीं वैसा दावा भी करता है : अज्ञेय अपने को भारत का मानता है जबकि आर्थोडाक्स भारतीय देश को अपना मानता है। हिंदी के एक बुजुर्ग ने कहा था, ''विदेशों में हिंदी पढ़ाने के लिए तो अज्ञेय बहुत ही उपयुक्त है, बल्कि इससे योग्यतर व्यक्ति नहीं मिलेगा; लेकिन भारतीय विश्वविद्यालयों में-" और यहाँ उनका स्वर एकाएक बिलकुल बदल गया था-"और हिंदी क्षेत्र में-देखिए, हिंदी क्षेत्र में हिंदी साहित्य पढ़ाने के लिए तो दूसरे प्रकार की योग्यता चाहिए।'' इस कथन के पीछे जो प्रतिज्ञाएँ हैं उनसे अज्ञेय को अपना क्लेश होता है। लेकिन-और इसे उसका अतिरिक्त दुर्भाग्य समझिए-इस दृष्टिकोण को वह समझ भी सकता है। पिछले दस-बारह वर्षों के उसके कार्य की जड़ में यही उभयनिष्ठ भाव लक्षित होता है। यह दिखाने का दाँत चालानी माल (एक्सपोर्ट कमाडिटी) के रूप में बराबर रहता रहा है लेकिन हर बार इसलिए लौट आया है कि अंततोगत्वा वह भारतीय है, भारत का है और भारत में ही रहेगा।

यह समस्या अभी उसके साथ है और शायद अभी कुछ वर्षों तक रहेगी। बचपन में उसके भविष्य के विषय में जिज्ञासा करने पर उसके माता-पिता को एक ज्योतिषी ने बताया था कि ''इस जातक के शत्रु अनेक होंगे लेकिन हानि केवल बंधुजन ही पहुँचा सकेंगे।'' अज्ञेय नियतिवादी नहीं है लेकिन स्वीकार करता है कि चरित्र की कुछ विशेषताएँ जरूर ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसलिए शायद 'यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है' कि अनेक शत्रुओं के रहते हुए भी अज्ञेय वध्य है तो केवल अपने बंधुओं द्वारा। ऐसा ही अच्छा है। उसी ज्योतिषी ने यह भी बताया था कि ''इस जातक के पास कभी कुछ जमा-जत्था नहीं होगा, लेकिन साथ ही ज़रूरी खर्चे की कभी तंगी भी नहीं होगी- यह या तो फकीर होगा या राजा।'' और फिर कुछ रुककर, शायद फकीरी की आशंका के बारे में माता-पिता को आश्वस्त करने के लिए, और 'सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात्' को ध्यान में रखकर, उसने एक वाक्य और जोड़ दिया था जिसकी व्यंजनाएँ अनेक हैं- ''यह असल में तबीयत का बादशाह होगा।''

जी हाँ, तबीयत के अलावा और कोई बादशाहत अज्ञेय को नहीं मिली है। लेकिन यह बनी रहे तो दूसरी किसी की आकांक्षा भी उसे नहीं है।

Web Title: Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya birth anniversary and autobiographical article

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