रस्किन बॉण्ड की आत्मकथा 'लोन फॉक्स डांसिंग'- इंग्लैंड जाकर भी चार साल में भारत लौटे एक बेफिक्र और आज़ाद लेखक की कहानी

By सुमन परमार | Published: May 1, 2020 08:06 AM2020-05-01T08:06:24+5:302020-05-01T08:07:05+5:30

अंग्रेजी लेखक रस्किन बॉण्ड का जन्म 19 मई 1934 को कसौली में हुआ था। साहित्य में उनके योगदान के लिए भारत सरकार उन्हें पद्म भूषण और पद्म श्री से सम्मानित कर चुकी है। उनकी आत्मकथा 'Lone fox dancing' साल 2017 में Speaking Tiger प्रकाशन से शाया हुई थी।

ruskin bond autobiography lone fox dancing review in hindi | रस्किन बॉण्ड की आत्मकथा 'लोन फॉक्स डांसिंग'- इंग्लैंड जाकर भी चार साल में भारत लौटे एक बेफिक्र और आज़ाद लेखक की कहानी

रस्किन बॉण्ड की युवा अवस्था की तस्वीर उनकी आत्मकथा lone fox dancing के प्रकाशक speaking tiger से साभार।

मैंने चिड़ियाघर और नैश्नल पार्क में बहुत सारे जानवर देखे हैं। कहीं बंद पिंजरे में तो कहीं सुखे-विरान जंगलों में- जहाँ उनकी एक झलक मिलते ही कैमरो की गड़गड़ागट के आगे सबकुछ धूमिल हो जाता है। लोग इन्हें कैमरे में कैद कर लेना चाहते हैं, स्मृतियों का हिस्सा नहीं बनाना चाहते। 

लेकिन, मैंने अकेले मस्तमौले लोमड़ी को अपनी ही धुन में मग्न नहीं देखा। क्या बेफिक्री होगी उसके भीतर, कितना प्यार होगा उसके चेहरे पर, कैसी चमक होगी उसकी आँखों में...लोन फॉक्स डासिंग, उसी बेफिक्र, आज़ाद, अपने आप में भरे पूरे लेखक की कहानी है जिसकी धमनियों में मसूरी, शिमला और देहरा धड़कती है। 

एकथारस्टी

‘लोन फॉक्स डांसिंग’ भारत के सबसे चहते लेखकों में एक रस्किन बॉण्ड की आत्मकथा है। यह किताब आज़ादी पूर्व भारत में आएएएफ में काम कर रहे एक अंग्रेज़ पिता (36 साल) और भारत में पैदा हुई अंग्रेज़ माँ (18 साल) की पहली संतान के जीवन की दास्तान है। रस्किन की कहानी जामनगर से शुरू होती है जहाँ उनके पिता जामनगर के राज घराने के बच्चों को पढ़ाया करते थे। 

रस्किन, अकेले होकर भी अकेले नहीं हैं। वो जहाँ भी होते हैं वहाँ कोई नया दोस्त, नयी कहानी उन्हें मिल जाती है। वो हमेशा दोस्तों के साथ होते हैं। यह किताब पढ़ते हुए एक मज़ेदार बात यह हुई कि अब तक उनकी जितनी कहानी पढ़ी थी वो सारी कहानियाँ, उनकी आत्मकथा में आकर मिल जाती हैं। मसूरी, देहरा, शिमला, दिल्ली सबकुछ। जैसे छोटी नदियाँ, बड़ी नदियों में आकर मिलती हैं। इसलिए किताब को पढ़ते हुए बहुत बार ऐसा लगता है कि आप इस जगह को जानते हैं। किताब, उन सारे किरदारों की संचयिता भी है जो बॉण्ड की कहानियों में मिलते हैं। फिर वो जामनगर की आया हो, खानसामा हो, गणित के शिक्षक, बांसुरी वाला लड़का, किशन, सोम, मिस बीन – सारे चरित्र समय-समय पर पढ़ी कहानियों की याद दिलाते हैं, पहचाने हुए चेहरों से अनजाने ही मुलाक़ात करवाते हुए!

वो दोस्ती करते हैं पीछे रह गए या छोड़ दिए गए उन लोगों से जो समाज के हासिए पर रहते हैं जैसे – अकेली और बीमार बूढ़ी औरतें, घरेलू हिंसा से जूझती औरतें, प्यार के लिए तरसती औरतें, रिटायर्ड बूढ़े लोग, घरों में काम करने वाले खानसामें, आया, माली। वो रस्किन को कहानियाँ सुनाते हैं। वो रस्किन की कहानियों का हिस्सा बन जाते हैं। रस्किन को पढ़ते हुए विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं बहुत याद आती हैं। 

लेखक मि.बॉण्ड

रस्किन इंग्लैंड जाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लेखक बनना हैं। चालर्स डिकेंश, विलियम थैकर, जॉन गैल्सवर्थी का इंग्लैंड। पीटर पैन का इंग्लैंड। लेकिन, निराश रस्किन, चार साल में ही भारत वापिस लौट आते हैं, कभी वापिस न लौटने के लिए। 

उन्हें अपने घर लौटना था। इंग्लैंड उनका घर नहीं था वो अंग्रेज़ी भी वहाँ के लोगों की तरह नहीं बोलते थे। (वैसे, स्कूल में रस्किन के हिन्दी टीचर मशहूर लेखक मोहन राकेश थे। किताब में उनकी हिन्दी को लेकर एक बहुत सुंदर वाकया है।) उनके भीतर घर की तलाश थी। घर – माँ, सौतेले पिता और भाई-बहनों का घर नहीं बल्कि दोस्त, हवा, पक्षी, चिड़ियाँ, मैना, पेड़, रंग, खुशबु, फूलों के बीच होने का एहसास, आज़ाद होने का अहसास। उनके अनुसार, “इंग्लैंड में नाकामयाब होना, भारत में नाकामयाब होने से ज्यादा बुरा और निष्ठुर था।“ भारत लौटकर वो कहानियाँ लिखते हैं और छपने की हर संभव कोशिश करते हैं। कभी छपते हैं, कुछ पैसे मिलते हैं और ये सिलसिला चल पड़ता है।  

उनके जीवन में प्यार के क्षण मदार के फाहे की तरह उड़ते हुए आते हैं। एक मुलायम एहसास। थोड़ा ठहरकर वो फिर हवा के साथ उड़ जाते हैं किसी और मिट्टी में अंकुरित होने के लिए। 

दस्तावेज़

आत्मकथाएं, दस्तावेज होती हैं, व्यक्ति का, उसके समय का। किताब में आज़ादी से पहले और उसके बाद की दिल्ली का जिक्र है। गांधी और नेहरू परोक्ष रूप में तो, इंदिरा सीधे रस्किन से मिलती हैं उनसे बातें करती हैं। किताब, उन अंग्रेज़ों की भी कहानी है जिन्होंने आज़ादी के बाद यहीं रहने का फैसला किया या जिनके पास वापस लौटने के लिए कोई घर नहीं था। अकेले, ये अधिकतर अंग्रेज, छोटे-छोटे टापू की तरह कुछ पहाड़ों में बस गए तो कुछ देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल गए, लेकिन वहाँ भी ये अकेले छोटे टापू की तरह की देखे जाते रहे, जिनके बारे में हज़ारों किस्से हैं लेकिन सच कोई नहीं जानता। जैसे धनबाद जैसे एक छोटे शहर के केन्द्रीय विद्यालय में इंग्लिश पढ़ाने वाली मिस.आर्या। उनके बारे में लोगों को इतना पता था कि वो एंग्लो इंडियन हैं। हमसे अलग, हमारी तरह नहीं हैं। वो घर में गाउन पहनती हैं। लेकिन, स्कूल में वो हमेशा साड़ी पहनती थीं। 

रस्किन एक किस्सा सुनाते हैं- 

कुछ साल पहले रस्किन अपने परिवार के साथ उड़ीसा के कोणार्क गए। वहाँ उन्हें कहा गया कि वो विदेशी हैं इसलिए उन्हें एक्सट्रा फीस देनी होगी। राकेश और बीना ने इसका विरोध किया। समझाने की कोशिश की लेकिन उन्हें एक्सट्रा फीस देनी पड़ी। लाइन में उनके पीछे एक सरदार खड़ा था जिसके हाथ में लंदन का पासपोर्ट था। टिकट देने वाले व्यक्ति ने उसे भारतीय नागरिक की लाइन में लगने को कहा गया। सरदार ने रस्किन से पूछा कि वो कहाँ पैदा हुए हैं, उन्होंने कहा, “कसौली में।“ रस्किन ने सरदार से पूछा कि वो कहाँ पैदा हुए हैं, तो उसने बताया ’बरमिंघम’ में।  

दिल्ली से देहरा 

पहली बार रस्किन अपने पिता के साथ दिल्ली आए थे। गुलाम भारत की दिल्ली। दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका के बीच जहाँ उनके पिता अंग्रेज़ों की तरफ से अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। दूसरी बार वो अपनी माँ और सौतेले पिता के घर आए हैं। आज़ाद दिल्ली में। रिफ्यूजियों का घर, दिल्ली। नेहरू के आधुनिक मॉडल को अपनाती हुई दिल्ली। लुटियनस की दिल्ली। 

रस्किन मसूरी, शिमला, देहरा, न्यूजर्सी, लंदन, दिल्ली की सड़कों पर घूमते हैं। रस्किन के साथ पाठक कई मज़ेदार और रोचक जानकारियों को अपनी टोकरी में रखता जाता है। जैसे, मुझे एक मज़ेदार बात पता चली। सिविल लाइन्स मेट्रो स्टेशन के पास जिस मेडेन होटल को मैं कई बरसों से रोज़ सुबह शाम देखती हूँ और निहारती थी और जिसके भीतर जाने की तमन्ना लिए रोज उसके पास से निकल जाती थी, रस्किन के मन में भी उस होटल को लेकर वैसी ही इच्छाएं थीं। उसका नाम उसके मालिक जॉन मेडेन के नाम पर रखा गया है। यह होटल रानी विक्टोरिया के दिल्ली दरबार के समय बनाया गया था। मुझे ये होटल हमेशा आकर्षित करता रहा है। 

अनिता राकेश की किताब ‘सतरें ही सतरें’ में इसका ज़िक्र है। शायद पार्टिशन के समय ही बात थी। और उस होटल में रिफ्यूजियों के ठहरने का इंतज़ाम किया गया था। वैसे, विलियम डेलरिपल अपनी किताब ‘सिटी ऑफ़ जिन्स’ में इसका जिक्र नहीं करते। जहाँ तक मुझे याद है उसमें कश्मीरी गेट और यहाँ तक कि मेटकॉफ हाउस का ख़ूब जिक्र है। 

वो बरगद की पेड़ पर अपने ऊंट के साथ आराम करते लड़के से दोस्ती कर लेते हैं, वो कनॉट प्लेस में फिल्म देखने और कॉफी पीकर आधे रास्ते पैदल ही घर की तरफ चल पड़ते हैं। धीरे-धीरे दिल्ली उन्हें अपनी लगने लग रही है। लेकिन, वो पहाड़ों की तरफ वापस लौट जाते हैं। अब वो तीस साल के हैं और मेपेलबुड उनका घर है।  

यह किताब, पहाड़ों की धूप – चमकती हूई, प्यारी, सुनहरी और गर्माहट से भरी हुई है। जैसे, बहुत प्यारी सॉफ्ट बिल्ली की तरह जिसे देखते ही आपको उससे प्यार हो जाता है और आप उसे बहुत संभालकर उठाते हैं और आप उसके आस-पास सुरक्षाकवच की तरह अपनी बाँहों में उसे भर लेते हैं। आप जानते हैं कि वो आपके पास हमेशा नहीं रहेगी। रस्किन 82 साल से ज्यादा उम्र के हैं लेकिन, इस किताब में और मेरी याद में वो भागता दौड़ता रस्टी ही हमेशा रहेगा जो घर में काम करने वाली आया, माली या खानसामे के साथ आगे-पीछे घूमता रहता है एक उत्साही बच्चे की तरह जिसकी गर्मी की छुट्टियाँ कभी खत्म ही नहीं हुई हैं शायद। वो शांत दोपहरी में चिड़ियों का चहचहाना सुन रहा है, हवा उससे बातें करती हैं, उसे गिलहरियों के घर का पता मालूम है, वो जानता है कि दीवार पर चिपकी छिपकली किसे ढूंढ रही है। बस, नहीं जानते तो हम जिन्हें दुनिया की इतनी फिक्र है कि हम अपने आस पास साँस लेते किसी भी जीव को नहीं पहचानते। हम सबसे दूर हो चुके हैं। हमारे लिए सबकुछ इस्तेमाल का विषय है। हमारी सुविधा के लिए। 

इस किताब के साथ उस मस्तमौले लोमड़ी के भीतर की खुशी मेरी स्मृतियों में कैद हो गई हैं। 

(मशहूर अंग्रेजी लेखक रस्किन बॉण्ड की आत्मकथा लोन फॉक्स डांसिंग (Lone Fox Dancing) Speaking Tiger प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।)

Web Title: ruskin bond autobiography lone fox dancing review in hindi

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