राज्यसभा चुनाव 2018: बीजेपी के इन 4 तुरुप के इक्कों के सामने चित हो गया सपा-बसपा गठबंधन

By खबरीलाल जनार्दन | Published: March 24, 2018 07:30 AM2018-03-24T07:30:23+5:302018-03-24T11:37:46+5:30

बीजेपी ने राज्यसभा में यूपी की 9वीं सीट उनके चुनाव जीतने के कौशल का नतीजा है।

Rajyasabha Election Results: 4 Reason bsp-sp allenece loose and BJP win  | राज्यसभा चुनाव 2018: बीजेपी के इन 4 तुरुप के इक्कों के सामने चित हो गया सपा-बसपा गठबंधन

राज्यसभा चुनाव 2018: बीजेपी के इन 4 तुरुप के इक्कों के सामने चित हो गया सपा-बसपा गठबंधन

Highlightsराजा भइया ने वोट डालने के बाद विधानभवन में सीएम योगी आदित्यनाथ से मुलाकात कीअपने ऐजेंट को वोट ना दिखाने वाले बसपा विधायक अनिल सिंह ने कहा युद्ध में सब जायज हैबीएसपी ने राज्यसभा को ध्यान में रखकर ही उपचुनाव में दिया था सपा का साथ

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने बड़ी चतुराई से उत्तर प्रदेश की 9वीं राज्यसभा सीट जीत ली। यह सीधा चुनाव लड़कर जीतने के बजाए बीजेपी के रणीतिनकारों के चुनाव जीतने के कौशल का नतीजा है। राज्यसभा के चुनाव बहुत महीन होते हैं। यूं तो किसी भी चुनाव में एक-एक वोट मायने रखते हैं। लेकिन इसमें बड़ी बारीकी से किसी एक खास वोट के लिए ही मेहनत करनी पड़ती है। और बीजेपी ने अघोषित तौर पर मेहनत की सपा समर्थ‌ित निर्दल विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया पर। चुनावी पंडितों का कहना है कि बीजेपी उन्हें इसके लिए तो नहीं मना पाई कि वे बीजेपी के पक्ष में मत दें, पर इसके लिए मना ले गई कि बसपा को वोट ना करें।

भारतीय राजनीति के बीजेपीकाल में बोगस वोटिंग उदय

भारतीय राजनीति के बीजेपीकाल में इस खास तरह की राजनीति का उदय हुआ है, जिसमें मतदाता को इसके लिए तैयार कर लिया जा रहा है कि हमें वोट मत दो, लेकिन मुख्य प्रतिद्वंदी को भी वोट मत दो। पिछले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और फिर हालिया त्रिपुरा विधानसभा चुनाव इस विधा के सफल मॉडल बनकर उभरे हैं। इन दोनों चुनावों में बहुत तेजी से बोगस मतदाता उभरते हुए पाए गए।

अगर त्रिपुरा चुनावों को करीब देखा से जाए तो बीजेपी को मिले कुल वोट और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीएम) को मिले कुल वोट में महज 6 फीसदी का अंतर था। लेकिन बीजेपी की सीटें सीपीएम की तुलना में दोगुनी थीं। क्यों? जब वोट करीब‌-करीब बराबर मिले तो दूसरी पार्टी क्यों जीत गई। क्योंकि बीजेपी के सुनील देवधर ने एक-एक विधानसभा में काम किया। देखा कि क्या कोई ऐसा उम्मीदवार है जो प्रतिद्वंदी के वोट काट दे। इसके बाद स्वतः बीजेपी अपने उन्हीं निश्चित वोटरों से प्रतिद्वंदी आगे पहुंच गई।

इस खास तरह की राजनीति को आप हिन्दी के एक लोकोक्ति को उलटकर पढ़ें तो बेहद असानी से समझ जाएंगे। लोकोक्ति है- दूसरों की लकीर छोटी करने के बजाए, अपनी लकीर लंबी करो। लेकिन इस खास विधा से चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाली बीजेपी ऐसा विश्वास रखती है- अपनी लकीर बढ़ाने के लिए दूसरों की लकीर मिटा दो।

राज्यसभा में सपा-बसपा की गणित और बीजेपी की महागणित

वापस लौटेते हैं शुक्रवार को हुए राज्यसभा चुनाव में और ऊपर बताए गए पूरे प्रसंग को उससे जोड़कर देखते हैं। असल में उत्तर प्रदेश में करीब 25 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर बीते महीने आश्चर्यजनक रूप से सपा-बसपा एक हो गईं। दोनों ने अघोषित संधि पर एक दूसरे का आगामी लोकसभा उपचुनाव और राज्यसभा चुनाव में साथ देने ठाना। पहले लोकसभा उपचुनाव में बसपा ने सपा के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और अपने वोटरों से सपा को वोट डालने की अपील की। वजह साफ थी बसपा गोरखपुर और फूलपुर दोनों में ही इतने प्रभाव में नहीं थी कि वह बीजेपी और सपा का सामना कर पाए।

ऐसे में बताया गया कि बसपा ने एक स्मार्ट तरीका अपनाते हुए उपचुनावों में सपा को समर्थन देने के बदले में राज्यसभा चुनावों में सपा से समर्थन मांग लिया। नतीजतन उपचुनावों में अप्रत्याशित तौर पर सालों से गोरखधाम मठ की कब्जाई हुई सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यना‌थ के घर में घुसकर गोरखपुर में गठबंधन मात दे दी। फूलपुर सीट पर जबर्दस्त जीत दर्ज की। इसके बाद बारी आई राज्यसभा चुनाव की, जिसका गणित यह था कि अगर बसपा-सपा के विधायक आपसी सहमति से सपा को एक सीट जीताने के लिए आवश्यक वोट देने के बाद एकजुट होकर बसपा के उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर को वोट करेंगे। लेकिन यह हो नहीं सका।

तुरुप का इक्काः राजा भइया

चुनावी जानकारों की मानें तो बाइपोल में हार से हुई किरकिरी से तमतमाई और किसी भी हाल में चुनाव जीतने को अमादा बीजेपी (चुनाव के बाद बीजेपी पक्ष में वोट करने वाले बसपा विधायक के बोल- युद्ध में सब जायज है और यह युद्ध है।) ने चुनाव के दौरान कुछ तुरुप के इक्के चलाए। पहले इक्के सपा समर्थ‌ित निर्दलीय विधायक राजा भइया। दंबग विधायक, अपनी सीट के साथ विधायक विनोद सरोज की सीट भी अपनी जेब में रखने वाले। उन्हें इस बात के राजी कर लिया गया कि वे बसपा को वोट ना दें। क्योंकि मायावती सरकार ने उनके साथ बेहद बुरा बर्ताव किया था।

माहौल ऐसा बना कि राजा भइया के कहने के बाद भी सपा आलाकमान उनपर इतना भरोसा नहीं कर पाई कि अपने सेट 36 विधायकों में से दो को बसपा की ओर भेज दे। क्योंकि ऐन मौके पर ऐसा कौन चाहेगा किसी नादानी के चलते सपा जो एक सीट जीत पाई है वो भी ना जीते। फिर राजा भइया ने अपना वचन निभाया, जिस जया बच्चन को अपनी सीट जीतने ‌लिए महज 36 वोटों की जरूरत थी, उन्हें 38 वोट मिल गए।

तुरुप का इक्काः अनिल सिंह

जो पार्टी दूसरी पार्टी से गठबंधन कर एक-एक वोट का इंतजाम कर रही है उसी के अपने विधायक ने प्रतिद्वंदी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दिया। इसे राज्यसभा में क्रॉस वोटिंग कहते हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है। लेकिन जैसे के ‌इस बार के हालात थे। माना जा रहा था कि बसपा से तो कम से कम कोई नहीं टूटेगा, क्योंकि उनके पास कुल 19 विधायक ही हैं। लेकिन अनिल सिंह ने इस मान्यता को तोड़ते हुए प्रतिद्वंदी पार्टी को वोट किया।

तुरुप का इक्काः नरेश अग्रवाल

राज्यसभा चुनावों के ऐन पहले बेहद चातुर्य का मुजायरा पेश करते हुए बीजेपी ने दिग्गज सपा नेता नरेश अग्रवाल को बीजेपी में शामिल कर लिया। तभी से बीजेपी की नजर राज्यसभा में उनके सपा विधायक बेटे नितिन अग्रवाल के वोट पर थी। आखिर हुआ भी वैसा ही। जो सपा, अपने सहयोगी को 10 सीटों तक का सम‌र्थन करने आ रही थी। उसके अपने पास इतने विधायक ही नहीं बचे।

तुरुप का इक्काः ओमप्रकाश राजभर

राज्यसभा चुनावों के ऐन पहले विधानसभा चुनवों में बीजेपी का सापथ देने वाली सुहेलदेव पार्टी के मुखिया ठीक उसी तरह नाराज हो गए जिस तरह उपचुनावों के पहले अनुप्रिया पटेल। लेकिन बीजेपी के बड़े राजनीतिज्ञों की यही कहा है, एक शाम अमित शाह ने राजभर को बेलाकर खाना खिलाया और मामला सेट। सुहेलेदव पार्टी के चार में से तीन बीजेपी के पक्ष में वोट किए।

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