लोकसभा चुनावः राजस्थान में सियासी जोड़-तोड़ में कांग्रेस आगे! चुनाव प्रबंधन में बीजेपी की अग्नि-परीक्षा?
By प्रदीप द्विवेदी | Published: April 20, 2019 05:38 AM2019-04-20T05:38:58+5:302019-04-20T05:38:58+5:30
राजस्थान में इस बार चुनावी तस्वीर बदली हुई है. कुछ समय पहले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की सियासी जोड़-तोड़ देशभर में चर्चा में थी, परन्तु इस बार राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत ने उन्हें मात दे दी है
राजस्थान में इस बार चुनावी तस्वीर बदली हुई है. कुछ समय पहले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की सियासी जोड़-तोड़ देशभर में चर्चा में थी, परन्तु इस बार राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत ने उन्हें मात दे दी है. कुछ समय में ही न केवल एक दर्जन से ज्यादा प्रमुख बागी भाजपाइयों ने कांग्रेस का हाथ थामा है, बल्कि ज्यादातर निर्दलीय विधायकों को भी अपने साथ लेने में सीएम गहलोत कामयाब रहे हैं, मतलब- लोस चुनाव के बाद भी सियासी जोड़-तोड़ से प्रदेश की गहलोत सरकार को हटाने की संभावनाएं खत्म हो गई हैं.
चुनाव प्रबंधन में बीजेपी, कांग्रेस से काफी आगे रही है, लेकिन इस बार इस मामले में भी वह पुरानी व्यवस्थाओं जैसी मजबूत नजर नहीं आ रही है. हालांकि, लोस चुनाव के लिए चार स्तरीय व्यवस्था की गई है, जिसमें लोस क्षेत्र के प्रभारी-संयोजक सहित बूथ स्तर तक के नेताओ-कार्यकर्ताओं को भी शामिल किया गया है. इनके अलावा, नमो वॉलिंटियर्स भी हैं. लेकिन, इस बार चुनाव प्रबंधन में बीजेपी की अग्नि-परीक्षा है, क्योंकि प्रदेश स्तर पर कोई ऐसा प्रमुख नेता पूरे राज्य में सक्रिय नहीं है, जिसका प्रभाव और लोकप्रियता पूरे राजस्थान में हो. वैसे भी राजस्थान में इस वक्त केवल पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ही ऐसी नेता हैं, जिनकी पूरे प्रदेश में पहचान है, किन्तु वे भी विस चुनाव की तरह आक्रामक नजर नहीं आ रही हैं.
अभी प्रदेश में पीएम नरेन्द्र मोदी की कईं सभाएं होने जा रही है, जिनमें यह साफ हो जाएगा कि इस वक्त बीजेपी का कितना पाॅलिटिकल मैनेजमेंट वास्तविक है और कितना दिखावटी, बीजेपी नेताओं की सक्रियता कितनी असली है और कितनी रस्म अदायगी है?राजस्थान में बीजेपी के लिए चुनौती इसलिए भी बड़ी है कि 2014 में यहां की सभी 25 सीटें बीजेपी ने जीत लीं थी, लेकिन अब उन्हें फिर से हांसिल करना बेहद मुश्किल है.
राजस्थान में 25 लोस क्षेत्र हैं, जिनमें प्रत्येक लोस क्षेत्र में आठ विधानसभा क्षेत्र आते हैं. बीजेपी का खास फोकस बूथ स्तर पर है. बीजेपी की हार-जीत इन बूथ समितियों की सक्रियता पर ही निर्भर है कि ये अधिक से अधिक मतदान कैसे करवाती हैं. हर क्षेत्र में करीब आधा दर्जन बूथ समितियों पर शक्ति केन्द्र भी निगरानी और समन्वय के लिए हैं.
यही नहीं, हर लोकसभा क्षेत्र में करीब आधा दर्जन वरिष्ठ बीजेपी नेताओं को भी सारी गतिविधियों पर नजर रखने और निर्देश देने के लिए रखा गया है. अर्थात- चुनाव प्रबंधन के हिसाब से तो सारी पुख्ता व्यवस्थाएं की गई हैं, परन्तु प्रायोगिक रूप से लागू होने पर ही अपेक्षित परिणाम मिल सकते हैं. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश के बीजेपी नेताओं-कार्यकर्ताओं को 2014 की तरह एकजुट और सक्रिय नहीं किया जा सका, तो सैद्धान्तिक सियासी प्रबंधन का कोई बड़ा लाभ नहीं होगा.