गुजरातः चुनाव प्रचार में PM मोदी के भरोसे रहा कमल, कांग्रेस ने किया गांव बनाम शहर की लड़ाई का प्रयास

By महेश खरे | Published: April 24, 2019 08:29 AM2019-04-24T08:29:50+5:302019-04-24T08:29:50+5:30

लोकसभा चुनावः इस बार गांव भाजपा की प्राथमिकता सूची में होने के कारण पीएम मोदी भले ही सूरत में चुनावी रैली नहीं कर पाए हों लेकिन मोदी की यादें आज भी सूरत में जीवंत हैं. बारडोली में तो उनकी मुंह बोली बहन रहती हैं. लेकिन वो कभी किसी से इस बात की चर्चा भी नहीं करतीं.

lok sabha election: bjp depends on narendra modi and congress went village and city for vote in gujarat | गुजरातः चुनाव प्रचार में PM मोदी के भरोसे रहा कमल, कांग्रेस ने किया गांव बनाम शहर की लड़ाई का प्रयास

गुजरातः चुनाव प्रचार में PM मोदी के भरोसे रहा कमल, कांग्रेस ने किया गांव बनाम शहर की लड़ाई का प्रयास

गुजराती देश का प्रधानमंत्री बने यह एहसास ही एक आम गुजराती के लिए गौरव की बात है. वोट देते समय आम गुजराती के मन में यह ख्याल जरूर आता है. फिर सूरत वह शहर है जहां मोदी एक जमाने में स्कूटर पर घूमा करते थे. इस बार गांव भाजपा की प्राथमिकता सूची में होने के कारण पीएम मोदी भले ही सूरत में चुनावी रैली नहीं कर पाए हों लेकिन मोदी की यादें आज भी सूरत में जीवंत हैं. बारडोली में तो उनकी मुंह बोली बहन रहती हैं. लेकिन वो कभी किसी से इस बात की चर्चा भी नहीं करतीं.

अलबत्ता हर रक्षाबंधन को उन्हें राखी बांधने जरूर जाती हैं, जब मोदी गांधीनगर में थे तब भी और अब दिल्ली में हैं तब भी. नरेंद्र मोदी से जुड़े चाहे उनके परजिन हों या यार दोस्त कभी उनसे अपनी निकटता का बखान करते नहीं दिखते. वर्ना गुजरात के कई आम और खास चेहरे ऐसे हैं जिनके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रवेश के लिए औरों की तरह इजाजत नहीं लेनी पड़ती, एक सूचना पहुंचाना मात्र काफी होता है.

यह बात उस समय पता चली जब जीएसटी आंदोलन के दौरान सूरत के कपड़ा व्यापारी प्रधानमंत्री को अपनी व्यथा सुनाने दिल्ली गए. मोदी से मुलाकात की सुखद अनुभूति लिए सूरत लौटे उन व्यापारियों का बयान ही इस बात के महत्व को प्रतिपादित करता है कि गुजरात में मोदी के नाम पर चुनाव लड़ना भाजपा के लिए क्यों सार्थक है. अब तो लोकसभा का यह चुनाव देशभर में मोदी और राष्ट्रवाद के भरोसे लड़ा जा रहा है.

शिक्षित और शहरी वोटरों में पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक और राष्ट्रवाद का मुद्दा जरूर कारगर और प्रभावी नजर आया लेकिन गांव का ग्रामीण मतदाता समस्याओं के बोझ से इस कदर दबा हुआ दिखा कि उसके सामने सबसे बड़ा मुद्दा परिवार के पालन पोषण का है. फसल की बर्बादी ने किसान के पारिवारिक तानेबाने को बुरी तरह झकझोर दिया है. वर्ना 30 से अधिक किसान राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की गुहार लगाने के बारे में क्यों मजबूर होते?

भाजपा देर से समझ पाई कांग्रेस ने किसान की इस दुखती रग पर हाथ रखा-इसका चुनावी लाभ उसे मिल सकता है. तभी तो राज्यसभा सदस्य अहमद पटेल यह दावा कर पाए हैं कि अकेले सौराष्ट्र की कम से कम 5 सीटें कांग्रेस को मिलेंगी.

हालांकि रेल मंत्री पीयूष गोयल ने पटेल के दावे का यह कह कर उपहास उड़ाया कि सपने देखने पर जीएसटी थाड़ेे ही लगता है. कांग्रेस देखती रहे सपने. लेकिन किसान के दर्द और उसकी समस्याएं एक सवाल बनकर खड़ी हैं. जो भी उपाय हुए वो ऊंट के मुंह में जीरा की तरह साबित हुए. इस महत्वपूर्ण प्रश्न को पता नहीं क्यों इस बार भाजपा देर से समझ पाई.

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