अररिया लोकसभा सीट: साहित्यकार रेणु के आंगन में ‘लालटेन’ और ‘कमल’ के बीच जंग, जानें किसका पलड़ा भारी
By भाषा | Published: April 21, 2019 03:19 PM2019-04-21T15:19:43+5:302019-04-21T15:19:43+5:30
लोकसभा चुनाव 2019: बिहार में जूट उद्योग के क्षेत्र में कभी लोहा मनवा चुका और अब मक्का उत्पादन में अग्रणी अररिया देश के 115 सबसे पिछड़े जिलों में शुमार है । यह क्षेत्र सरकारी मेडिकल कॉलेज एवं सरकारी इंजीनियरिंग कालेज की बाट जोह रहा है । कोसी अंचल में इस क्षेत्र को हर साल बाढ़ और कटाव की त्रासदी झेलना पड़ता है।
प्रख्यात साहित्यकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' ने साठ के दशक में अपनी रचना ‘परती परिकथा’ में अररिया की बदहाली का जैसा सजीव चित्रण किया था, कमोबेश वैसे ही सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हालात आज भी यहां देखने को मिलते हैं। पिछले 52 वर्षो में अररिया आरक्षित सीट से सामान्य सीट बन गया लेकिन इसका विकास रेणु की परिकल्पना के अनुरूप नहीं हो पाया। रेणु के इस आंगन में इस बार लोकसभा चुनाव में जंग मुख्यत: ‘लालटेन’ और ‘कमल’ के बीच है।
अररिया में 1967 से लोकसभा चुनाव हो रहा है। 1990 में यह जिला बना। कांग्रेस, जनता पार्टी, जनता दल, भाजपा और राजद समेत सभी राष्ट्रीय - क्षेत्रीय दलों ने अलग- अलग समय पर इस सीट का प्रतिनिधित्व किया है। इस लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी प्रदीप कुमार सिंह और राजद प्रत्याशी सरफराज आलम के बीच आमने-सामने की लड़ाई है। 2014 में तस्लीमुद्दीन इस सीट से सांसद चुने गए थे। इसके बाद हुए उपचुनाव में उनके पुत्र सरफराज आलम जीते।
अररिया लोकसभा सीट पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी
अररिया में पिछड़ेपन के सवालों के बीच लोकसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दों के साथ राष्ट्रीय मुद्दे भी हावी रहते हैं । किसानों के लिये पैदावार की अच्छी कीमत मुद्दा है तो युवा विकास को मुद्दा बता रहे हैं। कई लोग स्थानीय मुद्दे को तरजीह दे रहे हैं। हर वर्ग की अपनी आशा-आकांक्षा के बीच यहां के लोग तेज गति से विकास चाहते हैं। अन्य जिलों की तुलना में अररिया विकास की दौड़ में बहुत पीछे है। यहां शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी बुनियादी सुविधाओं की कमी है । यहां के सांसद सरफराज इस क्षेत्र के पिछड़ेपन के लिए केन्द्र सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताते हैं ।
उनका दावा है कि उनके पिता ने अररिया ही नहीं पूरे सीमांचल के विकास के लिए पहल की और अब वह पिता के काम को आगे बढ़ा रहे हैं । उन्होंने कहा कि अररिया के विकास के लिए उन्होंने केन्द्र सरकार के सभी मंत्रियों से बात की और यहां के विकास पर विशेष ध्यान देने का आग्रह किया।
14 आम चुनावों में तीन बार भाजपा ने की जीत दर्ज
अररिया लोकसभा सीट पर हुए 14 आम चुनावों में तीन बार भाजपा ने जीत दर्ज की है। भाजपा प्रत्याशी प्रदीप कुमार सिंह का कहना है कि अररिया में पंचायत स्तर तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने और अररिया को स्वर्णिम पहचान प्रदान कराना उनका लक्ष्य है । उन्होंने कहा कि सीमांचल के विकास के लिये नरेन्द्र मोदी का दोबारा प्रधानमंत्री बनना जरूरी है और अररिया की जनता इसमें योगदान देने का मन बना चुकी है। भाजपा के लिये सीमांचल की अररिया सीट के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यहां रैली को संबोधित कर चुके हैं जबकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत केंद्रीय मंत्रियों का यहां दौरा हो चुका है ।
अररिया जिला के बारे में
बिहार में जूट उद्योग के क्षेत्र में कभी लोहा मनवा चुका और अब मक्का उत्पादन में अग्रणी अररिया देश के 115 सबसे पिछड़े जिलों में शुमार है । यह क्षेत्र सरकारी मेडिकल कॉलेज एवं सरकारी इंजीनियरिंग कालेज की बाट जोह रहा है । कोसी अंचल में इस क्षेत्र को हर साल बाढ़ और कटाव की त्रासदी झेलना पड़ता है। इस क्षेत्र में कई रेल परियोजनाएं लंबित पड़ी हैं जिसके कारण सीमांचल और मिथिलांचल में रेल मार्ग सुगम नहीं हो पाया। अररिया सीट आजादी के बाद, शुरुआती दशकों में कांग्रेस का गढ़ रही । इसके बाद जनता दल और फिर भाजपा ने यहां से जीत हासिल की । वर्तमान में एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण के कारण राजद यहां मजबूत स्थिति में है ।
अररिया लोकसभा सीट का इतिहास
अररिया लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में छह विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं - नरपतगंज, रानीगंज(सुरक्षित), फारबिसगंज, अररिया, जोकीहाट और सिकटी। इनमें से चार पर राजग काबिज है वहीं एक सीट कांग्रेस और एक राजद के पास है। 1967 से 1977 तक दो बार कांग्रेस के तुलमोहन राम यहां से सांसद रहे। 1977 में जनता पार्टी के महेंद्र नारायण सरदार जीते। 1980 से 1989 तक दो बार हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के डुमरलाल बैठा ने जीत दर्ज की। इसके बाद नौवें, 10वें और 11वें चुनाव में जनता दल के सुखदेव पासवान ने हैट्रिक जीत दर्ज की। 1998 में भाजपा के रामजी दास ऋषिदेव ने सुखदेव पासवान को हरा दिया।
1999 में सुखदेव राजद के टिकट पर और 2004 में भाजपा के टिकट पर पुन: जीते। नया परिसीमन लागू होने के बाद 2009 के चुनाव में यह सीट आरक्षित से सामान्य हो गई। इसके बाद यहां की राजनीति बदल गई। चुनावी मैदान में मोहम्मद तस्लीमुद्दीन आए लेकिन भाजपा जदयू की जोड़ी से वह पराजित हो गये। परिसीमन के बाद पहली जीत भाजपा को मिली। 2014 में भाजपा एवं जदयू के अलग होने का लाभ मो. तस्लीमुद्दीन को मिला और वे चुनाव जीत गये। कार्यकाल पूरा होने से पहले उनका निधन हो गया। मार्च 2018 में हुए उपचुनाव में उनके बेटे सरफराज आलम को राजद के टिकट पर जीत मिली।