लोकसभा चुनाव 2019: संघ के लिए बीजेपी के पक्ष में प्रचार करना कितना मुश्किल होगा?
By विकास कुमार | Published: February 10, 2019 01:17 PM2019-02-10T13:17:20+5:302019-02-10T13:17:20+5:30
पीएम मोदी के 5 साल के कार्यकाल में संघ ने ठीक-ठाक अपना विस्तार किया है. दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम हो या विजयादशमी के भाषण का दूरदर्शन पर लाइव प्रसारण हो, संघ ने राजनीतिक सत्ता के तले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्तार बखूबी किया.
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के पीछे मोदी मैजिक के साथ-साथ संघ का भी अहम योगदान रहा था. अपने वैचारिक सिपाही को केंद्रीय सत्ता में पहुंचाने के लिए संघ ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. संघ के स्वयंसेवक बूथ स्तर पर वोटरों को पहुंचाने का काम कर रहे थे और देश को निराशा के माहौल से निकालने के लिए नरेन्द्र मोदी का पीएम के रूप में पदार्पण को हर नागरिक का राष्ट्रीय कर्त्तव्य बता रहे थे. खैर सत्ता मिली और संघ का मेहनत सफल रहा. नरेन्द्र मोदी के नाम पर देश के साधू-संतों की आँखों में भी हिंदूत्व की भावनाएं तैर रही थी. उन्हें उस सपने के पूरे होने का इंतजार अब खत्म लग रहा था जिसके लिए पिछले दो दशक से वो पूरे देश में धार्मिक पर्यटन कर रहे थे.
क्या अच्छे दिन का वादा पूरा हुआ
युवाओं को रोजगार, किसानों को सही दाम, महिलाओं की सुरक्षा, देश की आंतरिक सुरक्षा, पड़ोसियों से अच्छे संबंध, पाकिस्तान को सबक सीखाना, काले धन की वापसी, भ्रष्टाचार का खात्मा. इन तमाम मुद्दों पर नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता से अच्छे दिन का वादा किया था. रोजगार के मुद्दे पर मोदी सरकार आज भी बैकफूट पर है. किसानों को राहत दी गई है, लेकिन क्या ये प्रयाप्त है? काले धन के मुद्दे पर कुछ शुरूआती सफलताओं के बाद अभी तक मोदी सरकार के हांथ खाली हैं. और रही-सही कसर राम मंदिर ने पूरी कर दी जिसने संघ को भी धर्मसंकट में डाल दिया है.
पिछले दिनों जिस तरह से धर्म संसद में मोहन भागवत के भाषण के दौरान उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा उससे तो यही लग रहा है कि राम मंदिर के मुद्दे पर अब खुद संघ और विश्व हिन्दू परिषद का कार्यकर्ता कोई आश्वासन नहीं चाहता. नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की तरफ से राम मंदिर को लेकर कोई ठोस आश्वासन नहीं मिलना और सुप्रीम कोर्ट का राम मंदिर के मुद्दे को तरजीह नहीं देना संघ के लिए चिंता का सबब बन रहा है.
'कांग्रेस मुक्त भारत' एक राजनीतिक नारा
तमाम उम्मीदों पर नरेन्द्र मोदी कितना खड़ा उतरे हैं इस पर संघ की तरफ से भी अभी कोई फिलहाल आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है. लेकिन अगर पिछले कुछ समय के संघ प्रमुख के बयानों पर गौर किया जाये तो ये साफ अंदेशा मिल जाता है कि आज आरएसएस भी मोदी सरकार के बारे में पब्लिक परसेप्शन को लेकर आशंकित है. संघ प्रमुख ने बीते साल ही कहा था कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' एक राजनीतिक नारा है और संघ इससे इत्तेफाक नहीं रखता है. उन्होंने पिछले साल दिल्ली के विज्ञान भवन में कहा कि संघ का स्वयंसेवक किसी भी पार्टी को वोट दे सकता है. दरअसल उनके इन बयानों से ये साफ झलकता है कि संघ मोदी सरकार के सामानांतर अपने परसेप्शन को खराब नहीं होने देना चाहता. क्योंकि संघ ने राजनीति को हमेशा से दोयम दर्जे का कृत्य समझा है.
गोलवलकर उर्फ़ गुरु जी का राजनीति पर विचार
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उर्फ़ 'गुरु जी' ने राजनीति को हमेशा दोयम दर्ज़े का ही कर्म समझा और उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत रूप से इसमें रूचि नहीं ली. जनसंघ की स्थापना के समय संघ से राजनीति में जाने वाले स्वयंसेवकों से उन्होंने कहा था - आप चाहे राजनीति में जितना ऊपर चले जाएं, अंततः आपको लौटना धरती पर ही होगा. तो क्या आज के राजनीतिक परिदृश्य में ये बात नरेंद्र मोदी पर फिट बैठती है. तो क्या बीते साल विज्ञान भवन में दिए गए अपने संबोधन में संघ प्रमुख विश्व नेता का तमगा पाने वाले अपने स्वयंसेवक को इशारों में यही समझाने की कोशिश कर रहे थे. आप संगठन से हैं, संगठन आप से नहीं है.
पीएम मोदी के 5 साल के कार्यकाल में संघ ने ठीक-ठाक अपना विस्तार किया है. दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम हो या विजयादशमी के भाषण का दूरदर्शन पर लाइव प्रसारण हो, संघ ने राजनीतिक सत्ता के तले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्तार बखूबी किया. मोहन भागवत ने कई मौकों पर अपने स्वयंसेवक और देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का खुल कर बचाव भी किया है. 2019 का लोकसभा चुनाव संघ के लिए भी उसके वैचारिक बैटल का अंतिम पड़ाव है, इसलिए संघ के कार्यकर्ता बीजेपी के पक्ष में प्रचार तो करेंगे ही लेकिन शायद उसमें 2014 की तरह धार नहीं होगा.