क्या हिंदी की प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती ने आपातकाल का समर्थन किया था?
By अरविंद कुमार | Published: April 9, 2021 04:18 PM2021-04-09T16:18:03+5:302021-04-10T17:09:48+5:30
कृष्णा सोबती का जन्म अविभाजित भारत के गुजरात में 18 फरवरी 1925 को हुआ था। अपने लेखने के लिए साहित्य के सभी प्रमुख पुरस्कारों से सम्मानित सोबती का निधन 25 जनवरी 2019 को हुआ।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कृष्णा सोबती ने क्या आपातकाल में कांग्रेस सरकार का समर्थन किया था और इस कारण हिंदी के प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा से उनसे नाराज रहते थे क्योंकि निर्मल जी जयप्रकाश नारायण और फणीश्वर नाथ रेणु के पक्के समर्थक थे। यह सवाल कृष्णा सोबती की हाल ही में प्रकाशित जीवनी में उभर कर एक बार फिर सामने आया है और कृष्णा जी के इस रवैए पर उनके रुख को लेकर सवालिया निशान खड़ा हो गया है।
समकालीन भारतीय साहित्य के पूर्व संपादक और कृष्णा सोबती के करीबी रहे गिरधर राठी ने कृष्णा जी पर लिखी जीवनी" दूसरा जीवन "में इस प्रसंग को पेश किया है। वैसे ,उन्होंने यह भी नहीं लिखा है कि कृष्णा जी ने आपातकाल समर्थन किया पर जब कृष्णा जी इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कुछ नहीं कहा या बोला या लिखा था ।आखिर हिंदी साहित्य में विद्रोहिणी समझी जाने वाली कृष्णा जी की इस चुप्पी का रहस्य क्या था? यह पाठकों के सामने अब तक एक उलझी हुई गुत्थी है।
पाकिस्तान के पंजाब के गुजरात में 18 फरवरी 1925 को कृष्णा सोबती की छवि सत्ता विरोधी छवि के रूप में रही और असहिष्णुता के मुद्दे पर उन्होंने साहित्य एकेडमी पुरस्कार भी लौटा दिया था ।।कलबुर्गी ,पंसारे और दाभोल कर की हत्या के विरोध में जब लेखकों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था तो कृष्णा जी भाग लेने व्हील चेयर पर आई थीं तथा उन्होंने मंच से खुलकर भाजपा का विरोध किया था।
कृष्ण जी लेखकीय स्वतंत्रता की इतनी पैरोकार थीं कि उन्होंने पद्म भूषण भी अस्वीकार कर दिया था और भाजपा के शासनकाल में हिंदी अकादमी से मिला शलाका सम्मान भी ठुकरा दिया था।इतना ही नहीं उन्होंने केके बिरला फाउंडेशन का व्यास सम्मान भी लौटा दिया था।
कृष्णा सोबती का आपातकाल पर रुख
कृष्णा जी की पहचान एक अक्खड़ स्वाभिमानी और गरिमामई लेखिका के रूप में रही है। इस नाते लेखको और पाठकों को कि मन में आज यह जिज्ञासा बनी हुई है कि कृष्णा जी ने आपातकाल का विरोध किया था या नहीं।लेकिन जीवनी कुछ ठोस जानकारी नहीं दे पाती है।
श्री राठी ने हंस पत्रिका में लिए गए इंटरव्यू में कृष्णा जी से आपातकाल के बारे यह सवाल किया था लेकिन उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया ।
इतना ही नहीं सारिका के तत्कालीन संपादक कन्हैयालाल नंदन ने भी एक इंटरव्यू में कृष्णा जी से आपातकाल के बारे में उनसे उनकी राय जानी चाहिए तो उन्होंने इस मुद्दे पर गोलमोल शब्दों में जवाब दिया। तब आज क्या यह मान लिया जाए कृष्णा सोबती ने आपातकाल का मौन समर्थन किया था ?आखिर उनके सामने क्या मजबूरियां थीं?
कुछ वर्ष पहले हिंदी के प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी अपने गुरुवर हजारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी" व्योमकेश दरबार "में यह लिखा था कि द्विवेदी जी ने आपातकाल में इंदिरा गांधी का समर्थन किया था। हाल ही में बाबा नागार्जुन पर प्रकाशित जीवनी" युगों का यात्री "में राजेश जोशी के हवाले से कहा गया है कि भोपाल में 1976 में लेखको का एक सम्मेलन हुआ था जिसका मकसद आपातकाल का समर्थन करना था और उस सम्मेलन में त्रिलोचन रघुवीर सहाय श्रीकांत वर्मा प्रमोद वर्मा प्रभात त्रिपाठी जैसे लोगों ने भाग लिया था।
आपातकाल में लेखको की भूमिका पर जब तक सवाल उठते रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि हिंदी के कई साहित्यकारों ने आपातकाल का विरोध भी किया था जिसमें बाबा नागार्जुन, रेणु जी, धर्मवीर भारती, डॉक्टर रघुवंश जैसे अनेक नामी-गिरामी लेखक भी शामिल थे लेकिन वाम लेखकों ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया था क्योंकि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के साथ थी और जयप्रकाश नारायण को उन दिनों सीआईए का एजेंट तथा फासिस्ट भी बताया गया था।
बकौल विश्वनाथ त्रिपाठी आपातकाल के समर्थन में लेखकों का एक दल इंदिरा गांधी के समर्थन में हस्ताक्षर करने के लिए अज्ञेय के पास गया था लेकिन अज्ञेय ने यह कह कर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया कि किसी सत्ता के समर्थन में हस्ताक्षर करना लेखक का काम नहीं है जबकि अज्ञेय की छवि वाम छवि नहीं थी और वामपंथियों ने हमेशा आगे पर निशाना साधने का काम किया था और उन्हें प्रतिक्रियावादी लेखक तक करार दिया था।
निर्मल वर्मा की कृष्णा सोबती से नाराजगी
गिरधर राठी की कृष्णा सोबती पर लिखी गई है जीवनी इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि खुद गिरधर राठी आपातकाल के विरोध में जेल में गए थे। तिहाड़ जेल में उनके साथ अरुण जेटली भी थे जो उन दिनों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता थे और उस जेल में गिरधर राठी के अलावा डीपी त्रिपाठी भी मौजूद थे जो बाद में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव और राज्यसभा के सदस्य बने। इसके अलावा प्रसिद्ध आलोचक और जनवादी लेखक संघ के महासचिव डॉ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह भी उनके साथ जेल में थे।
राठी ने लिखा है कि " मेरे जेल जीवन के बारे में कृष्णा जी और उनके पति शिवनाथ जी से मेरी तथा मेरी पत्नी चंद किरण की बातें जरूर हुई थी ।आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत ढंग से सक्रिय निर्मल वर्मा से मेरी पत्नी चंद किरण उन दिनों कई बार मिली थी जब मैं तिहाड़ जेल और जयपुर जेल में था। हम जानते थे कि निर्मल जी इसी मुद्दे पर कृष्णा जी से नाराज रहते थे। उनके कथानुसार कृष्णा जी इमरजेंसी का समर्थन कर रही थीं लेकिन संयोग से यह मुद्दा कभी कृष्णा जी के साथ हमारे संबंधों में आड़े नहीं आया।"
निर्मल वर्मा और श्रीकांत वर्मा में तकरार
गिरधर राठी जी ने लिखा है कि 14 जून 1975 एक शाम भीष्म साहनी शीला साहनी के घर पर शाम की चाय दावत पर निर्मल वर्मा कृष्णा सोबती राजेंद्र यादव मन्नू भंडारी श्रीकांत वर्मा अजीत कुमार और स्नेहमयी चौधरी के अलावा रूस के हिंदी के प्रोफेसर बरान्निकोव भी मौजूद थे। उस बैठक में श्रीकांत वर्मा तो इंदिरा जी के समर्थन में बोल रहे थे लेकिन निर्मल वर्मा उसके खिलाफ थे लेकिन अन्य लोगों में कृष्णा जी का स्वयं का क्या रुख था, यह स्पष्ट नहीं हो पाया।
इसी तरह राजकमल प्रकाशन की मालकिन शीला संधू के घर पर एक पार्टी में श्रीकांत वर्मा निर्मल वर्मा मौजूद थे और कृष्णा सोबती भी उपस्थित थीं। श्रीकांत वर्मा ने निर्मल वर्मा से पूछा था कि राजीव गांधी पर वह पुस्तक आपने पढ़ी है क्या? इस प्रश्न पर निर्मल बेहद खफा हुए थे अंत में श्रीकांत वर्मा दावत छोड़ कर चले गए थे । इस दौरान प्रयाग शुक्ल वहाँ मौजूद थे। उनका कहना है कि उस भयानक बहस के दौरान कृष्णा सोबती केवल हंसती रही थीं।
गौरतलब है कि नागार्जुन पर अद्भुत आलेख में कृष्णा सोबती (हशमत) ने उनकी जेल यात्राओं का कोई जिक्र नहीं किया। राठी ने जीवनी में यह भी लिखा है की एक लेखक ने दावा किया था कि इंदिरा गांधी को आपातकाल की घोषणा के बाद समर्थन देने के लिए पहुंचे एक लेखकों के प्रतिनिधिमंडल की तस्वीर उन्होंने देखी है। उसमें लॉन बगीचे की पृष्ठभूमि में कृष्णा जी अपनी खास पोषाक और काले चश्मे में मौजूद हैं लेकिन दिल्ली भोपाल इटारसी मुंबई पटना आदि अनेक स्थानों पर मित्रों से पूछताछ के बाद (एक संग्रहालय में तलाश के बावजूद) वह फोटो मैं खोज नहीं पाया।
आपातकाल के समर्थक 40 हिंदी लेखक
राठी जी ने लिखा है, कृष्णा जी उन दिनों सरकारी पद पर थीं (दिल्ली सरकार में संपादक के पद पर) इसलिए प्रकट विरोध की गुंजाइश नहीं थी लेकिन समर्थन किया हो ऐसा भी नहीं मिला। 29 जून 1975 को डॉ हरिवंश राय बच्चन और अमृता प्रीतम आदि 40 लेखों का आपातकाल के समर्थन में जो वक्तव्य भी निकला था, उसमें कृष्णा सोबती का नाम नहीं था।
आपातकाल समर्थक हिंदी लेखकों के उस वक्तव्य को प्रेस इनफॉरमेशन ब्यूरो ने 2019 में फिर से प्रसारित किया था क्योंकि उन दिनों एक कैबिनेट की प्रेस ब्रीफिंग में अरुण अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद ने यह कहा था कि हिंदी के लेखकों ने असहिष्णुता के मुद्दे पर आज आवाज उठाई है लेकिन उन्होंने आपातकाल के विरोध में आवाज नहीं उठाई थी। उनके इस बयान से मीडिया में काफी विवाद भी हुआ और इन पंक्तियों के लेखक ने भी उस ब्रीफिंग में श्री रविशंकर प्रसाद से कहा था कि आपातकाल का विरोध तो नागार्जुन रेणुजी डॉक्टर रघुवंश जैसे अनेक लोगों ने किया था है तब रविशंकर प्रसाद के पास कोई जवाब नहीं था। बाद में सूचना प्रसारण मंत्रालय ने श्री जेटली और रविशंकर प्रसाद के वक्तव्य के समर्थन में हरिवंश राय बच्चन और अमृता प्रीतम के हस्ताक्षर युक्त वाला वह बयान फिर से जारी किया जिस पर 40 लेखकों के हस्ताक्षर शामिल थे ।
राठी जी ने यह भी लिखा है," अगर उनकी (कृष्णा सोबती) भतीजी बीबा सोबती के उस संस्मरण में नेहरू जी तथा उनके परिवार से निकटता को साक्ष्य माने तो इंदिरा गांधी की प्रशंसक होने के नाते उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन ही किया होगा ?लेकिन संविधान आजादी इत्यादि के प्रश्नों पर उनकी मुखर उग्र प्रतिक्रियाओं के लंबे इतिहास से यह रवैया कुछ मेल नहीं खाता।"
गिरधर राठी का यह बयान कृष्णा जी की बनी छवि के उलट जाता है।कृष्णा जी तो इतनी अक्खड़ थीं कि अमृता प्रीतम के खिलाफ कॉपी राइट मामले में वर्षों मुकदमे लड़ती रहीं और अपने तीन मकान इस अदालती लड़ाई में बेच दिए।संपादकों प्रकाशकों एकेडमी से सिद्धांतों के लिए लड़ाई लड़ती रहीं।ऐसी जुझारू लेखिका आपातकाल में क्यों मौन रही।
इस जीवनी में अनेक किस्से है।एक यह भी कि दिल्ली के एक हाल में नेहरू जी माउंटबेटन की पत्नी के साथ मीरा फिल्म देखने गए थे उस पिक्चर हॉल में कृष्णा सोबती भी थी और वहां माउंटबेटन जिंदाबाद के नारे लगे।इस तरह की बहुत दिलचस्प जानकारियां हैं इस किताब में। सोबती की यह जीवनी रजा फाउंडेशन की जीवनियों की योजना के तहत प्रकाशित की गयी है।