Ganesh Shankar Vidyarthi Death Anniversary: अंग्रेजी हुकूमत ने कई बार किया गिरफ्तार, दंगे में हुई थी हत्या
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 25, 2022 11:11 AM2022-03-25T11:11:47+5:302022-03-25T11:16:15+5:30
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी जिन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बेखौफ और निडर होकर खूब लिखा, जिसके चलते उन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने कई बार गिरफ्तार कर जेल में बंद भी किया। मगर इसके बावजूद उनके हौसले कमजोर नहीं पड़े।
नई दिल्ली: गुलामी के उस दौर में जब अंग्रेजों ने भारतवासियों पर जुल्म और शोषण की इंतेहा कर दी थी, जब ब्रिटिश हुकूमत का खौफ इतना था कि देश की आजादी के लिए उठने वाली हर आवाज दबा दी जाती थी, उस समय में एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी जिसने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बेखौफ और निडर होकर खूब लिखा, उस महान सेनानी का नाम है, गणेश शंकर विद्यार्थी।
आज उसी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की पुण्यतिथि है, जिसने अंग्रेजी शासन की नींद उड़ा दी थी। उनके बारे में कई बातें चर्चाए आम हो चुकी हैं। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्हें फिर से याद करने जरूरत है। 26 अक्टूबर 1890 को जन्मे गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ की 25 मार्च 1931 को बेहरमी से हत्या कर दी गई थी।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने उर्दू में की थी शुरुआती पढ़ाई
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’का जन्म इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता का नाम जयनारायण था। वे ग्वालियर रियासत में मुंगावली के एक स्कूल में हेडमास्टर थे। गणेश का बाल्यकाल वहीं बीता। यहीं पर प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई। उनकी पढ़ाई की शुरुआत उर्दू से हुई। लेकिन बाद में उन्होंने अंग्रेजी और हिन्दी की शिक्षा ली। इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला में पढ़ने के दौरान उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ।
30 रुपये में मिली पहली नौकरी
घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण उन्होंने 1908 में कानपुर के करेंसी ऑफिस में 30 रुपये प्रति महीने की नौकरी की। लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा हो जाने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद उन्होंने कानपुर के पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में सन 1910 तक अध्यापन का कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखे।
विद्यार्थी उनका उपनाम
गणेश शंकर विद्यार्थी का मन पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों में रमता था इसलिए वे अपने जीवन के आरम्भ में ही स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े। उन्होंने ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपनाया और इसी नाम से लिखने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता जगत के अगुआ पंडित महावीर प्रसाद द्वीवेदी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जिन्होंने विद्यार्थी को सन 1911 में अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उप-संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन विद्यार्थी की रुचि सम-सामयिक विषयों और राजनीति में ज्यादा थी इसलिए उन्होंने हिंदी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ में नौकरी कर ली।
पीड़ित किसानों, मिल मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों के दुखों को उजागर किया
साल 1913 में विद्यार्थी कानपुर वापस लौट गए और एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वाधीनता कर्मी के तौर पर अपना करियर प्रारंभ किया। इसी दौरान उन्होंने पत्रिका ‘प्रताप’ की स्थापना की और उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद किया। इस पत्रिका में उन्होंने पीड़ित किसानों, मिल मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों के दुखों को उजागर किया। इस चक्कर में अंग्रेजी हुकूमत ने कई मुक़दमे किए, जुर्माना लगाया और कई बार गिरफ्तार भी हुए।
महात्मा गांधी से मुलाकात
सन 1916 में महात्मा गांधी से उनकी पहली मुलाकात हुई जिसके बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया। सन 1917-18 में ‘होम रूल’ आन्दोलन में विद्यार्थी जी ने प्रमुख भुमिका निभाई। सन 1920 में उन्होंने प्रताप का दैनिक संस्करण आरम्भ किया और उसी साल उन्हें राय बरेली के किसानों के हितों की लड़ाई करने के लिए 2 साल की कठोर कारावास की सजा हुई। सन 1922 में विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। सन 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया पर उनके स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था फिर भी वे जी-जान से कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन (1925) की तैयारी में जुट गए।
सन 1925 में कांग्रेस के राज्य विधानसभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर से यूपी विधानसभा के लिए चुने गए और सन 1929 में त्यागपत्र दे दिया जब कांग्रेस ने विधान सभाओं को छोड़ने का फैसला लिया। मार्च 1931 में कानपुर में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए जिसमें हजारों लोग मारे गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ने आतंकियों के बीच जाकर हजारों लोगों को बचाया पर खुद एक ऐसी ही हिंसक भीड़ में फंस गए जिसने उनकी बेरहमी से हत्या कर दी। कहा जाता है कि एक ऐसा मसीहा जिसने हजारों लोगों की जाने बचाई थी खुद धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया।