राजेश बादल का ब्लॉग: सोच का इतना संकट तो कांग्रेस में कभी नहीं रहा
By राजेश बादल | Published: August 13, 2019 05:59 AM2019-08-13T05:59:06+5:302019-08-13T05:59:06+5:30
अगर परिवारवाद की बात पर हो रही आलोचना कांग्रेस अध्यक्ष के पद छोड़ने का कारण है तो उन्हें समझना होगा कि आज के भारत में कोई भी राजनीतिक दल इससे मुक्त नहीं है. ऐसा करके कांग्रेस सिर्फ भाजपा के बिछाए जाल में फंस रही है..
लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को क्या हो गया है? यह सवाल इन दिनों भारत के हर जिम्मेदार नागरिक के मन में है. लोकतंत्र में सबसे बड़े विपक्षी दल ने जिस तरह देश को अनमने ढंग से लेना शुरू किया है, उससे भरोसा नहीं होता कि कांग्रेस भारत में 45 साल सत्ता में रह चुकी है. बेशक सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह आनंद का विषय हो सकता है मगर हिंदुस्तान के लिए यह शुभ संकेत नहीं है. प्रतिपक्ष के बिना कोई भी लोकतंत्र विकलांग ही माना जाएगा.
भारतीय समाज अभी चीन की तरह एक दलीय प्रणाली के लिए तैयार नहीं है न ही भारत का संविधान इसकी अनुमति देता है. एकदलीय प्रणाली असल में अधिनायकवादी प्रवृत्ति का ही प्रतिनिधित्व करती है. यह हिंदुस्तान के चरित्न से मेल नहीं खाती. यह सच्चाई पक्ष और प्रतिपक्ष के शिखर पुरुषों को स्वीकार कर लेनी चाहिए.
मुल्क का सियासी अतीत देखें तो कांग्रेस ने बड़े सुनहरे दिन देखे हैं लेकिन दूसरी ओर वह अत्यंत दुर्बल और महीन काया में भी नजर आती रही है. इन दोनों स्थितियों में उसका विचार पक्ष हमेशा प्रबल रहा है. आजादी के बाद नेहरू-युग तो इस नजरिए से बेहद ताकतवर माना जा सकता है. इंदिरा-युग भी राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर किसी गलतफहमी का शिकार नहीं रहा. पार्टी के नेतृत्व को कभी राजनीतिक दिशा या मतिभ्रम रहा हो, ऐसा भी नहीं लगा. राजीव गांधी की पारी संक्षिप्त ही रही मगर उस दौर में भी पार्टी भटकाव के दौर से नहीं गुजरी.
पंजाब में आतंकवाद पर काबू पाया गया. संत लोंगोवाल से समझौता हुआ. सूचना क्रांति हुई. टेलीविजन, कम्प्यूटर और मोबाइल का विराट जाल फैला. डिजिटल इंडिया का आगाज हुआ. पंचायतराज लागू हुआ. महिलाओं को निकायों में 33 फीसदी आरक्षण दिलाया गया और नौजवानों के लिए मतदान की उमर 21 से घटाकर 18 वर्ष करने का ऐतिहासिक फैसला लिया गया. आर्थिक उदारीकरण की पहली खिड़की भी राजीव गांधी के कार्यकाल में खुली और चीन के साथ बेहतर रिश्तों की शुरु आत हुई. बुरे दिनों में कांग्रेस के नेता पार्टी का साथ छोड़ते रहे हैं.
विचारधारा पर अडिग रही कांग्रेस
वी.पी. सिंह और अरुण नेहरू जैसे सहयोगियों के साथ छोड़ने के बाद भी कांग्रेस ने अपनी विचारधारा नहीं छोड़ी. सबसे अधिक सीटें हासिल करने के बाद भी बहुमत न होने के कारण सरकार बनाने से इनकार कर दिया. प्रधानमंत्री पद का सपना देख रहे वी.पी. सिंह ने विचारधाराओं को ताक पर रखकर भाजपा और वामपंथियों की मदद से सरकार बनाई और थोड़े समय में औंधे मुंह गिरे.
वास्तव में पाकिस्तान तो अलग-थलग डॉ. मनमोहन के कार्यकाल में हुआ
इसके बाद डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में आर्थिक उपलब्धियों के कीर्तिमान बने. अंतरिक्ष जगत में धूम मची और मनरेगा, सूचना का अधिकार और खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए गए. पाकिस्तान को अलग-थलग करने का काम तो वास्तव में इसी दौरान हुआ था. डॉ. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान की धरती पर कदम तक नहीं रखा.
उपरोक्त सूचनाओं को दोहराने का मकसद यही है कि नीतियों को लेकर या राजनीतिक कदमों के बारे में इस पुरानी पार्टी के अंदर कभी ठिठक या जड़ता नहीं देखी गई. फिर दो लोकसभा चुनाव में लगातार पराजय से पलायन भाव उपजने का क्या कारण है? आखिर विपक्ष ने भी तो 2004 और 2009 में हार का मुंह देखा था. याद करिए 2004 की मात वाजपेयी सरकार के लिए कितना बड़ा झटका था. एक लोकसभा चुनाव में तो भाजपा की सिर्फ 2 सीटें आई थीं. इन शिकस्तों के कारण प्रतिपक्ष न कोमा में गया और न किसी ने हाहाकारी विलाप किया. फिर 134 साल पुरानी पार्टी के नए नेतृत्व को भारत की लोकतांत्रिक भावना से खिलवाड़ करने का क्या अधिकार है?
कांग्रेस अध्यक्ष को यदि इस बात से सदमा लगा है कि लोकसभा चुनाव के बाद नैतिक आधार पर इस्तीफों की झड़ी क्यों नहीं लगी तो यह एक मासूम तर्क है. साल डेढ़ साल के भीतर तीन विधानसभाओं में जीत और गुजरात में सत्तारूढ़ दल को दो अंकों में समेट देने का काम भी तो इसी टीम ने किया था. कर्नाटक में भाजपा को हार का स्वाद चखने का अवसर कौन सा इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की टीम ने दिया था. अध्यक्ष के अपनी ही टीम से खफा होने की तुक समझ में नहीं आती.
दरअसल कांग्रेस पार्टी ऐसा संगठन नहीं है, जिसे निजी जिद या सनक से घर की दुकान की तरह चलाया जा सकता हो. यह ऐसा आंदोलन है, जिसमें शामिल होने के बाद वापसी का कोई रास्ता नहीं है. अगर परिवारवाद की बात पर हो रही आलोचना कांग्रेस अध्यक्ष के पद छोड़ने का कारण है तो उन्हें समझना होगा कि आज के भारत में कोई भी राजनीतिक दल इससे मुक्त नहीं है.
देखा जाए तो भाजपा को कांग्रेस से नहीं, सिर्फ और सिर्फ गांधी-नेहरू परिवार से खतरा है. यदि उसकी तीखी आलोचना से घबराकर यह परिवार अपने को अलग कर रहा है तो इसका अर्थ यह भी निकलता है कि परिवार भाजपा के बिछाए जाल में उलझ गया है.
आजादी के आंदोलन से तपी तपाई पार्टी आज भी करीब चालीस फीसदी वोट पर पकड़ रखती है. यह आबादी इस देश में स्वस्थ लोकतंत्न को जिंदा रखने की हिमायती है. वह असहमत सुरों की आवाज है. धड़कते गणतंत्र में इस आवाज को कुचलने के अपराध की मुजरिम कांग्रेस न बने तो बेहतर. उम्मीद है अंतरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी इसे याद रखेंगी.