पुस्तक समीक्षा: आंकड़ों के सहारे भारत के चुनावों की कहानी और विश्लेषण
By आदित्य द्विवेदी | Published: September 9, 2019 11:32 AM2019-09-09T11:32:39+5:302019-09-09T11:35:43+5:30
भारतीय जनादेशः चुनावों का विश्लेषण (Book Review): प्रॉनाय रॉय और दोराब रु. सोपारीवाला की किताब 'भारतीय जनादेशः चुनाव का विश्लेषण' भारत में चुनावों को समझने का एक नजरिया देती है। यह किताब भारतीय चुनाव के पिछले सात दशकों की उठा-पटक पर सूक्ष्म और सटीक विश्लेषण पेश करती है।
किताबः भारतीय जनादेश- चुनावों का विश्लेषण
लेखकः प्रॉनाय रॉय, दोराब रु. सोपारीवाला
प्रकाशकः पेंगुइन बुक्स
पेजः 283
मूल्यः 399 रुपये
लोकतंत्र हर भारतीय के डीएनए में पैवस्त है। यह हमारी आंतरिक चेतना का हिस्सा है।
प्रॉनाय रॉय और दोराब रु. सोपारीवाला की किताब 'भारतीय जनादेशः चुनाव का विश्लेषण' भारत में चुनावों को समझने का एक नजरिया देती है। यह किताब भारतीय चुनाव के पिछले सात दशकों की उठा-पटक पर सूक्ष्म और सटीक विश्लेषण करती है। एनडीटीवी के संस्थापक प्रॉनाय ने टीवी के जरिए आम जनता के बीच चुनाव को बेहद आसान तरीके से समझाया है। अब यही काम वो इस किताब के जरिए करते दिखाई देते हैं। यह किताब अंग्रेजी की 'The Verdict: Decoding India's Elections' का हिंदी संस्करण है जिसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया है।इसका सधा हुआ अनुवाद पत्रकार मंजीत ठाकुर ने किया है।
पांच खंडों में लिखी गई इस किताब की उपयोगिता को समझने के लिए निम्नलिखित तीन बातों को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है।
1. इस किताब में पिछले सत्तर साल के चुनाव का एक आकलन किया गया है। आंकड़ों के जरिए चुनावों की कहानी कहने की कोशिश की गई है।
2. इस किताब में महिला वोटर की स्थिति पर गंभीरता से विश्लेषण किया गया है। मसलन क्या आज भी महिला अपने पति या पिता के कहने पर वोट देती है अथवा यह ट्रेंड बदलना शुरू हो गया है?
3. इस किताब में तार्किकता और आंकड़ों के जरिए मतदान का ट्रेंड समझाने की कोशिश की गई है। उदाहरण के लिए क्या आम मतदाताओं के लिए भी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का चेहरा उतना ही मायने रखता है जितना शहरी वोटर और मीडिया के लिए अथवा वो क्षेत्रीय मुद्दों पर अधिक ध्यान देता है?
किताब के पहले अध्याय में ही लिखा गया है, 'इस किताब का एक अहम मकसद है मतदाता के व्यवहार के प्रति ज्यादा दिलचस्पी जगाना और उम्मीद रखना कि इन दिशा में और रिसर्च होगी।'
अगर आप राजनीति और चुनावों में रुचि रखते हैं तो बेहतर अगर नहीं भी रखते तो यह किताब आपको आगामी चुनावों को समझने का एक नजरिया देगी। किताब के विषय को देखते हुए इस उबाऊ और कठिन होने की प्रबल संभावना थी लेकिन लेखक ने कई ऐसी रोचक चीज़ों का समावेश किया है जो इसके प्रवाह को बरकरार रखती हैं।
मसलन एक कैबिनेट मिनिस्टर, जिसका नाम किताब में नहीं दिया गया है, ने एकबार दूरदर्शन के निदेशक को कहा कि वो पार्टी के मेहमानों के लिए एक विशेष बॉलीवुड गाना बजाएं। इस वजह से भले ही न्यूज पांच मिनट देरी से प्रसारित हो।
इस किताब में कुछ रोचक तथ्य भी दिए गए हैं। जैसे 1952 से 1998 के बीच जब भारत में बैलट पेपर से चुनाव होते थे तो इसके कागज के लिए 10 मिलियन पेड़ों की कटाई की गई। ईवीएम आने के बाद कितने पेड़ बच गए इसकी गणना आप खुद कर सकते हैं। ईवीएम टेम्परिंग विवाद पर लेखक का स्पष्ट मानना है कि इसे टेंपर नहीं किया जा सकता।
इस किताब में लेखक ने बताया है कि कैसे भारतीय चुनावों में आजादी के बाद 1977 तक प्रो-इंकम्बेंसी थी लेकिन 1977 से 2002 तक एंटी इंकम्बेंसी हावी रही। लेकिन 2002 के बाद मामला 50-50 का हो गया है। यानी चुनाव से पहले बहुत सटीक भविष्यवाणी करना मुश्किल है। हालांकि ये किताब 2019 लोकसभा चुनाव नतीजों के पहले लिखी गई है।
ओपिनियन और एक्सिट पोल आजकल एक मजाक बनकर रह गए हैं। इस किताब में 833 (1980-2018) चुनावों की भविष्यवाणी के आंकड़े पेश किए गए हैं। इन आकंड़ों से जाहिर होता है कि ये सर्वेक्षण इतने भी बुरे नहीं साबित हुए। चार में से तीन बार सर्वेक्षणों ने सही विजेता बताया है। एग्जिट पोल के मामले में सफलता की दर करीब 84 प्रतिशत है।
लोकतंत्र की चर्चा से शुरू हुई इस किताब का अंत कुछ इस तरह होता है, 'हमारे लोकतंत्र की असली ताकत वह अनजान वोटर है जो देश के चारों दिशाओं में मौजूद है और वही इस लोकतांत्रिक देश का अभिभावक भी है।'
Final Verdict: अगर आपको भी लगता है कि भारत के चुनाव और उसके ट्रेंड बेहद उलझे हुए हैं तो ये किताब उन्हें कहानियों, टेबल और ग्राफ के जरिए आसान बनाती जाती है। राजनीति और चुनाव में रुचि रखने वालों और जो लोग इस देश के चुनावी ट्रेंड को समझना चाहते हैं। उन्हें ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए।