बंबई उच्च न्यायालय ने केंद्र से पूछा-क्या अत्यधिक मीडिया रिपोर्टिंग से न्याय बाधित होता है? 

By भाषा | Published: October 29, 2020 08:02 PM2020-10-29T20:02:08+5:302020-10-29T20:02:08+5:30

मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जी एस कुलकर्णी की पीठ ने सरकार से छह नवंबर तक यह बताने को कहा है कि क्या खबरों की रिपोर्टिंग जांच को एवं इसके बाद चलने वाले मुकदमे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, और क्या अदालत को मीडिया की रिपोर्टिंग पर दिशानिर्देश निर्धारित करना चाहिए ?

Bombay High Court Center Sushant Singh Rajput excessive media reporting impede justice | बंबई उच्च न्यायालय ने केंद्र से पूछा-क्या अत्यधिक मीडिया रिपोर्टिंग से न्याय बाधित होता है? 

एक पुलिस अधिकारी के बारे में सोचिए। क्या कोई इस बात की गारंटी दे सकता है कि वह प्रभावित नहीं होगा?

Highlightsमीडिया द्वारा ‘‘अत्यधिक’’ रिपोर्टिंग करना क्या अदालत की अवमानना अधिनियम के तहत न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप होगा ?अदालत ने कहा, ‘‘हम यह नहीं चाहेंगे कि मीडिया अपनी लक्ष्मण रेखा लांघे और हम यह भी चाहेंगे कि हम लोग भी अपनी सीमाओं के अंदर रहें।’’ रिपोर्टिंग दखलंदाजी होगी और क्या सरकार ने सोचा है कि उच्च न्यायालय के पास दिशा-निर्देश तय करने का अधिकार क्षेत्र है?

मुंबईः बंबई उच्च न्यायालय ने बृहस्पतिवार को केंद्र सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा कि किसी मामले में चल रही जांच में मीडिया द्वारा ‘‘अत्यधिक’’ रिपोर्टिंग करना क्या अदालत की अवमानना अधिनियम के तहत न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप होगा ?

मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जी एस कुलकर्णी की पीठ ने सरकार से छह नवंबर तक यह बताने को कहा है कि क्या खबरों की रिपोर्टिंग जांच को एवं इसके बाद चलने वाले मुकदमे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, और क्या अदालत को मीडिया की रिपोर्टिंग पर दिशानिर्देश निर्धारित करना चाहिए ?

पीठ ने कहा, ‘‘यदि अत्यधिक रिपोर्टिंग हो रही है, तो यह आरोपी को सतर्क कर सकता है और वह साक्ष्यों को नष्ट कर सकता है या फरार हो सकता है या यदि वह व्यक्ति बेकसूर है, तो मीडिया की जरूरत से ज्यादा रिपोर्टिंग उसकी छवि खराब कर सकती है।’’

अदालत ने कहा, ‘‘हम यह नहीं चाहेंगे कि मीडिया अपनी लक्ष्मण रेखा लांघे और हम यह भी चाहेंगे कि हम लोग भी अपनी सीमाओं के अंदर रहें।’’ साथ ही, पीठ ने सरकार से पूछा कि क्या इस तरह की रिपोर्टिंग दखलंदाजी होगी और क्या सरकार ने सोचा है कि उच्च न्यायालय के पास दिशा-निर्देश तय करने का अधिकार क्षेत्र है?

न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप है और क्या हमें दिशानिर्देश निर्धारित करना चाहिए?

उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘क्या मीडिया की अत्यधिक रिपोर्टिंग अदालत की अवमानना अधिनियम की धारा 2 (सी) के तहत न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप है और क्या हमें दिशानिर्देश निर्धारित करना चाहिए? हमारे समक्ष यह मुद्दा है। ’’

अदालत ने अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल (एएसजी) अनिल सिंह से उन परिदृश्यों पर भी विचार करने को कहा, जहां किसी मामले की चल रही जांच पर (जिसमें आरोपपत्र दाखिल किया जाना बाकी हो) इस तरह की रिपोर्टिंग ने जांच अधिकारी (आईओ) को प्रभावित किया हो, या इसके परिणामस्वरूप गवाहों को धमकी मिली हो। उच्च न्यायालय ने कहा कि क्या अदालत को कदम उठाना ही पड़ेगा और इस तरह के परिदृश्यों से बचने के लिये प्रेस का नियमन करने को लेकर दिशानिर्देश तैयार करना होगा ? प्रेस द्वारा किसी जांच अधिकारी को प्रभावित किये जाने की संभावना पर उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘एक पुलिस अधिकारी के बारे में सोचिए। क्या कोई इस बात की गारंटी दे सकता है कि वह प्रभावित नहीं होगा?’’

अदालत ने कहा, ‘‘वह किसी खास पहलू पर आगे बढ़ रहा होगा। मीडिया कहेगा कि नहीं-नहीं, यह सही रास्ता नहीं है। वह उस रास्ते से भटक जाएगा और किसी बेकसूर व्यक्ति को पकड़ लेगा अथवा यदि अधिकारी सक्षम है और वह प्रभावित नहीं होता है तो मीडिया उसकी छवि धूमिल करना शुरू कर देता है। क्या ‘कानून का शासन ’वाले समाज में इसे उचित ठहराया जा सकता है। ’’ अदालत कई जनहित याचिकाओं के एक समूह पर अंतिम दलीलें सुन रही है। इन याचिकाओं के जरिये यह अनुरोध किया गया है कि अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच में ‘मीडिया ट्रायल’ बंद किया जाए।

कुछ कार्यकर्ताओं और सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों ने दायर की थीं

ये याचिकाएं कुछ कार्यकर्ताओं और सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों ने दायर की थीं। पिछली सुनवाई के दौरान टीवी चैनलों और नेशनल ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड ऑथरिटी (एनबीएसए) ने स्व-नियमन तंत्र के पक्ष में दलील दी थी और कहा था कि सरकार को उनकी सामग्री (खबरों) पर नियंत्रण नहीं करने दिया जाना चाहिए।

उच्च न्यायालय ने कहा कि उसे सरकार से उम्मीद है कि वह उपरोक्त सवालों का अदालत को जवाब देगी। अदालत ने एएसजी सिंह को अपनी लिखित दलील दाखिल करने और पीठ द्वारा उठाये गये सभी सवालों का जवाब अदालत को छह नवंबर को देने का निर्देश दिया।

अदालत ने कहा कि मीडिया अक्सर अपनी रिपोर्टिंग का यह कहते हुए बचाव करती है कि उसने खोजी पत्रकारिता की है। पीठ ने हालांकि कहा कि खोजी पत्रकारिता का मतलब है ‘सच्चाई का खुलासा करना।’ अदालत ने पूछा, ‘‘क्या ऐसा कोई कानून है, जो कहता है कि जांच एजेंसी ने सबूत के तौर पर जो कुछ जुटाया है उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए?

जांच अधिकारी का यह दायित्व कहां है कि वह साक्ष्य का खुलासा करेगा?’’ अदालत ने जानना चाहा, ‘‘पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट पहले ही मीडिया के पास कैसे आ गई? क्या हमें इन पहलुओं पर दिशानिर्देश निर्धारित करना चाहिए?’’ अदालत ने यह भी कहा कि यदि प्रेस के पास कोई ऐसी सूचना है जो जांच में मददगार साबित हो सकती है तो उसे ऐसी सूचना दंड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) की धारा 38 के तहत पुलिस को देनी चाहिए। 

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