Bihar Election: बिहार की दशा और दिशा बदलने के दावों के साथ किये जा रहे हैं लुभावने वादे, चली जा रही हैं चालें
By एस पी सिन्हा | Published: October 17, 2020 05:07 PM2020-10-17T17:07:56+5:302020-10-17T17:07:56+5:30
छोटे दलों के ये गठबंधन सत्ता तक भले ही नहीं पहुंच पायें, लेकिन बड़े दलों के सत्ता समीकरण को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
पटना: बिहार की राजनीति नई लकीर पर चल निकली है. विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरे आधा दर्जन के करीब 'गठबंधन' राजनीति की दिशा बदलने को आतुर दिख रहे हैं. बिहार ही नहीं संभवत: देश में किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव के रण में इतने मोर्चे पहली बार देखने को मिल रहे हैं.
जाति की राजनीति में चेहरे की राजनीति उभर आई है. दशकों बाद हुए इस बदलाव ने राजनीति को मुद्दों से भटका कर अवसर खोजने की राजनीति में बदल दिया है. छोटे दलों के ये गठबंधन सत्ता तक भले ही नहीं पहुंच पायें, लेकिन बड़े दलों के सत्ता समीकरण को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
आजादी के कई सालों बाद जाति से ऊपर उठकर जमात की दिशा में बढ़ी बिहार की राजनीति में बिहार विधानसभा चुनाव में जाति से भी एक कदम पीछे पहुंच गई है. नये-पुराने सियासी चेहरों की महत्वाकांक्षा का ये गठबंधन कितना सफल हुआ यह 10 नवंबर को इतिहास बनकर दर्ज हो जायेगा.
एक दल-विचार से निकले नेता अब अपनी-अपनी जाति की पार्टी बनाकर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए और तेजस्वी यादव की अगुआई में महागठबंधन को चुनौती दे रहे हैं. क्षेत्र विशेष अथवा एक-दो विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाले ये क्षेत्रीय दल- छोटी पार्टियों ने एनडीए और महागठबंधन के नेतृत्व को अस्वीकार कर दिया है.
अपनी जमीन तैयार करने को नया मोर्चा बना लिया है. इनकी संख्या करीब आधा दर्जन हो गई है. राजनीति के जानकारों के अनुसार राज्य में शायद इतने मोर्चे कभी नहीं बने. यह पहली बार हो रहा है कि छोटे दल मिलकर बडे दलों को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं. फिर भी ये चुनाव को त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय नहीं बना रहे. हाशिये पर गये लोगों के दल हैं. कुछ वोट काटने से आगे नहीं जा पायेंगे.
यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती बिहार के दलित वोटरों के सहारे खुद को राष्ट्रीय चेहरा स्थापित करने की कोशिश में हैं. सभी 243 विधानसभा सीटों पर कुशवाहा वोटर लगभग हर हिस्से में हैं, लेकिन उनका बिखराव है. बसपा और रालोसपा इनको वोटों को बांधने में सफल हुए तो उनके लिए संजीवनी साबित होगी. वहीं, असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) का पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव की समाजवादी जनता दल के अलावे अब उपेन्द्र कुशवाहा के साथ भी गठबंधन किया है.
इसे ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर एलायंस नाम दिया गया है. सभी दल मिलकर राजद के मुसलमान और यादव वोट बैंक में सेंधमारी की सियासत कर रहे हैं. सीमांचल के करीब दो दर्जन सीटों पर मुसलमानों की संख्या 40 फीसदी से अधिक है. वहीं, दलित-मुस्लिम-यादव वोटों में सेंधमारी को प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीए) का गठन किया गया है. जन अधिकार पार्टी के मुखिया पप्पू यादव इसका नेतृत्व कर रहे हैं. दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की पार्टी बीएमपी और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआइ) घटक दल हैं. 2015 में केवल डेढ फीसदी वोट लाले वाली पप्पू यादव को पूर्णिया -मधेपुरा और उससे सटे क्षेत्रों से बडी आस है.
जबकि पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के संयोजन में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक एएलायंस (यूडीए) का गठन हुआ है. दस सितंबर को समस्तीपुर में यूडीए के नेताओं ने सभा की थी. पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि, देवेंद्र यादव, पूर्व सांसाद अरुण कुमार और बिहार की पूर्व मंत्री रेणु कुशवाहा भी थे. 243 सीटों पर चुनाव लडने का एलान हुआ था. यूडीए करीब 16 दलों का गठबंधन है.
इस बीच से दलितों का अगुआ बनने के लिए दलित नेताओं में ऐसी होड मची है कि एनडीए- महागठबंधन तक प्रभावित हो रहे हैं. बडी पार्टी में दलित चेहरा के रूप में उभरे नेता अब दलितों के रहनुमा बन रहे हैं. जीतन राम मांझी ने हम, रामविलास पासवान ने लोजपा तो श्याम रजक ने राजद फिर जदूय और फिर राजद का दामन पकडा हुआ है. हम-लोजपा में तो जारी शीतयुद्ध के बीच अब भाजपा और लोजपा आमने-सामने आ गये हैं. कौन किसकी तरफदारी कर वोट बटोर सके यह एक होड सी मची हुई है. ऐसे में मतदाता भी मौके की तलाश में हैं.