कश्मीर में एलओसी पर हिमस्खलन, सीमा चौकी नष्ट, जवान शहीद, दो लापता, कई जख्मी
By सुरेश एस डुग्गर | Published: November 18, 2020 07:31 PM2020-11-18T19:31:31+5:302020-11-18T19:32:38+5:30
हिमस्खलन में एलओसी पर सैनिकों को गंवाना शायद भविष्य में भी जारी रह सकता है क्योंकि भारतीय सेना पाकिस्तान पर भरोसा करके उन सीमांत चौकिओं को सर्दियों में खाली करने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है जिन्हें करगिल युद्ध से पहले हर साल खाली कर दिया जाता था।
जम्मूः कश्मीर में एलओसी के साथ सटे टंगडार (कुपवाड़ा) सेक्टर में हिमस्खलन में एक अग्रिम सैन्य चौकी क्षतिग्रस्त हो गई है। हिमस्खलन में एक जवान शहीद व दो अन्य जख्मी भी हुए हैं।
दो अभी लापता बताए जाते हैं। मौजूदा सर्दियों में कश्मीर घाटी में हिमस्खलन की यह पहली घटना है। बर्फीले तूफानों और हिमस्खलन में एलओसी पर सैनिकों को गंवाना शायद भविष्य में भी जारी रह सकता है क्योंकि भारतीय सेनापाकिस्तान पर भरोसा करके उन सीमांत चौकिओं को सर्दियों में खाली करने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है जिन्हें करगिल युद्ध से पहले हर साल खाली कर दिया जाता था।
मिली जानकारी के अनुसार, हादसा मंगलवार की रात को हुआ है। सैन्य सूत्रों ने बताया कि टंगडार सेक्टर में एलओसी के अग्रिम छोर पर स्थित सेना की रोशन चौकी अचानक हुए हिमस्खलन की चपेट में आ गई। चौकी का एक बड़ा हिस्सा इसमें क्षतिग्रस्त हो गया। एक हिस्सा बर्फ के बड़े तोदों के साथ अपनी जगह से खिसक कर, बर्फ में ही दब गया। इसमें तीन जवान लापता हो गए। हिमस्खलन के शांत होते ही सेना के बचावकर्मी राहत अभियान में जुट गए। इसमें अत्याधुनिक सेंसरों और खोजी कुत्तों की मदद भी ली गई।
हिमस्खलन के कारण होने वाली सैनिकों की मौतों का सिलसिला कोई पुराना नहीं
पाकिस्तान से सटी एलओसी पर दुर्गम स्थानों पर हिमस्खलन के कारण होने वाली सैनिकों की मौतों का सिलसिला कोई पुराना नहीं है बल्कि करगिल युद्ध के बाद सेना को ऐसी परिस्थितियों के दौर से गुजरना पड़ रहा है। करगिल युद्ध से पहले कभी कभार होने वाली इक्का दुक्का घटनाओं को कुदरत के कहर के रूप में ले लिया जाता रहा था पर अब करगिल युद्ध के बाद लगातार होने वाली ऐसी घटनाएं सेना के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही हैं।
इस साल भी हालांकि अभी तक 28 जवानों की मौत बर्फीले तूफानों के कारण हुई है पर पिछले साल 18 जवानों को हिमस्खलन लील गया था। जबकि वष्र 2018 में 25 जवान शहादत पा गए थे। अधिकतर मौतें एलओसी की उन दुर्गम चौकिओं पर घटी थीं जहां सर्दियों के महीनों में सिर्फ हेलिकाप्टर ही एक जरीया होता है पहुंचने के लिए। ऐसा इसलिए क्योंकि भयानक बर्फबारी के कारण चारों ओर सिर्फ बर्फ के पहाड़ ही नजर आते हैं और पूरी की पूरी सीमा चौकियां बर्फ के नीचे दब जाती हैं।
करगिल युद्ध के बाद से खाली करने का जोखिम नहीं उठा रही
हालांकि ऐसी सीमा चौकिओं की गिनती अधिक नहीं हैं पर सेना ऐसी चौकिओं को करगिल युद्ध के बाद से खाली करने का जोखिम नहीं उठा रही है। दरअसल करगिल युद्ध से पहले दोनों सेनाओं के बीच मौखिक समझौतों के तहत एलओसी की ऐसी दुर्गम सीमा चौकिओं तथा बंकरों को सर्दी की आहट से पहले खाली करके फिर अप्रैल के अंत में बर्फ के पिघलने पर कब्जा जमा लिया जाता था। ऐसी कार्रवाई दोनों सेनाएं अपने अपने इलाकों में करती थीं।
पर अब ऐसा नहीं है। कारण स्पष्ट है। करगिल का युद्ध भी ऐसे मौखिक समझौते को तोड़ने के कारण ही हुआ था जिसमें पाक सेना ने खाली छोड़ी गई सीमा चौकिओं पर कब्जा कर लिया था। नतीजा सामने है। करगिल युद्ध के बाद ऐसी चौकिओं पर कब्जा बनाए रखना बहुत भारी पड़ रहा है। सिर्फ खर्चीली हीं नहीं बल्कि औसतन हर साल कई जवानों की जानें भी इस जद्दोजहद में जा रही हैं।
बताया जाता है कि पाकिस्तानी सेना भी ऐसी ही परिस्थितियों से जूझ रही है। एक जानकारी के मुताबिक, पाक सेना ने सीजफायर के बाद कई बार ऐसे मौखिक समझौतों को फिर से लागू करने का आग्रह भारतीय सेना से किया है पर भारतीय सेना इसके लिए कतई राजी नहीं है। एक सेनाधिकारी के बकौल: ‘पाक सेना का इतिहास रहा है कि वह लिखित समझौतों को भी तोड़ देती आई है तो मौखिक समझौतों की क्या हालत होगी अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।’