हमेशा फैशन में रहती है ये साड़ी, भारत की सबसे कीमती साड़ियों में शुमार है ये स्टाइल

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 15, 2018 10:03 AM2018-09-15T10:03:08+5:302018-09-15T10:03:08+5:30

पटोला साड़ी में नर्तकी, हाथी, तोता, पीपल की पत्ती, पुष्पीय रचना, जलीय पौधे, टोकरी सज्जा की आकृतियां, दुहरी बाहरी रेखाओं के साथ जालीदार चित्र और पुष्प गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर बनाए जाते हैं।

Fashion and Trends: Patola saree is always in trend, know interesting facts about this saree style | हमेशा फैशन में रहती है ये साड़ी, भारत की सबसे कीमती साड़ियों में शुमार है ये स्टाइल

हमेशा फैशन में रहती है ये साड़ी, भारत की सबसे कीमती साड़ियों में शुमार है ये स्टाइल

भारत की सबसे कीमती साड़ियों में शुमार पटोला साड़ी का चलन एक शताब्दी पुराना है। पर तब से लेकर आज तक यह नया ही बना हुआ है। भारत की हर दुल्हन यह ख्वाब संजोती है कि वह अपनी शादी में एक बार पटोला साड़ी पहने।

कहां से आई ये साड़ियां?

पटोला साड़ी की खासियत जानने से पहले इसका इतिहास जानते हैं। जो जुड़ा है गुजरात के प्रचीन शहर पाटण से। सरस्वती नदी के तट पर बसे इस क्षेत्र में 11वीं सदी में सोलंकी शासक राजा भीमदेव (1022-1063) का शासन था। उनकी पत्नी का नाम रानी उदयमती था। रानी अपने पति से बेहद प्यार करती थीं। जब राजा भीमदेव का देहांत हुआ तो रानी ने उनकी याद में इसी शहर में एक बावड़ी का निर्माण करवाया। बाद में इसे रानी की वाव के नाम से भी जाना गया।

पटोला साड़ी पर बने डिजाईन

रानी की वाव वास्तुकला का वह बेजोड़ नमूना है। इसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दी है। इसी नक्काशी को पटोला साड़ियों पर चित्रित किया जाता है। बुनकर बताते हैं कि नक्काशी में केवल 4 तरह की आकृतियां हैं, जिसे आपस में इस तरह जोड़ा गया है कि ये हर दीवार पर अलग दिखाई देती हैं। पटोला साड़ियों पर भी इन्हीं चार आकृतियों को नक्कशी वाली शैली में उतारा जाता है आमतौर पर एक कारखाने में रोजाना सैंकड़ों डिजाइन की साड़ियां तैयार होती हैं, पर पटोला की एक साड़ी बनाने में दो मजदूरों को करीब 5 माह का समय लग जाता है। 

पटोला साड़ी की खासियत

पटोला साड़ी में नर्तकी, हाथी, तोता, पीपल की पत्ती, पुष्पीय रचना, जलीय पौधे, टोकरी सज्जा की आकृतियां, दुहरी बाहरी रेखाओं के साथ जालीदार चित्र और पुष्प गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर बनाए जाते हैं।

साड़ी पर आकृति उकेरने का एक निश्चित क्रम होता है, इसलिए एक साड़ी को दो ही मजदूर पूरा करते हैं। जब तक एक साड़ी का काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक दूसरी की तैयारी नहीं की जाती। साड़ियों की डिमांड और बुनकरों की सीमित संख्या के कारण कई बार 3 साल तक की वेटिंग भी मिलती है। साल 2014 में पटोला साड़ी को जिओग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) रजिस्ट्रेशन दिया गया है। 

पटोला साड़ियों का अद्भुत प्रिंट

पटोला साड़ी के प्रिंट तो खास हैं ही साथ ही इसकी बुनाई का तरीका थी हटकर है। साड़ी में प्योर सोने और चांदी के तारों की बुनाई होती है। जिसका सर्टिफिकेट साड़ी के साथ दिया जाता है। यानी यदि चाहें तो साड़ी की जरी निकालकर उसे बेच सकते हैं। इसकी तरह साड़ी में अलग किस्म के रेश्म का इस्तेमाल होता है, जो रेशम के कीड़े की लार से बनता है। साड़ी बनाने के पहले मजदूर इस रेशम को बनाते हैं।

बनाने में लगता है समय

बुनकर सालभर में मुश्किल से आधा दर्जन साड़ियां ही बनाते हैं। यही कारण है कि सबसे सस्ती प्योर पटोला साड़ी की कीमत डेढ़ लाख रुपए है और अधिकतम 4 लाख रुपए तक की साड़ी आती है। भारत में 1934 में भी एक पटोला साड़ी की कीमत 100 रुपए थी। तब अंग्रेज भी इसे खरीदने से पहले सोचते थे। आज भी सबसे ज्यादा ऑर्डर भारत के बाद ब्रिेटन से आते हैं। 

पटोला साड़ी पर उकेरे गए प्रिंट कुछ इस तरह के होते हैं कि इसे दोनों ओर से पहना जाए, तब भी कोई अंतर नजर नहीं आएगा। इसे डबल इकत आर्ट कहते हैं। डबल इकत को मदर ऑफ ऑल इकत भी कहा जाता है। इसके चलते साड़ी में ये अंतर करना मुश्किल है कि कौन सी साइड सीधी है और कौन सी उल्टी। इसके अलावा नेचुरल रंगों और धागों से बुने होने के कारण यह साड़ी इतनी मजबूत है कि 100 साल तक लगातार इस्तेमाल के बाद भी न तो फटती है,  न ही इसके रंग में कोई फर्क आता है। गुजरात के म्यूजियम में रानी उदयमती की पहनी हुई साड़ी और उनके बाद की रानियों की पटोला चूनर अब तक ज्यों की त्यों सुरक्षित रखी हुई हैं। 

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