Pryag Mahakumbh 2025: सनातन आस्था का सबसे बड़ा समागम महाकुंभ 2025प्रयागराज में शुरू होने जा रहा है. एक अनुमान है कि 40 से 45 करोड़ श्रद्धालु पूरे देश और दुनिया के कोने-कोने से यहां त्रिवेणी के पवित्र संगम में डुबकी लगाने के लिए आएंगे. यह श्रद्धालु करीब 4000 हेक्टेयर भूमि में फैले मेला क्षेत्र में घूमते हुए अनोखी साधनाओं में लीन साधु-संतों के दर्शन करेंगे. यहीं नहीं ये श्रद्धालु हिंदू समाज की रक्षा के लिए बनाए गए अखाड़ों के इतिहास को भी जानेंगे. और संगम में डुबकी लगाने के बाद अधिकांश श्रद्धालु संगम क्षेत्र लौटते हुए गंगा जल के साथ ही मेला क्षेत्र में बिक रहे राम नामी दुपट्टे को भी कुंभ की निशानी के तौर पर खरीद का अपने साथ ले जाएंगे.
इस गांव में छपता है रामनामी दुपट्टा
यह राम नामी दुपट्टे प्रयागराज से करीब तीस किलोमीटर पहले लखनऊ रोड पर स्थित एक कस्बे गोपालगंज के अहलादगंज गांव में बनाए जाते हैं. इस गांव में करीब सात सौ रंगरेज परिवार रहते हैं. इसके नजदीक ही खनझनपुर और इब्राहीमपुर गांव में तमाम रंगरेज 'राम नामी दुपट्टा' तैयार कर रहे हैं. प्रयागराज का अहलादपुर और उसके आसपास के गांव वास्तविक अर्थों में आपसी भाईचारे की जिंदा मिसाल है.
सदियों से इस गांव के मुस्लिम रंगरेज 'रामनामी दुपट्टा' छाप रहे हैं. अपनी आस्था और विश्वास से अलग ये हिंदुओं की आस्था के लिए काम करते हैं. ऐसा भी नही है कि ये परिवार अचानक ही हिंदुओं के धार्मिक अनुष्ठानों, रीति रिवाजों और संस्कारों में काम आने वाले सामान बनाने लगे हों, बल्कि यह काम इनके परिवारों में वर्षों से किया जा रहा है.
कुल मिलकर गोपालगंज के करीब डेढ़ हजार रंगरेजों के परिवारों का यहीं पुश्तैनी धंधा है. रामनामी दुपट्टे के अलावा गमछा और चादर भी यही के रंगरेजों के हाथों छापी जाती हैं. अहलादगंज गांव में एक छोटी सी मस्जिद है. इस मस्जिद से सटे मकानों में इस महाकुंभ में आने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए राम नामी दुपट्टा छापे जा रहे हैं.
ऐसे ही एक मकान की छत पर रामनामी दुपट्टा छाप रहे अखलाक और अब्दुल बताते हैं कि बाम्बे के मतीन सेठ की फर्म से उन्हे राम नामी दुपट्टा छापने का काम मिला है. एक दुपट्टे की छपाई के लिए उन्हे 30 पैसा मिलता है. मतीन सेठ उन्हे पीले रंग का बोस्की कपडा गांठों-गांठों में भिजवाते हैं.
हम लोग इसे छापते हैं फिर इसको दूसरे कारीगर काट कर इसके किनारे सिलते हैं. उसके बाद कैसे ये दुपट्टे कुंभ में बिकने जाते हैं, अब्दुल को यह नहीं पता. अब्दुल का कहना है कि एक मीटर कपडे में दो रामनामी दुपट्टे आराम से निकलते हैं और कुंभ में ये दुपट्टा 30 से 50 रुपए में बेचा जाता है. कुंभ में आए लोग इस निशानी के तौर पर खरीद कर ले जाते हैं.
रामनामी दुपट्टा छापकर मिल रही रोटी
रामनामी दुपट्टा छाप रहा अब्दुल अपने काम से खुश है. मुस्लिम होकर रामनामी दुपट्टा छापने के सवाल पर वह कहता है कि मज़हब का पेट से कोई वास्ता नही होता. पेट को तो रोटी चाहिए, चाहे वो किसी भी मजहब से मिले. किसी के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है कि राम के आगे हाथ फैला लो. यह अल्लाह की मर्ज़ी यही है कि हमें रामनामी दुपट्टा छापकर रोटी मिल रही है.
कुंभ के चलते हमारे इस काम में खासी बढ़ोतरी हो गई है. अहलादगंज गांव के मुस्लिमों परिवारों के लिए तो ईद बनकर आता है कुंभ. इस गांव में काम करने वाले छोटे छोटे बच्चे भी ये जानते हैं कि वो किसके लिए काम कर रहे हैं और उन्हें इस बात से कोई फर्क भी नही पड़ता कि ये काम हिंदुओं का है या फिर मुसलमान का.
कुछ यही हाल उन हिंदुओं का भी है जो अयोध्या से लेकर प्रयागराज में राम नामी दुपट्टा का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें भी इस बात का कभी पता ही नहीं है कि इन्हें किन हाथों ने बनाया है. और अगर पता चल भी जाए तो शायद उन्हें भी कोई फर्क न पड़े. क्योंकि जिस पर राम लिखा है, उस पर सवाल करने का कोई मतलब ही नहीं है.